ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ जब सरकार को खुश करने के लिए फिल्मों में नफरत वाले राष्ट्रवाद का छौंक लगाया गया हो

कई तरीके से फिल्म इंडस्ट्री पर दवाब डाले जा रहे हैं। हालत इतनी विकट हो गई है कि हर स्क्रिप्ट पहले वकीलों के पास भेजी जा रही है कि फिल्म बनाई जाए या नहीं? वकील यह भी देखते हैं कि सरकार और बीजेपी के समर्थक किसी संवाद या दृश्य से नाराज तो नहीं होंगे?

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अजय ब्रह्मात्मज

विवेक रंजन अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में दिख रही नफरत की आग को जाहिर कर देती है। ऊपर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अनेक केंद्रीय मंत्रियों और राज्य सरकारों के अतार्किक समर्थन ने इसका प्रसार और विस्तार कर दिया है। प्रधानमंत्री ‘द कश्मीर फाइल्स’ के समर्थन में सिर्फ तस्वीर खिंचवाने तक ही नहीं रुके, उन्होंने अपनी पार्टी के सांसदों की बैठक में फिल्म के बारे में सीधी बात करके स्पष्ट कर दिया कि इस फिल्म का जोरदार समर्थन और प्रचार करना है। वह न जाने किस काल्पनिक ‘इको सिस्टम’ का हवाला दे रहे थे कि वह फिल्म को रोक रही है जबकि वह स्वयं इसके प्रचार का ‘इको सिस्टम’ तैयार कर गए। बीजेपी की दक्षिणपंथी सोच के समर्थक निजी, सांस्थानिक और सरकारी स्तर पर इस फिल्म के शो का आयोजन कर रहे हैं। वास्तव में बीजेपी रैलियों और जनसभाओं के जरिये जो काम निरंतर करती आ रही है, उसे ही इस फिल्म ने दावानल की तरह फैला दिया है।

हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में सभी विस्मित हैं। ‘द कश्मीर फाइल्स’ के प्रखर समर्थक और खामोश आलोचक- दोनों ही इस विस्मयकारी सफलता को समझने में लगे हैं। विवेक रंजन अग्निहोत्री तो वक्तव्य, वीडियो, इंटरव्यू और मेल-मुलाकातों में इस दावानल को भड़का ही रहे हैं, आम दर्शक भी अपने स्तर पर उत्तेजित होकर मुसलमानों और सेकुलर समूहों के खिलाफ उबल रहा है। उनके भड़काऊ वीडियो धड़ल्ले से शेयर किए जा रहे हैं। जाने- अनजाने फिल्म के समर्थन में उमड़ी भीड़ हवा का काम कर रही है। इस एक फिल्म ने फिल्म इंडस्ट्री की दशकों पुरानी सेकुलर धारा और धारणाओं को गहरा झटका दिया है।

किसी एक फिल्म या किसी एक फिल्मकार का नाम लेकर यह बताना मुश्किल होगा कि नफरत की यह चादर बुनने की शुरुआत कब और कैसे हुई। लेकिन यह तो है ही कि सुशांत सिंह राजपूत की आकस्मिक मौत के बाद फिल्म इंडस्ट्री को निराधार बदनाम करने की संगठित कोशिश की गई। इसका ही परिणाम है कि हर नई फिल्म की रिलीज के समय ‘बायकॉट’ का हैशटैग चलने लगता है। ये सारे अभियान बीजेपी की सोच और राजनीति को लगातार विस्तारित करते रहे हैं। स्पष्ट रूप से केंद्र सरकार और बीजेपी नेतृत्व फिल्म इंडस्ट्री के सेकुलर रवैये से नाखुश हैं।

प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीके से फिल्म इंडस्ट्री पर दवाब डाले जा रहे हैं। स्थिति इतनी विकट हो गई है कि आज हर स्क्रिप्ट पहले वकीलों के पास भेजी जा रही है। वे बताते हैं कि फिल्म बनाई जाए या नहीं? वे यह भी देखते हैं कि सरकार और बीजेपी के समर्थक किसी संवाद या दृश्य से नाराज तो नहीं होंगे? ‘तांडव तमाशा’ ने उन्हें सावधान कर दिया है। ‘द कश्मीर फाइल्स’ में कुछ सालों से चल रहे नफरती विचारों को सांद्र कर डाला गया है। इसमें राधिका मेनन का किरदार, जेएनयू जैसा विश्वविद्यालय, मीडिया के प्रति की गई टिप्पणी और कांग्रेस तथा वामपंथियों की आलोचना उन्हीं विचारों के रिक्रिएशन हैं।


यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दी फिल्में मुख्य रूप से भारतीय समाज की तरह सवर्ण सामंती सोच से प्रभावित और संचारित रही हैं लेकिन सामाजिक विविधता में समरसता की कोशिश भी बनी रही। सहिष्णुता और करुणा बनी रही। बहुसंख्यक दर्शकों को रिझाने के लिए फिल्मों की कहानियों का परिवार और समाज मुख्य रूप से हिन्दू सवर्ण ही रहा। कह सकते हैं कि लेखकों और निर्देशकों ने एक कल्पनालोक का सृजन किया। इस कल्पनालोक को दक्षिणपंथी विचारों से प्रभावित सांप्रदायिक सोच के लेखकों-निर्देशकों ने समय-समय पर पंक्चर किया। फिर भी नफरत हावी नहीं हो सकी। वह मुख्यधारा नहीं बन पाई। अभी ऐसा दिख रहा है कि हिन्दी फिल्मों की सेकुलर धारा पतली होती जा रही है। सामाजिक न्याय, अमीर-गरीब की दोस्ती, वंचितों के प्रति करुणा, महिला अधिकार, अंतरजातीय और अंतर-धार्मिक विवाह, मजलूम के हक और अधिकार पर सैकड़ों हिन्दी फिल्में मिल जाएंगी। हिन्दी फिल्मों की एक वामधारा भी रही है जिसे इप्टा के संस्कृति कर्मियों और वामपंथी सोच के लेखकों, निर्देशकों और कलाकारों ने प्रवाहमान रखा।

अब जमीनी सच्चाई यह है कि सिनेमा मुख्यरूप से धंधा बन चुका है। यहां सक्रिय ज्यादातर लोग आर्थिक सफलता पर ही ध्यान दे रहे हैं। हां, वे वर्तमान सत्ता और सरकार के ‘गुडबुक’ में भी रहना चाहते हैं। प्रधानमंत्री के साथ सेल्फी लेने से लेकर उनकी गतिविधियों की दुदुंभी बजाने में पीछे नहीं रहना चाहते। वे सरकार को ख़ुश करने वाली फिल्मों में राष्ट्रवाद की छौंक लगा रहे हैं।

फिल्मों में नफरत खासकर मुसलमानों को खलनायक, दानव और हिंसक रूप में चित्रित करने का अभ्यास पिछले कुछ सालों में तेज हुआ है। दशकों तक नायक का दोस्त रहा मुसलमान किरदार अब खलनायकों के समूह का हिस्सा हो गया है। काल्पनिक, ऐतिहासिक और सच्ची घटनाओं से ऐसी कहानियां जुटाई, लिखी और बनाई जा रही हैं जो वर्तमान सत्ता के हित में काम आ सके। इसे सरकारी तंत्र से बढ़ावा भी मिल रहा है।

2019 में आई दो फिल्मों- ‘उरीः द सर्जिकल स्ट्राइक’ और ‘केसरी’ और 2020 में आई ‘तान्हाजी’- तीनों ही फिल्मों में आततायी और खलनायक मुसलमान थे। इनके खिलाफ नायक खड़ा होता है, जूझता है, जीतता है या शहीद होता है। याद होगा, ‘उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक’ का 1 मिनट 17 सेकंड का टीजर आया था तो उसमें एक वॉइसओवर सुनाई पड़ा था ‘हिन्दुस्तान के आज तक के इतिहास में हमने किसी मुल्क पर पहला वार नहीं किया 1947, 61,71, 99... यही मौका है उनके दिल में डर बिठाने का। एक हिन्दुस्तानी चुप नहीं बैठेगा। यह नया हिंदुस्तान है। यह हिन्दुस्तान घर में घुसेगा और मारेगा भी।‘


हम न्यू इंडिया और नया हिन्दुस्तान के बारे में लगातार सुन रहे हैं। इस फिल्म में नायक सर्जिकल स्ट्राइक के पहले पूछता है ‘हाउ इज द जोश?’ यह संवाद प्रधानमंत्री मोदी को इतना पसंद आया था कि फिल्मों के संग्रहालय के उद्घाटन में फिल्म बिरादरी को संबोधित करते हुए उन्होंने इसे दोहराया था। ‘केसरी’ फिल्म में नायक हवलदार ईसर सिंह और ‘तान्हाजी’ के नायक के बलिदान को राष्ट्रीय भावना के उद्रेक से नियोजित किया गया था।

फिलहाल नफरत के नवाचार के इस दौर में कलाकारों की सेकुलर मंडली खामोश है। वे दबाव महसूस कर रहे हैं। उनके बीच यह समझदारी चल रही है कि फिलहाल हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद से प्रेरित नफरत की भावना का पानी सिर के ऊपर जा चुका है। अभी कोई भी बयान, विरोध-प्रतिरोध या सामान्य कोशिश डुबा सकती है। बुखार और बाढ़ उतरने का इंतजार करना जरूरी है। बाद में अंदाजा लगाया जाएगा कि इस फिल्म ने हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री के सेकुलर फैब्रिक को कैसे और कितना तहस-नहस किया? साथ ही यह भी देखना है कि कैसे प्रबल निरंकुश धारणाओं के बीच अभिव्यक्ति की युक्ति निकाली जा सकती है। यह सामान्य समय नहीं है। हिन्दी फिल्मों के इतिहास में ऐसी स्थिति पहले नहीं आई थी। आजादी के बाद कभी सत्ता और सरकार ने नफरत का समर्थन नहीं किया।

‘द कश्मीर फाइल्स’ की लोकप्रियता के परिणाम भयानक होंगे। सत्ता के सहयोग और समर्थन से भड़की भावनाओं और प्रवृत्तियों को संभालना मुश्किल होगा। ऐसी फिल्म की स्वीकृति, प्रचार, प्रसार और कारोबार के असर में इस ढंग की और भी फिल्में आ सकती हैं। ‘द कश्मीर फाइल्स’ के प्रभाव में सेकुलर सोच से बनी कश्मीर केंद्रित फिल्मों- ‘हामिद’, ‘हैदर’, ‘शिकारा’ और ‘नोटबुक’ आदि की भर्त्सना की जा रही है। कहा जा रहा है कि इनमें कश्मीरी पंडितों की सुध नहीं ली गई। ‘दि कश्मीर फाइल्स’ ने दर्शकों का विकट ध्रुवीकरण कर दिया है। जिस प्रकार वोट देते समय देश के अधिकांश मतदाता के अंदर का हिन्दू जाग जाता है, वैसे ही इस फिल्म को देखते समय समीक्षकों और दर्शकों के अंदर का हिन्दू जाग उठा है। उसकी नकारात्मक जागृति भारतीय समाज और सिनेमा के लिए घातक ही होगी।

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