ज़फ़र आग़ा का लेख: कांग्रेस को याद करना होगा जब इंदिरा गांधी को सिर्फ बदला लेने के लिए गिरफ्तार किया गया था...

हवा का रुख मोड़ने के लिए सिर्फ एक दिन के लिए कांग्रेस पार्टी के सभी नेताओं का सड़क पर उतरना काफी नहीं है। उन्हें इंदिरा गांधी से सीखना होगा कि किस तरह वह 1978 में गिरफ्तारी के बाद सड़कों पर उतरी थीं और 1980 में सत्ता में वापसी से पहले चैन से नहीं बैठीं।

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ज़फ़र आग़ा

बात 1978 की गर्मियों की है। मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की अपनी परीक्षा देने के बाद बम्बई (अब मुंबई) गया था। मैं वीटी स्टेशन (अब सीएसटी) के पास फोर्ट रोड पर टहल रहा था, वहीं से जहांगीर आर्ट गैलरी नजदीक ही है। तभी मैंने वहां कुछ हलचल देखी। अचानक से दुकानों के शटर गिरने लगे और सड़क पर खोखा लगाने वाले अपना सामान समेटकर जाने लगे। पता चला कि म्यूनिसपैलिटी अकसर ऐसी अचानक रेड डालती है और गैरकानूनी तरीके से सड़क पर सामान बेचने वालों पर कार्यवाही करती है। लेकिन मैंने नोटिस किया कि पैदल चलने वाले भी जल्दी में नजर आने लगे हैं। वे घबराए हुए लग रहे थे। मैं अभी यह सब सोच ही रहा था कि आखिर क्या हुआ है, तभी करीब 2-3 सौ युवा ‘इंदिरा गांधी जिंदाबाद’ के नारे लगाते हुए वहां पहुंच गए थे।

मैं चौंक गया। इमरजेंसी के बाद तो इंदिरा गांधी को पसंद करने वाले कम ही लोग थे, खासतौर से उत्तरी और पश्चिमी भारत में। 1977 में इंदिरा गांधी की चुनावी हार के बाद इंदिरा गांधी एक तरह से अकेली पड़ गई थीं और शाह कमीशन उन पर लगाए हुए आरोपों को लेकर सुनवाई कर रहा था। इस सबके बावजूद मुंबई में लोग उनकी जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे। मेरी उत्सुकता बढ़ गई कि आखिर ऐसा कैसे हुआ। मैंने कुछ युवाओं से बात कर जानने की कोशिश की कि आखिर माजरा क्या है, तभी किसी ने चिल्लाकर कहा, “तुम्हें पता नहीं, इंदिरा गांधी को गिरफ्तार कर लिया गया है...।” मैं एक लम्हे को सन्न रह गया। मुझे यह बात हजम होने में कुछ वक्त लगा कि एक पूर्व प्रधानमंत्री को गिरफ्तार कर लिया गया है। साथ ही मुझे इस बात से भी हैरानी हुई कि इंदिरा गांधी को लेकर लोगों के बीच एक नर्म भावना है जो बढ़ रही है।

कुछ साल पहले ही, इमरजेंसी से चिढ़े होने के कारण मैंने इंदिरा गांधी का 1977 के लोकसभा चुनावों में जमकर विरोध किया था। उत्तर भारत में मेरी पीढ़ी के लोग कांग्रेस के खिलाफ हो गए थे। लेकिन इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी की खबर ने मुझे बेचैन कर दिया और उस वक्त इंदिरा गांधी को लेकर जो नर्म भावना मेरे मन में आ रही थी, उससे मैं खुद हैरान था।

यह गिरफ्तारी एक निर्णायक मोड़ साबित हुई। लोगों का खुला समर्थन इंदिरा गांधी को मिलने लगा और उनकी गिरफ्तारी का देश भर में विरोध शुरु हो गया। मैं अकेला नहीं था जिन्होंने इंदिरा गांधी के खिलाफ 1977 में वोट दिया था, बल्कि लाखों लोगों उन्हें सत्ता से बाहर करने में भूमिका निभाई थी। लेकिन वे सब भी मेरी ही तरह महसूस कर रहे थे। और इसका कारण साफ था। लोगों को स्पष्ट समझ आ रहा था कि जनता पार्टी सरकार इंदिरा गांधी से बदला ले रही है। और आधारहीन तर्कों और तथ्यों के जरिए उन्हें अपमानित करने की कोशिश कर रही है।

अभी इसी सोमवार (13 जून, 2022) को जब राहुल गांधी प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के दफ्तर के लिए पैदल निकले तो मेरे जहन में 1978 की बम्बई की गर्मियों की याद ताजा हो गई। सोमवार को कांग्रेस के लिए एक बार फिर बिल्कुल ‘इंदिरा गांधी मोमेंट’ था।


तब और अब में समानता साफ नजर आ रही थी। तब इमरजेंसी के बाद कांग्रेस पार्टी लोगों के मन से उतर गई थी। पार्टी के नेता बिखर गए थे। लेकिन जब इंदिरा गांधी को गिरफ्तार कर दिल्ली की तिहाड़ जेल ले जाया गया तो पूरी पार्टी उद्धेलित हो उठी थी और पार्टी समर्थक सड़कों पर उतर आए थे।

सत्ता के नशे में चूर मोदी सरकार भी उसी राह पर है। सीबीआई और ईडी को हथियार बनाकर वह हर उस शख्स को प्रताड़ित कर रही है जो सरकार के कर्मों के खिलाफ बोलता है या खड़ा होता है। पत्रकारों से लेकर विपक्ष के वरिष्ठतम नेताओं तक केंद्रीय एजेंसियों के जरिए अपमानित और परेशान किया जा रहा है। ऐसी कोशिश की जा रही है जिससे यह भ्रम पैदा किया जा सके कि सभी विपक्षी नेता दागदार हैं और उनके समर्थकों को निराश और हताश किया जा सके। साथ ही इससे सरकार की उन करतूतों से भी ध्यान भटकाया जा सके जिसमें वह मनमानी करते हुए देश के नागरिकों के साथ मनमानी कर रही है। इस सबमें कथित मुख्यधारा का मीडिया जिसे गोदी मीडिया कहा जाने लगा है, सरकार की मदद कर रहा है।

लेकिन अब बहुत हो चुका। लोगों ने साफ देख लिया है यह सरकार देश के लोगों, सिविल सोसायटी और असहमति जताने वालों की आवाज दबाने का लगातार दुस्साहस कर रही है। बात सिर्फ कांग्रेस या गांधी-नेहरू परिवार की नहीं है। लेकिन गांधी परिवार दूसरों से जरा अलग है। जवाहर लाल नेहरू से लेकर सोनिया गांधी तक, सभी ने देश के लोगों की जिंदगी बेहतर करने के लिए काम किया है और उसमें अच्छे बदलाव आए हैं। गांधी परिवार के लोगों ने देश के लिए और राष्ट्रहित के लिए अपने प्राण न्योछावर किए हैं। यहां तक कि जो लोग कांग्रेस को वोट नहीं देते वे भी जान-समझ रहे हैं कि कांग्रेस और इसके नेताओं ने देश के लिए कितना कुछ किया है। और इन सभी को एक साथ तो मूर्ख नहीं बनाया जा सकता।

लेकिन हवा का रुख मोड़ने के लिए सिर्फ एक दिन के लिए कांग्रेस पार्टी के सभी वरिष्ठ नेताओं का सड़क पर उतरना काफी नहीं है। उन्हें इंदिरा गांधी से सीखना होगा कि किस तरह वह 1978 में गिरफ्तारी के बाद सड़कों पर उतरी थीं और 1980 में सत्ता में वापसी से पहले चैन से नहीं बैठीं।

इंदिरा गांधी ने बमुश्किल देश की राजधानी में वक्त गुजारा होगा। वे संसद तक नहीं जाती थीं। चिकमंगलूर उपचुनाव में जीतने के बाद इंदिरा गांधी ने सिर्फ एक दिन के लिए संसद में हाजिरी दी और निकल पड़ी थीं। वे जानती थीं कि विपक्ष की राजनीति की सफलता संसद के बाहर सड़क पर लोगों के बीच में है। जितने दिन भी इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर रहीं वे सड़क पर रहीं। यही कारण था कि बहुत छोटे अर्से में ही लोग इमरजेंसी को भूल गए और उन्हें 1980 में फिर से सत्ता पर बिठा दिया।


राहुल गांधी और प्रियंका गांधी दोनों को इंदिरा गांधी से सीखना होगा कि किस तरह विपक्ष की राजनीति की जाती है। हालांकि यह मुश्किल काम है और खासतौर से मोदी राज में तो और मुश्किल क्योंकि शांतिपूर्ण धरने और प्रदर्शन तक की इजाजत नहीं मिलती है। हद यह है कि मोदी के फैन भी जानते हैं कि वे किस हद तक बदला लेने वाले शख्स हैं और कोई नहीं जानता कि जब मोदी की लोकप्रियता ढलने लगेगी तो वे क्या कुछ कर बैठेंगे।

लेकिन यह भी समझना होगा कि सत्ता के लिए कोई शॉर्टकट नहीं होता और कांग्रेस नेताओँ को अभी लंबा संघर्ष करना होगा, धूप और गर्मी में सड़कों पर पुलिस की लाठी सहनी होगी, बुलडोजर का सितम झेलना होगा। ध्यान रहे कि जो आम लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं उन्हें इन सबका डर नहीं होता।

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