करोलबाग में पुस्तक-संस्कृति को बचाने के लिए जरूरी है दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी को बचाना

करोलबाग की लाइब्रेरी को बचाने के लिए लोगों ने अपने स्तर पर जितनी कोशिशें की, इन दो सालों में लाइब्रेरी को हटाने का गठजोड़ उतना ही मजबूत दिखाई देता रहा है। दिल्ली पल्बिक लाइब्रेरी द्वारा वकीलों का बदला जाना भी इसमें शामिल है।

फोटो: अनिल चमड़िया
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अनिल चमड़िया

भारत सरकार और यूनेस्को की पहल पर 1951 में दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी शुरू हुई। दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा वित्तपोषित है। यह एक स्वायत्त बोर्ड है और दिल्ली में इसकी 45 के करीब शाखाएं हैं।

1963 में करोल बाग में एक देशभक्त लाइब्रेरी प्रेमी ने जगह किराए पर दी तो उसकी क्षेत्रीय शाखा शुरू हो गई। इस लाइब्रेरी में वैसी किताबें और दस्तावेज हैं जो मुश्किल से ही किसी और लाइब्रेरी में आसानी से मिल सकती है। सबसे महत्वपूर्त बात तो यह है कि इस लाइब्रेरी से सबसे ज्यादा लाभ उन लोगों को होता रहा है जो सदियों से पढ़ाई से वंचित किए जाते रहे हैं। इस लाइब्रेरी से कईयों ने प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी की। लेकिन मकान मालिक की मृत्यु के दस वर्ष बाद 2005 में इस लाइब्रेरी पर संकट के बादल मंडराने लगे जब यह भवन एक बिल्डर कंपनी डिम्पल इंटरप्राइजेज को बेचा गया। लेकिन दिल्ली रेंट कंट्रोल एक्ट, 1958 के अनुसार 3500 मासिक से कम किराये की जगह को जबरदस्ती खाली नहीं करवाया जा सकता। लिहाजा, इस बिल्डर कंपनी ने लाइब्रेरी को बंद करवाने की सब तरह की कोशिशें कीं और अब यह मामला इस हद तक पहुंच गया है कि हाई कोर्ट ने बिल्डर के आवेदन पर सुनवाई करते हुए लाइब्रेरी की 85000 पुस्तकों को सुदूर बवाना की एक बिल्डिंग में भेजने पर मुहर लगा दी है, जिस भवन में लाइब्रेरी अब शुरू की जाएगी।

करोलबाग में पुस्तक-संस्कृति को बचाने के लिए जरूरी है दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी को बचाना

आखिरकार करोलबाग की इस लाइब्रेरी को बचाने के लिए दिल्ली हाई कोर्ट में दस्तक देनी पड़ी क्योंकि हाई कोर्ट में जनहित याचिका देने वालों को यह महसूस होने लगा था कि शायद ही सरकारी तंत्र के किसी हिस्से में इतनी संवेदना बची हो कि वह करोलबाग की लाइब्रेरी को खाली कराने के हरसंभव प्रयास में मददगार नहीं हो। मकानों के मालिकों की पुरानी पीढ़ी के गुजरने के बाद उनके मकानों में खुले जनहित के संस्थानों को बंद कराने का एक अचूक तरीका यह निकाला गया कि मकान को ही खतरनाक घोषित करा दिया जाए। एमसीडी वैसे भी दुनिया के कुख्यात सरकारी संस्थाओं में अव्वल नंबर पर है। उसके एक इंजीनियर को प्रभावित करके बिल्डिंग को खतरनाक घोषित करवाया गया और फौरन उसे गिराने का आदेश भी जारी कर दिया गया। लेकिन मकान के खतरनाक होने का केस जैसे बनाया गया, वह भ्रष्टाचार की दुनिया के लिए काबिले-तारीफ है। एमसीडी से पहले मालिक ने सर्वे करने वाली 3 निजी कंपनियों से मनमाफिक जांच करवा कर एमसीडी को रिपोर्ट सौंप दी। एमसीडी ने न तो अपनी और कोई जांच की और न ही किसी अन्य सरकारी एजेंसी से परामर्श किया। जबकि सरकारी सर्वे अधिकारी मकान के खतरनाक होने के तर्क को स्वीकार करने को कतई तैयार नहीं थे।

लाइब्रेरी बंद कराने के जुगाड़ में दिल्ली लाइब्रेरी बोर्ड के लोग भी शामिल रहे हैं क्योंकि जब बिल्डिंग को गिराने का आदेश हुआ तो उसकी सूचना न तो संस्कृति मंत्रालय को दी गई और बिल्डर कंपनी ने हाई कोर्ट में कहा कि दिल्ली लाइब्रेरी बोर्ड के चैयरमैन खुद लाइब्रेरी को बंद करने के लिए एक महीने का समय मांग रहे हैं। जबकि बोर्ड का निर्णय लाइब्रेरी भवन को खाली करने के विपरीत था।

करोलबाग की लाइब्रेरी को बचाने के लिए लोगों ने अपने स्तर पर जितनी कोशिशें की, इन दो सालों में लाइब्रेरी को हटाने का गठजोड़ उतना ही मजबूत दिखाई देता रहा है। दिल्ली पल्बिक लाइब्रेरी द्वारा वकीलों का बदला जाना भी इसमें शामिल है।

लाइब्रेरी के खतरनाक और पुस्तकों के नष्ट हो जाने की स्थिति भी कैसे बनी, यह भी गौरतलब है। मकान मालिक ने अपने मकान के उपरी तल्ले की मरम्मत के नाम पर ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि वह नीचे के तल्ले में चलने वाला खंडहर दिखाई देने लगे। जीर्ण-शीर्ण अवस्था वाली उसकी एक फोटो तैयार कराई जा सके। करोल बाग के प्रतिनिधियों ने यह स्वीकार किया कि यदि बिल्डर अपने लिए इस जगह का कारोबारी इस्तेमाल करना चाहता है तो उन्हें इस पर आपत्ति नहीं हो सकती है, लेकिन वह अपनी नई बिल्डिंग में लाइब्रेरी के लिए जगह देने पर सहमति जाहिर कर दे। लेकिन लाइब्रेरी बची रहे, यह सुनने को कोई तैयार नहीं है। मजेदार बात तो यह है कि मकान मालिक ही पहले मकान को खतरनाक बताकर लोगों के जान-माल के नुकसान होने की संवेदना जाहिर करता रहा है और अब उसने ही पुस्तकों के जान-माल की भी सुरक्षा के लिए गुहार लगाई और न्यायालय ने कहा है कि बरसात के पानी से किताबों को बचाया जाना चाहिए और उन्हें दिल्ली के अप्पु घर की तरह 28 किलोमीटर दूर बवाना ले जाने का आदेश पारित किया गया है।

करोल बाग में पुस्तकों की संस्कृति का क्या होगा? पुस्तकालय को बचाने की मुहिम में लगे लोगों का कहना है कि दिल्ली हाई कोर्ट में उनकी याचिका लंबित है, जिसमें करोलबाग में इस पुस्तकालय को बनाए रखने का आदेश पारित करने का अनुरोध किया गया है। अगस्त के महीने में इस याचिका पर सुनवाई होगी। इस पूरे मामले में संस्कृति मंत्रालय का रवैया महत्वपूर्ण है।

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