ऐसा भी क्या मुश्किल है कश्मीरियों पर भरोसा करना?

केंद्र सरकार कब समझेगी कि स्थानीय सहभागिता के बिना आतंकवाद से लड़ पाना संभव नहीं है।

जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ
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रश्मि सहगल

पहलगाम आतंकी हमले और उसके बाद पाकिस्तान के साथ चार दिन तक चले संघर्ष से सरकार ने क्या सबक लिया? जम्मू-कश्मीर की संवेदनशीलता और उपमहाद्वीप की भू-राजनीति में इसके महत्व को देखते हुए, माना जा रहा था कि सरकार कुछ सबक सीखेगी और उसके अनुरूप जरूरी सुधार करेगी। इसके बजाय, आम कश्मीरियों को निशाना बनाने से लेकर टकराव से पहले सीमावर्ती क्षेत्रों से नागरिकों को सुरक्षित बाहर निकालने में विफल रहने तक, उसने वह सब कुछ किया जो सिर्फ निराश-हताश करने वाला था। 

घाटी में स्थानीय लोगों द्वारा देश के साथ एकजुटता का सहज प्रदर्शन राज्य को उसकी गरिमा बहाल करने के साथ उनका भरोसा वापस अर्जित करने का भी अवसर था। लेकिन एक बड़ा अवसर हाथ से निकल गया- क्योंकि सरकार अपनी समझ पर पड़ा कुहासा साफ किए बगैर आगे बढ़ती रही।

पहलगाम हादसे के बाद, कश्मीर पर नजर रखने वाले ज्यादातर लोग सहमत थे कि लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई उमर अब्दुल्ला की अगुआई वाली सरकार को सुरक्षा से जुड़े सभी मामलों में शामिल रहना चाहिए। लेकिन 29 मई को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा, गृह मंत्रालय, सुरक्षा बलों और खुफिया एजेंसियों के अधिकारियों के साथ एक उच्च स्तरीय सुरक्षा बैठक करते वक्त मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को सीधे-सीधे नजरअंदाज कर दिया। इरादा एकदम साफ था: जम्मू-कश्मीर में कानून और व्यवस्था पर खास नियंत्रण बनाए रखना। क्या यह समझदारी भरा फैसला है? यह अहम सवाल है!

इस साल ऐसा तीसरी बार हुआ है जब केंद्र सरकार ने मुख्यमंत्री को दरकिनार किया है- पहले फरवरी और फिर अप्रैल में। बार-बार दरकिनार किए जाने से नेशनल कॉन्फ्रेंस के कई विधायकों को आलोचना करने का अवसर मिला, जिन्होंने अमित शाह और एलजी पर मुख्यमंत्री कार्यालय को सोची-समझी रणनीति के तहत कमजोर करने का आरोप लगाया। पहलगाम आतंकी हमले के बाद, उमर अब्दुल्ला सरकार ने जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल करने की मांग फिर से दोहराई- एक ऐसा कदम जिससे क्षेत्र की शीर्ष सुरक्षा संस्था, ‘एकीकृत कमान’ का नियंत्रण फिर से निर्वाचित मुख्यमंत्री के हाथ में आ जाएगा।  

नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता नासिर असलम वानी ने ठीक ही कहा, मुख्यमंत्री “कोई बाहरी व्यक्ति नहीं हैं और हर निर्णय लेने में उनकी हिस्सेदारी होनी ही चाहिए।” कश्मीर की सुरक्षा-व्यवस्था में महज केन्द्र सरकार, सशस्त्र बल, खुफिया एजेंसियां ​​और एलजी ही तो एकमात्र खिलाड़ी नहीं होने चाहिए। वानी ने कहा, “असल और प्रमुख हितधारक तो राज्य के लोग हैं; और अगर अपने मामलों की जिम्मेदारी उनके पास रहती है, तो कोई क्यों आश्चर्य करे कि पहलगाम जैसे क्रूर अत्याचार इतनी आसानी से तो नहीं होंगे।”

यह जनता ही है जो सुरक्षा उपायों या उनकी चूक का खामियाजा भुगतती है और यह एक विडंबना है कि ऐसे  मामलों में उनकी कोई भागीदारी नहीं है जो सीधे उनसे संबंधित हैं। उन्होंने कहा कि केन्द्र और कश्मीरी अवाम के बीच भरोसा कायम करना महत्वपूर्ण है, लेकिन निर्वाचित सरकार को उसकी सही शक्तियों से वंचित रखने वाला मौजूदा रवैया और बार-बार वादे के बावजूद उन्हें पूरा करने में केन्द्र की विफलता सिर्फ अविश्वास को जन्म देता है। 


कुलगाम से लगातार पांचवीं बार चुने गए सीपीएम विधायक मोहम्मद यूसुफ तारिगामी इस पूरे प्रकरण में बहुत स्पष्ट दिखते हैं। तारिगामी बताते हैं कि जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 के तहत कानून और व्यवस्था एलजी के अधिकार क्षेत्र में है और इसकी देखरेख सीधे गृह मंत्रालय करता है। उनका कहना है, “कश्मीर एक अनूठा राज्य है। यह तीन तरफ से पाकिस्तान और चीन से घिरा हुआ है। निर्वाचित राज्य सरकार को प्रक्रिया में शामिल न करके वे यह संकेत देना चाहते हैं कि उमर की सरकार विश्वसनीय नहीं है और शांति बहाल करने या आतंकवाद को रोकना उनके वश की बात नहीं है।”

निराशा के स्वर में वह कहते हैं, “नेशनल कॉन्फ्रेंस ने भारी कीमत चुकाई है और अपने हजारों कार्यकर्ताओं को आतंकवादियों के हाथों खोया है। कभी-कभी तो मुझे आश्चर्य होता है कि क्या वे हम पर इसलिए भरोसा नहीं करते क्योंकि हम कश्मीरी और मुसलमान हैं। वे भूल जाते हैं: आप स्थानीय लोगों को शामिल किए बिना आतंकवाद से नहीं लड़ सकते।”

इंस्टीट्यूट ऑफ कॉन्फ्लिक्ट मैनेजमेंट के निदेशक और आतंकवाद निरोध के विशेषज्ञ डॉ. अजय साहनी इस धारणा से सहमत हैं। वह कहते हैं, “यह सरकार राज्य सरकारों को जिम्मेदारी सौंपने में विश्वास नहीं करती है। स्पष्ट है कि उन्हें स्थानीय आबादी पर भरोसा नहीं है क्योंकि वे मुसलमान हैं। इनके जेहन में उनके प्रति बुनियादी दुश्मनी का भाव है।”

उमर अब्दुल्ला ने स्वीकार किया है कि उनके लिए हालात कितने मुश्किल हैं, सारी शक्तियों से वंचित, जनता की अपेक्षाओं और गृह मंत्रालय तथा उपराज्यपाल की परस्पर विरोधी मांगों के बीच उनके लिए यह सब किसी महीन तार पर चलने जैसा है। जम्मू-कश्मीर में सत्ता के कई केंद्रों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, “हमारे (जम्मू-कश्मीर में) यहां अजीबो-गरीब हालात हैं। (बतौर पर्यटन मंत्री) पर्यटक मेरी जिम्मेदारी हैं लेकिन पर्यटकों की सुरक्षा मेरे जिम्मे नहीं है। यहां तीन सरकारों को मिलकर काम करना होगा- जम्मू-कश्मीर की निर्वाचित सरकार, जम्मू-कश्मीर की गैर-निर्वाचित सरकार और भारत सरकार।”

नाम न बताने की शर्त पर एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने बताया, “वरिष्ठ पुलिस अफसरों की जगह बाहरी लोग लाए जा रहे हैं, जिन्हें न यहां के इलाकों की जानकारी है और न स्थानीय लोगों की मानसिकता की समझ। इसमें कोई शक नहीं कि पहलगाम में सुरक्षा में बड़ी चूक हुई। इस बात की विस्तृत जांच होनी चाहिए कि ऐसा होने कैसे दिया गया। इससे भी अप्रिय बात यह कि मारे गए पर्यटकों के शव बैसरन मैदान में तीन घंटे तक पड़े रहे, और कई को तो उठाकर पैदल नीचे पहलगाम ले जाया गया, जबकि उन्हें हेलीकॉप्टर से अस्पताल ले जाया जाना चाहिए था। अगले दिन जब गृह मंत्री ने बैसरन का दौरा किया, तो उन्हें सुरक्षा कवच देने के लिए 700 पैराट्रूपर्स और अन्य सुरक्षाकर्मी लगाये गए!”


उमर अब्दुल्ला सरकार से जनता लगातार नाराज होती जा रही है। मार्च में बजट पारित होने के बावजूद विधायकों का स्थानीय क्षेत्र विकास (एलएडी) फंड अभी तक जारी नहीं हुआ है। इससे जनता इसलिए भी बेचैन है, क्योंकि निर्वाचित प्रतिनिधि छोटे-छोटे विकास कार्यों को भी मंजूरी देने की स्थिति में नहीं हैं। अब हालात को और बदतर बनाने के लिए जम्मू के बीजेपी नेताओं को घाटी के हालात का आकलन करने का जिम्मा दे दिया गया है। श्रीनगर में बिजली का सामान बेचने वाले मोहम्मद पेरेज खान ने कहा, “बीजेपी नेताओं से आकलन करने के लिए क्यों कहा जाना चाहिए? इससे हमारा संदेह बहुत ज्यादा बढ़ गया है।” 

चार दिनों तक चले संघर्ष में सबसे ज्यादा मौतें जम्मू-कश्मीर में हुईं। पाकिस्तान की ओर से सीमा पार से की गई भारी गोलाबारी में 13 नागरिक मारे गए और 59 घायल हुए। मृतकों में पांच बच्चे भी हैं। तोप के गोले नागरिक इलाकों में गिरे और कितने ही घर, स्कूल और अन्य इमारतें ध्वस्त हो गईं। 

उमर अब्दुल्ला ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग करके सभी सीमावर्ती जिलों के डिप्टी कमिश्नरों के साथ एक आपातकालीन बैठक की और प्रत्येक सीमावर्ती जिले को 5 करोड़ रुपये और अन्य जिलों को 2 करोड़ रुपये की आकस्मिक निधि तत्काल जारी करने का आदेश दिया। उन्होंने संवेदनशील सीमावर्ती इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए आश्रय और बंकर भी तत्काल उपलब्ध कराने पर जोर दिया।

जम्मू-कश्मीर इस वक्त संघर्ष का सबसे बड़ा क्षेत्र है। फिर यह कैसी विडंबना है कि 8 मई को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय बैठक होती है, और जिसमें थल सेना, नौसेना, वायु सेना और पुलिस के शीर्ष अधिकारी इस बात पर चर्चा करने के लिए जुटते हैं कि राज्य की मशीनरी और रक्षा बलों के बीच समन्वय और तैयारियों को किस तरह बढ़ाया जाए। तारिगामी कहते हैं कि यह काम तो श्रीनगर में होना चाहिए था- “इसीलिए हम राज्य के दर्जे की मांग कर रहे हैं। संसद में सरकार के आश्वासन के बावजूद, ऐसा लगता नहीं है कि केन्द्र हमें निकट भविष्य में राज्य का दर्जा देगा।”

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