आकार पटेल का लेख: समय आ गया है जब राजनीतिक दलों को गुपचुप असीमित चंदा देने वाले इलेक्टोरल बॉन्ड पर लगे रोक

बहुत से पाठकों को बॉन्ड की पृष्ठभूमि नहीं पता होगी कि आखिर यह हैं क्या? इस लेख में हम इस योजना को बताने की कोशिश करेंगे। सारांश में समझें तो इस योजना के जरिए किसी भी पंजीकृत राजनीतिक दल को असीमित बेनामी चंदा मिल सकता है।

सांकेतिक फोटो
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आकार पटेल

इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर सुप्रीम कोर्ट अपनी सुनवाई पूरी कर चुका है और उम्मीद करें कि इस बारे में जल्द ही फैसला सुनाया जाएगा। उम्मीद करने की बात इसलिए क्योंकि इस योजना को सामने आए हुए छह साल हो गए हैं। 2017 के बजट में इस योजना के बारे में पहली बार बताया गया था।

बहुत से पाठकों को बॉन्ड की पृष्ठभूमि नहीं पता होगी कि आखिर यह हैं क्या? इस लेख में हम इस योजना को बताने की कोशिश करेंगे। सारांश में समझें तो इस योजना के जरिए किसी भी पंजीकृत राजनीतिक दल को असीमित बेनामी चंदा मिल सकता है। योजना के तहत कोई भी, जिनमें विदेशी सरकार, अपराधी गैंद और कार्पोरेट हो सकते हैं, जो राजनीतिक दलों को प्रभावित कर सकते हैं, राजनीतिक दलों को पैसा दे सकत हैं और राजनीतिक दल इस पैसे को उनका नाम बताए बिना स्वीकार कर सकती है।

इस तरह बेनामी तरीके से राजनीतिक दल को पैसा देने की प्रक्रिया को आसान बना दिया गया। ये बॉन्ड एक करोड़ रुपए मूल्य तक के होते हैं और स्टेट बैंक की विभिन्न शहरों में स्थित 29 शाखाएं उन्हें बेचती हैं। कोई भी व्यक्ति या दानकर्ता इन्हें बैंक से खरीदकर अपनी पसंद के राजनीतिक दल या व्यक्ति को दे सकता है, जो इसे बैंक से कैश करा सकता है। इनकी वैधता 15 दिन होती है।

जिस तरह से इस योजना को लागू किया गया उससे हमें चौंकना चाहिए था क्योंकि कुछ तो है इसमें जो ठीक नहीं है। 2017 में बजट से चार दिन पहले, एक अफसर ने उस समय के वित्त मंत्री अरुण जेटली के बजट भाषण में देखा, और पाया कि इतने बड़े पैमाने पर राजनीतिक दलों को चुनावी चंदा देने की प्रक्रिया में बदलाव के लिए आरबीआई की मंजूरी जरूरी है। ऐसा इसलिए क्योंकि चुनावी बॉन्ड को लागू करने के लिए आरबीआई एक्ट में बदलाव करना जरूरी था, और जाहिर है सरकार को इसकी हवा नहीं थी।

इस अफसर ने संबंधित एक्ट में संशोधन का एक मसौदा तैयार किया और फाइल को अपने से ऊपर वाले अफसर के पास भेज दिया ताकि वित्त मंत्री उसे देख सकें। उसी दिन, 28 जनवरी 2017 को शनिवार के दिन आरबीआई को पांच पंक्तियों का एक ईमेल भेजकर इस पर टिप्पणी दरयाफ्त की। इसका जवाब सोमवार 30 जनवरी को आया। आरबीआई ने कहा यह एक बुरा विचार है क्योंकि यह आरबीआई के उन अधिकारों के खिलाफ है जिनमें बॉन्ड (यानी कैश) जारी करने का एकमात्र अधिकार उसके पास है। चूंकि ये बॉन्ड बेनामी होंगे, तो ये एक तरह की करेंसी होंगे जिससे देश की करेंसी में लोगों का भरोसा कम होगा।


इस बिंदु पर, आरबीआई ने स्पष्टकहा: ‘इसे लागू करने के लिए कानून में संशोधन करना 'केंद्रीय बैंकिंग कानून के मूल सिद्धांत को गंभीर रूप से कमजोर कर देगा और ऐसा करने से एक बुरी मिसाल कायम होगी।'

आरबीआई ने एक और आपत्ति उठाई। वह दूसरी आपत्ति थी कि ‘यहां तक कि पारदर्शिता का इच्छित उद्देश्य भी हासिल नहीं किया जा सकता है क्योंकि बॉन्ड के मूल खरीदार को पार्टी का वास्तविक योगदानकर्ता होना जरूरी नहीं है।’ आरबीआई ने आगे कहा कि यदि व्यक्ति ए ने बॉन्ड खरीदा और फिर उसे अंकित मूल्य या उससे अधिक पर किसी विदेशी सरकार सहित किसी इकाई को बेच दिया, तो वह इकाई इसे किसी पार्टी को उपहार में दे सकती है। बेनामी बॉन्ड नकद जैसा ही है। 'चुनावी बॉन्ड, दरअसल बियरर बॉन्ड हैं और डिलीवरी द्वारा हस्तांतरित किए जा सकते हैं, इसलिए, वास्तव में राजनीतिक दल को बॉन्ड के जरिए कौन सा दे रहा है, यह पता नहीं चलेगा।'

जो आखिरी बिंदू आरबीआई ने रखा, वह था कि चुनावी बॉन्ड योजना में जो कुछ प्रस्तावित है, उसे बैंक खाते से राजनीतिक दलों को चेक, ड्राफ्ट या बैंक ट्रांसफर के जरिए दिया जा सकता है।

ऐसे में इलेक्टोरल बॉन्ड बनाने की न तो कोई को खास जरूरत है और न ही कोई फायादा, खासतौर से स्थापित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्थाओं के इतर जाकर ऐसा करना। जिस व्यक्ति को इस योजना को नौकरशाही से पास कराने का श्रेय दिया जाता है, वह हैं हसमुख अधिया। हसमुख अधिया गुजरात के एक आईएएस अफसर हैं और उन्होंने योग में पीएचडी कर रखी है। (इससे पहले वह जीएसटी बिल में भूमिका निभा चुके थे और रिटायरमेंट केबाद उन्हें बैंक ऑफ बड़ौदा का चेयरमैन और फिर गुजरात सेंट्रल यूनिवर्सिटी की चांसलर बनाया गया था।) उन्होंने आरबीआई की आपत्तियों को दो आधार पर खारिज कर दिया।

पहले आधार में उन्होंने कहा, ‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आरबीआई ने दानदाता की पहचान गुप्त रखने के उद्देश्य से प्री-पेड प्रीपेड इंस्ट्रूमेंट (पहले से पैसे देकर खरीदे गए बैंक ड्राफ्ट आदि) रखने की प्रस्तावित व्यवस्था को नहीं समझा है, जबकि यह सुनिश्चित किया गया है कि चंदा केवल किसी व्यक्ति के पूर्ण टैक्स भुगतान किए गए पैसे से किया जाए।' इसका मतलब यह था कि क्योंकि मूल खरीदार को अपने आधिकारिक खाते के माध्यम से बॉन्ड प्राप्त करना था, इससे चंदा वैध हो गया। यह आरबीआई की विशिष्ट आपत्तियों का जवाब नहीं था। अधिया ने कहा कि इस बॉन्ड को कैश कराने की 15 दिन की वैधता आरबीआई के उस संशय को भी खत्म कर देगी, लेकिन यह नहीं बताया कि आखिर कैसे।


दूसरी बात जो अधिया ने कही वह थी, ‘साथ ही यह सलाह काफी देर से आई है क्योंकि फाइनांस बिल (वित्त विधेयक) पहले ही छापा जा चुका है।’ वैसे आरबीआई को भेजे गए मेल का जवाब चंद घंटों में ही आ गया था। और, यह आरबीआई की गलती तो नहीं थी कि इस बाबल सलाह पहले नहीं ली गई। यह स्पष्ट रूप से धोखा था, लेकिन अधिया ने इसका अर्थ निकाला कि 'इसलिए, हम अपने प्रस्ताव पर आगे बढ़ सकते हैं।' उनके सहयोगी और उस समय आर्थिक मामलों के सचिव तपन रे ने उसी दिन अधिया से सहमति जताई और बुधवार, 1 फरवरी को जेटली ने इस योजना की घोषणा कर दी, जो बजट पारित होने के साथ कानून बन गई।

हफिंगटन पोस्ट (जिसने आरटीआई कार्यकर्ता कमोडोर लोकेश बत्रा द्वारा प्राप्त दस्तावेजों के आधार पर चुनावी बॉन्ड पर की छह-भाग का इन्वेस्टिगेशन रिपोर्ट प्रकाशित की थी) के पत्रकार नितिन सेठी द्वारा पूछे जाने पर कि सरकार ने आरबीआई की आपत्तियों को नजरअंदाज क्यों किया, वित्त मंत्रालय का जवाब था कि ‘उसने यह 'अच्छे भरोसे और व्यापक जनहित में यह निर्णय लिया है।'

जिस समय इस संबंध में कानून पास किय गया उस समय तक इसके बारे में अधिक जानकारी सार्वजनिक नहीं की गई थी। इनकी जानकारी जून 2017 में सामने आई जब तपन रे ने खुलासा किया कि कैसे बॉन्ड काम करेगा, “बॉन्ड के खरीदार और इसे प्राप्त करने वाले की गोपनीयता इसे जारी करने वाले बैंक को गुप्त रखना होगी। ये जानकारियां आरटीआई की सीमा से बाहर रहेंगी।” (रे को 2018 में उनके रिटायरमेंट के बाद सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया का चेयरमैन बना दिया गया था और फिर 2019 में उन्हें गुजरात इंटरनेशनल फाइनांस टेक सिटी का सीईओ और मैनेजिंग डायरेक्टर बनाया गया।)

चुनावी बॉन्ड योजना को खतरनाक बताने वाली दूसरी स्वायत्त संस्था थी, भारत का चुनाव आयोग। सुप्रीम कोर्ट को दिए हलफनामे में चुनाव आयोग ने कहा है कि चुनावी बॉन्ड के जरिए राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की रिपोर्टिंग को छिपाने से 'राजनीतिक दलों की राजनीतिक फंडिंग के पारदर्शिता पहलू पर गंभीर असर पड़ेगा।'

इस सबके बावजूद बीते छह साल से भारत की राजनीति को बेनामी तरीके से गुपचुप पैसे मिल रहे हैं। समय है कि इस पर रोक लगाई जाए।

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