लंबे संघर्ष के बाद आम लोगों को मिले ‘सूचना के अधिकार’ में इस तरह बदलाव करना सरकार की खुली मनमानी

पारदर्शिता के लोकतांत्रिक अधिकार की पैरवी करने वाले आम नागरिक, जनसंगठनों और ‘आरटीआई’ पर काम करने वाले कतिपय एनजीओ की कौन कहे, मोदी सरकार ने इस आरटीआई संशोधन विधेयक को न तो संसद की स्थायी समिति के पास भेजा और न ही इस पर जनता की राय ली गई।

फोटोः सोशल मीडिया
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रोली शिवहरे

हाल में संसद में पारित ‘सूचना के अधिकार कानून’ में संशोधन के बहाने मोदी सरकार ने जनता की मांग पर बने देश के ऐसे पहले कानून को कमजोर करने की दिशा में कील ठोंक दी है, जो सरकारी कामकाज में पारदर्शीता में मील का पत्थर था। हालांकि, सरकार ने पिछले साल भी मानसून सत्र में यह कोशिश की थी, लेकिन तब उसे अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे। पिछली बार भी सरकार इस संशोधन को पिछले दरवाजे से लाई थी और इस बार भी तरीका वैसा ही है। अंतर सिर्फ यह है कि इस बार अपने प्रत्यक्षऔर परोक्ष हितों के साथ बहुमत से थोड़ी ज्यादा ताकत सरकार को प्राप्त है।

लेकिन पारदर्शिता और सुशासन का राग अलापने वाली इस सरकार का यह एक ऐसा कुटिल प्रयास है जिसमें पारदर्शिता दूर-दूर तक नहीं है। यानी न तो सरकार ने पहले इस विधेयक को संसद की स्थायी समिति के पास भेजा और न ही इस विधेयक पर विपक्ष की राय ली, तो ऐसे में पारदर्शिता के लोकतांत्रिक अधिकार की पैरवी करने वाले आम नागरिक, जनसंगठन और ‘आरटीआई कानून’ पर काम करने वाले कतिपय एनजीओ की कौन कहे। सरकार ने इसे सीधे संसद में प्रस्तुत कर दिया गया।

सवाल है कि ‘आरटीआई’ कानून में संशोधन के जरिए सरकार क्या और कौन से बदलाव करना चाहती है? इस संशोधन से केंद्रीय सूचना आयुक्त (सीआईसी), सूचना आयुक्तों और राज्यों के मुख्य सूचना आयुक्तों, सूचना आयुक्तों के वेतन और कार्यकाल में बदलाव करने की शक्तियां केंद्र सरकार को मिल जाएंगी। फिलहाल, आरटीआई कानून के तहत किसी सूचना आयुक्त का कार्यकाल पांच साल या 65 साल की उम्र में से जो भी पहले पूरा हो, का होता है। अब इस इस संशोधन विधेयक के लागू होने पर सरकार तय कर सकेगी कि सूचना आयुक्त का कार्यकाल कितनी अवधि का होगा।

अभी तक मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त का वेतन मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त के समकक्ष रहता है। वहीं राज्यों के मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त का वेतन चुनाव आयुक्त और राज्य सरकारों के मुख्य सचिव के वेतन के समान होता है। मौजूदा सूचना के अधिकार कानून में संशोधन करके सरकार सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्तों का वेतन, भत्ता और अन्य सुविधाएं निर्धारित करने की व्यवस्था भी अपने हाथ में लेना चाहती है।


सरकार का मत है कि इस संशोधन से आरटीआई अधिनियम को संस्थागत स्वरूप प्रदान करते हुए व्यवस्थित और परिणामोन्मुखी ढांचा संपूर्ण रूप से मजबूत होगा। सरकार का कहना है कि मौजूदा कानून में कई विसंगतियां हैं, जिनमें सुधार की जरूरत है। मुख्य सूचना आयुक्त को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के समकक्ष माना जाता है, लेकिन उनके फैसले पर उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। सरकार ने कहा कि मूल कानून बनाते समय उसके लिए कानून नहीं बनाया गया था, इसलिए सरकार को यह विधेयक लाना पड़ा।

इसके ठीक उलट इस संशोधन विधेयक को लेकर सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं के अपने पुरजोर तर्क हैं। सतर्क नागरिक संगठन, दिल्ली की अंजली भारद्वाज कहती हैं, “जब सरकार यह कह रही है कि यह बहुत ही जरुरी संशोधन है और इससे बहुत पारदर्शिता आएगी तो इसके विपरीत हमारा कहना है कि यह बोगस तर्क है। सरकार इस संशोधन के बहाने सूचनाओं को दबाने के लिए आयुक्तों की सेवा शर्तेंं अपने अनुसार करना चाहती है, ताकि आयुक्तों को सरकार की कठपुतली बनाया जा सके।”

भारद्वाज कहती हैं कि यह आरटीआई कानून की स्वायत्तता पर सीधा प्रहार है। पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त श्रीधर आचार्युलु ने सांसदों को पत्र लिखकर उनसे सूचना के अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2019 को पारित होने से रोकने की अपील की। उनका कहना था कि विधायिका कार्यपालिका की शक्ति को छीनने की कोशिश कर रही है। सभी सांसदों को लिखे एक खुले पत्र में श्री आचार्युलु ने पारदर्शिता की वकालत करते हुए कहा कि इस संशोधन के जरिये मोदी सरकार आरटीआई कानून को कमजोर करने की कोशिश कर रही है।

आरटीआई कानून का मूल मकसद है सरकार की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता सुनिश्चित करना। यह नागरिकों और सरकार के बीच संबंधों का एक महत्वपूर्ण आधार है। हालांकि, बीते कुछ समय से यह संबंध गड़बड़ाया हुआ है और इसे और खराब करने की पुरजोर कोशिश केंद्र सरकार द्वारा सूचना आयुक्तों के रिक्त पदों को भरने में की जा रही कोताही है। इस समय देश के सूचना आयोगों में 50 हजार से ज्यादा आवेदन लंबित हैं, लेकिन सूचना आयुक्तों के पद खाली पड़े हैं।


सूचना आयुक्तों की कमी को सुप्रीम कोर्ट ने ‘बहुत ही गंभीर’ मसला बताते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को इन पदों पर नियुक्ति के लिए कहा था। यह बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करने की बजाय आरटीआई कानून में ऐसा संशोधन विधेयक लेकर आई जो इस कानून की बुनियादी क्षमताओं को ही कमजोर बना देगा।

लोकतंत्र में बहुमत मिलने से मनमानी का अधिकार नहीं मिलता, लेकिन केंद्र सरकार के हालिया काम तो यही बताते हैं कि सरकार बहुमत का उपयोग मनमानी में ही कर रही है। सत्रहवीं लोकसभा में अब तक पेश 11 विधेयकों में से एक को भी संसदीय समितियों के पास नहीं भेजा गया है, जबकि यह एक परिपाटी है जो जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को बहस-मुबाहिसे का मौका उपलब्ध कराती है। आम लोगों के संघर्ष और मांग की दम पर आए सूचना के अधिकार कानून में संशोधन करते समय सरकार ने जनता तक के सुझाव नहीं मांगे।

आरटीआई कानून के अनुसार, हर भारतीय देश में किसी भी प्राधिकरण से दस रुपये के भुगतान के साथ सूचना प्राप्त कर सकता है। अगर नागरिकों को सूचना देने में आनाकानी की जाती है तो वे सूचना आयुक्तों के सामने अपील कर सकते हैं जो अंतिम अपीलीय अधिकारी होते हैं। यही वजह है कि सूचना आयुक्तों की स्वतंत्रता सूचना के अधिकार की धुरी है, लेकिन वर्तमान संशोधन के जरिए इस धुरी को कब्जे में लेने की कोशिश की जा रही है। आरटीआई कानून में भी यह कहा गया है कि सूचना अधिकारी बिना किसी दूसरे प्राधिकरण के प्रभाव में आए अपनी शक्तियों का उपयोग करेंगे, लेकिन उन्हें अपने कार्यकाल के लिए सरकार पर निर्भर करा देना इस कानून की मूल भावना पर ही प्रहार है।

सतर्क नागरिक संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक, हर साल लगभग 60 से 80 लाख लोग सूचना का अधिकार अधिनियम का इस्तेमाल करते हुए जानकारी के लिए आवेदन करते हैं। सरकार लोगों के इस महत्वपूर्ण अधिकार में सेंध लगाना चाहती है इसलिए वह यह संशोधन ला रही है। सरकार को लगता है कि अगर वह इस अधिनियम में संशोधन कर देगी तो भविष्य में उसे और मनमानी का अधिकार मिलेगा और वह खुलेआम भ्रष्टाचार का संरक्षण कर सकेगी।

यह देखना समीचीन होगा किक्यावास्तव में जनता की मांग पर देश में बना पहला कानून वास्तव में पारदर्शिता की अपनी मूल भावना को सलामत रख पाएगा या यह कानून भी सरकार के हाथ की कठपुतली भर बन जाएगा।

(लेखिका नेशनल कैंपेन फॉर पीपुल्स राइट टु इन्फाॅर्मेशन वर्किंग कमेटी की सदस्य हैं)

(यह लेख सप्रेस से साभार लिया गया है )

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