यह हताशा नहीं, नई संकल्पबद्धता का समय है

चुनाव में भावनात्मक भाषणों और ‘मोदी-मोदी’ के उद्घोष के साथ उन्मादी भीड़ ने जो दृश्य रचा, उसमें देश और समाज के ज्वलंत मुद्देअदृश्य हो गए। सेना, राष्ट्रवाद और पाकिस्तान के घटाटोप में बेरोजगारी, नोटबंदी और खेती-किसानी की दुर्दशा से जुड़े सवाल महत्वहीन हो गए।

फोटोः सोशल मीडिया
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वीरेंद्र यादव

चुनाव परिणाम ने भारतीय जनतंत्र को अप्रत्याशित रूप से पुनर्परिभाषित कर दिया है। मोदी की प्रचंड बहुमत के साथ वापसी के बहुआयामी निहितार्थ हैं। यह पहली बार है कि प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार की उपलब्धियों, दल के घोषणा पत्र, नीतियों और कार्यक्रमों को छोड़ अपने नाम पर वोट मांगे हैं। जिस कुशलता से गोदी मीडिया के सहयोग से मोदी ने एक बाहुबली, सर्वगुण संपन्न अधिनायक की छवि निर्मित की, उससे वह स्वयं को चुनावी मुद्दा बनाने में सफल हो गए।

‘मोदी है तो मुमकिन है’,‘यह मोदी है’, ‘मोदी घुसकर मारता है’ के आत्मश्लाघापूर्ण भावनात्मक भाषणों और ‘मोदी, मोदी’ के उद्घोष के साथ उन्मादी भीड़ ने जो दृश्य रचा, उसमें देश और समाज के ज्वलंत मुद्देअदृश्य हो गए। सेना, सीमा, राष्ट्रवाद और पाकिस्तान के घटाटोप में बेरोजगारी, नोटबंदी और खेती-किसानी की दुर्दशा से जुड़े सवाल महत्वहीन हो गए। संसदीय जनतंत्र को राष्ट्रपति प्रणाली का रंग देते हुए स्वयं को एकमात्र विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर मोदी ने यह जीत हासिल की है।

इस जीत ने जहां उनकी नेतृत्व शैली, भाषण कला और जन सम्मोहन की उनकी क्षमता पर मुहर लगाई है, वहीं एक दल के रूप में बीजेपी और उसके नियामक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कद भी कुछ कम कर दिया है। अब पूरी तरह से मोदी ही सरकार, संगठन और नीति निर्धारक होंगे। कहना न होगा कि हिंदुत्व की गुजरात की प्रयोगशाला में निखरकर मोदी का जो नायकत्व बना था, वह अब पूर्णता प्राप्त कर चुका है।

मोदी शासन के विगत पांच वर्ष बहुलवादी संरचना, सांस्कृतिक विविधता और धर्मनिरपेक्ष सोच के लिए जिस तरह बड़ी चुनौती और बाधा के रूप में गुजरे, यह चुनाव उससे मुक्ति का मौका था। संविधान, जनतंत्र को बचाने से आगे जाकर चुनौती देश को हिंदू राष्ट्र बनने से बचाने की है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के खोल में संघ परिवार ने संवैधानिक और स्वायत्त संस्थाओं पर जिस आक्रामक तेवर से शिकंजा कसा है, उसकी जकड़ अब बढ़ेगी।

यह अनायास नहीं है कि प्रचार के दौरान मोदी और संघ परिवार के निशाने पर नेहरू की नीतियां और आदर्श रहे हैं। नेहरू की विकृत छवि पेशकर वे स्वाधीनता आंदोलन की विरासत और आधुनिक भारत की उस संकल्पना को नष्ट करना चाहते हैं जो उनकी हिंदू राष्ट्र की अवधारणा के लिए बाधा है। विचारणीय है कि इन्हीं कुछ वर्षों में गोडसे भक्तों के हौसले क्यों इतने बुलंद हुए कि वे उसकी मूर्तियां लगाने लगे और गांधी की हत्या की पुनर्प्रस्तुति करने लगे!

प्रज्ञा ठाकुर, साक्षी महाराज और गिरिराज सिंह सरीखे उग्र हिंदुत्ववादियों को टिकट देना और उनका लंबे अंतर से जीतना उस वैचारिक प्रदूषण का परिचायक है, जो जनमन में पैठ गया है। जिस तरह शीर्ष नेतृत्व द्वारा ‘बदला लेकर रहूंगा’ की शब्दावली से गांधी के अहिंसा दर्शन को झुठलाकर असत्य को महिमामंडित किया गया, उससे गांधी के विरुद्ध हत्यारी मानसिकता को और बल मिला।

स्वाभाविक ही है लोकसभा चुनाव के ये चुनाव परिणाम अल्पसंख्यक समाज को भयभीत कर अपनी खोल में सिमट जाने के लिए विवश करने वाले हैं। यह अनायास नहीं है कि योगी आदित्यनाथ ‘अली-बजरंगबली’, हरे झंडे और मुहर्रम के जुलूस को अपने सांप्रदायिक भाषणों के केंद्र में रखते थे। संघी सत्ता अब जिस नग्न रूप में अपने उग्र हिंदुत्व के एजेंडे को पेश करेगी, वह बुद्धिजीवियों, लेखकों और विचारकों के लिए नए संकट के रूप में उपस्थित होगी।

उग्र हिंदुत्ववादी संगठनों ने जिस तरह विगत वर्षों में वैचारिक अभिव्यक्ति के कारण गोविन्द पानसरे, नरेन्द्र दाभोलकर, एमएम कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या की, वह इस देश में पहली बार है। जेएनयू सहित उच्च शिक्षण संस्थानों के भगवाकरण की मुहिम और तेज होगी। बंगाल में शस्त्र लहराते हुए रामनवमी के जुलूस निकालकर ‘हिंदुत्व’ का जो रिहर्सल किया गया था, इस चुनाव में राम सेना का मुखौटा ओढ़कर वह अमित शाह की रैलियों में जय श्रीराम का उद्घोष कर रहा था। बंगाल के आगामी विधानसभा चुनाव में इसका रक्त रंजित स्वरूप सामने होगा।

हिंदुत्व का प्रतिकार हिंदूवादी मुहावरे से नहीं किया जा सकता। इस चुनाव में विरोधी पक्ष की असफलता का एक बड़ा कारण यह भी रहा कि वह बीजेपी द्वारा खींचे गए पाले में उनके बनाए नियमों के अंतर्गत ही खेलता रहा। उसे अपना एजेंडा लाना था। हमें बुद्ध, कबीर, ज्योतिबा फुले, पेरियार, और आंबेडकर के चिंतन में उपस्थित प्रगतिशील और तार्किक चिंतन को अपनी तर्क पद्धति में शामिल करना होगा।

यह आवश्यक नहीं कि हम स्वयं को असली हिन्दू साबित करने के लिए शशि थरूर की तर्ज पर ‘व्हाई आई एम हिंदू’ ही लिखें। जरूरत यह भी है कि यह भी पढ़ें कि कांचा इल्लय्या ने क्यों लिखाः ‘व्हाई आई एम नाॅट हिंदू’। कहने की जरूरत नहीं कि इन चुनाव परिणामों से अंधेरा और सघन हुआ है। अब तात्कालिक हल नहीं काम करने वाले हैं। राजनीति, अर्थनीति, संस्कृति- हर मोर्चे पर दूरगामी लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए वृहत्तर व्यापक तैयारी और संयुक्त मोर्चे की जरूरत है। यह हताशा का नहीं, नई संकल्पबद्धता का समय है। क्या हम इस योग्य सिद्ध होंगे?

(लेखर वरिष्ठ आलोचक हैं)

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Published: 28 May 2019, 9:45 PM