जम्मू-कश्मीर का विकास का दावा, लेकिन सत्ताधीश यह तो सोचें कि इकोलॉजी ही खत्म कर देंगे तो धरती के स्वर्ग में बचेगा क्या

जम्मू-कश्मीर सरकार ने 24 जुलाई को पूरे जम्मू-कश्मीर में 37 चिह्नित स्थानों पर औद्योगिक परिसरों की स्थापना के लिए उद्योग और व्यापार विभाग को 9,654 कनाल जमीन स्थानांतरित करने की स्वीकृति दी है। इससे वन और कृषि भूमि के सिकुड़ने की चिंताएं पैदा हुई हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
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सरकार किस तरह आगे-पीछे कर रही है, इसके दो उदाहरण। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जम्मू-कश्मीर में 4-जी इंटरनेट सुविधाओं की बहाली से मनाकर दिया। इसके दो दिनों बाद ही इस केंद्रशासित क्षेत्र के उपराज्यपाल जी.के. मुर्मूने कहा कि हाई-स्पीड इंटरनेट मुद्दा नहीं होना चाहिए। इससे यह आशा पैदा हुई कि सरकार के मूड में कोई बदलाव हो रहा है। इससे पहले की बात है। 14 जुलाई को सरकार ने अमरनाथ यात्रा जारी रखने का फैसला किया। यह यात्रा 21 जुलाई से शुरू होनी थी। इससे एक दिन पहले इस यात्रा को रद्द कर दिया गया। यह यात्रा अगर निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार चलती, तो यह कश्मीर का विशेष दर्जा हटाने के बाद शुरू हुए और बाद में कोविड-19 के प्रकोप के कारण जारी रहे लॉकडाउन के बाद पर्यटन क्षेत्र को सांस लेने-देने का अवसर होता।

जम्मू-कश्मीर माइंड गेम खेलने की नवीनतम जगह बन गई है। इस तरह की आंखमिचौनी-जैसी स्थिति भ्रम और अनिश्चितता को बढ़ाती ही है। यह तब से ही चल रही है जब 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद-370 हटा दिया गया, धारा 35-ए हटा दी गई और देश के एक मात्र मुस्लिम बहुल राज्य को दो केंद्र शासित क्षेत्रों में पुनर्गठित कर जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक और सामाजिक इतिहास में नए अध्याय की शुरुआत की गई। यह सब कुछ डरावने किस्म के अपशकुनों के बीच हुआ- अफवाहें फैली हुई थीं, अमरनाथ यात्रा अचानक रोक दी गई थी और यात्रियों को यहां से तुरंत रवाना होने को कह दिया गया था, सेना की अतिरिक्त टुकड़ियां जमा हो रही थीं, वे सरकारी आदेश जान-बूझकर लीक किए जा रहे थे जिनमें तीन माह के लिए सामान जमाकर लेने के लिए कहा गया था और कई जगह रात में सेना छापा मार रही थी। वह अनिश्चितता और अस्थिरता भरा माहौल एक साल से स्थायी बन गयाहै।


बीजेपी अनुच्छेद-370 हटाने की पहली वर्षगांठ पर 10 दिनों के धूमधाम भरे उत्सव की तैयारी कर रही है। लेकिन जम्मू के हिंदू बहुल क्षेत्र और लद्दाख के बौद्ध बहुल लेह जिले समेत इलाके के सभी हिस्सों में निराशा पसरी हुई है। अभूतपूर्व और सख्त लॉकडाउन की वजह से झटके और भय को कश्मीर ने किसी तरह सह लिया है। यहां काफी सारी गिरफ्तारियां हुईं और संचार व्यवस्थाओं को बंद रखा गया। इसके उलट लेह और जम्मू में पिछले साल उत्साह का माहौल था। लद्दाख के बौद्ध इलाके को केंद्र शासित क्षेत्र बनाने की काफी समय से मांग कर रहे थे। लेकिन जम्मू के लोगों में जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त किए जाने से जीत का भाव समाप्त हो गया है।

अनुच्छेद-370 रद किए जाने का महत्व तब ही समझ में आना शुरू हो गया जब कार्रवाइयां और कानून नई व्यवस्था के नियमों के अनुरूप अमल में लाए जाने लगे। बदले हुए कानून की वजह से सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिणाम कदम-दर- कदम दिखने लगे। पूर्ववर्ती राज्य के लोग न सिर्फउच्चतर शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश बल्कि जमीन और व्यापार में अपनी विशेष सुविधाओं को खोने लगे। डोमिसाइल कानून अब सिर्फ नौकरियों में ही उपयोगी है और इसकी प्रकृति में भी छूट दे दी गई है। यह लोगों की कई श्रेणियों को शामिल करने वाली हो गई है और एकबारगी ही इसका लाभ लाखों गैरस्थायी निवासियों को दे दिए जाने की संभावना है।

बेरोजगारी की दर ने युवाओं को वैसे ही परेशान कर रखा है। इसके अतिरिक्त, सरकार जम्मू-कश्मीर लघुस्तरीय उद्योग विकास निगम (एसआईसीओपी), जम्मू-कश्मीर राज्य औद्योगिक विकास निगम (सिडको) और जम्मू-कश्मीर मिनरल्स लिमिटेड-जैसे सार्वजनिक क्षेत्र के कई उपक्रमों (पीएसयू) को बंद करने पर विचार कर रही है। इससे युवाओं के बीच चिंता खतरनाक स्तर तक पहुंच रही है। स्थानीय युवाओं को भय है कि वे नए निवासियों के हाथों न सिर्फ सरकारी नौकरियों का बड़ा हिस्सा खो देंगे बल्कि पीएसयू तो बंद ही हो जाएंगे जबकि निजी क्षेत्र के जॉब मार्केट में भी वे किनारे कर दिए जाएंगे। कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में प्रवेश और जमीन के स्वामित्व के मामले में अब यह सीमित सुरक्षा भी मौजूद नहीं है। इससे हालत यह हो गई है कि जम्मू-कश्मीर पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश या पूर्वोत्तर के हिंसाग्रस्त राज्यों की तुलना में ज्यादा खुला हुआ है।


सरकार के कदम से व्यापार में निवेश की संभावनाएं बढ़ने की बात कही जार ही है। इस इलाके में अनिश्चित कानून-व्यवस्था की स्थिति के मद्देनजर प्राकृतिक संसाधनों के खनन के क्षेत्रों में अधिक निवेश की संभावना है। इनका इकोलॉजी और स्थानीय लोगों की आर्थिक संभावनाओं, दोनों पर हानिकारक असर होगा। पिछले कुछ महीनों से केंद्र सरकार लगातार घोषणा कर रही है कि वह कश्मीर में व्यापार और उद्योगों की स्थापना के लिए बाहर से निवेशकों को आमंत्रित करने के लिए लैंड बैंक बना रही है। नई दिल्ली द्वारा नियुक्त उपराज्यपाल के अंदर काम कर रही जम्मू-कश्मीर सरकार ने इसके तहत औद्योगिक इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए कश्मीर इलाके में सरकार के स्वामित्व वाली 2,03,202 एकड़ भूमि में से अब तक 15,000 एकड़ भूमि चिह्नित की है। इनमें से अधिकतर जमीन इकोलॉजी की दृष्टि से संवेदनशील है क्योंकि अधिकारियों के अनुसार, यह या तो नदियों, झरनों और अन्य जल इकाइयों के हिस्से हैं या उनके समीप हैं। जम्मू में 42,000 एकड़ सरकारी भूमिकी पहचान की गई है।

जम्मू-कश्मीर सरकार ने 24 जुलाई को पूरे जम्मू-कश्मीर में 37 चिह्नित स्थानों पर औद्योगिक परिसरों की स्थापना के लिए उद्योग और व्यापार विभाग को 9,654 कनाल जमीन स्थानांतरित करने की स्वीकृति दी है। इससे वन और कृषि भूमि के सिकुड़ने की चिंताएं पैदा हुई हैं। पिछले एक साल के दौरान स्थानीय व्यवसायियों को 50,000 करोड़ का नुकसान पहले ही हो चुका है। सरकार के ताजा कदमों से उनमें यह भय बढ़ गया है कि लॉकडाउन के बीच निवेश आमंत्रित कर तेजी से विकास के कथित कदमों से ‘बाहरी’ लोग उनका रहा-सहा आधार भी नष्ट कर देंगे। रेत खनन और पत्थर निकालने-तोड़ने की योजनाओं के काम जिस तरह देश के दूसरे हिस्सों के व्यापारियों को दिए गए हैं, उनसे इनकी चिंता बढ़ी ही है। राज्य से बाहर के व्यवसायियों के पास ज्यादा पूंजी तो ही है, इसलिए वे बेहतर बोली लगा रहे हैं। इसके अतिरिक्त, इस लॉकडाउन के दौरान उनके पास इंटरनेट एक्सेस बेहतर है और इसका भी लाभ उन्हें मिल रहा है।

जमीन, पढ़ाई-लिखाई, रोजगार, व्यापार के साथ-साथ आम आदमी की राजनीतिक शक्ति भी कितनी बची रहेगी, कहना मुश्किल ही है। केंद्र शासित जम्मू-कश्मीर विधानसभा कब गठित होगी, यह सवाल तो है ही, इसका दर्जा म्युनिसिपल मामलों तक सीमित हो जाने की ही संभावना है। केंद्र सरकार ने चुनाव क्षेत्रों की पुनःपरिभाषित करने के लिए परिसीमन की प्रक्रिया आरंभ की है। इससे कश्मीर के राजनीतिक दखल खोने का भय फैल रहा है। बीजेपी में मुसलमानों के साथ घृणा तक रखने का भाव जगजाहिर है। ऐसे में, इस तरह से जनसांख्यिकी बदले जाने की आशंका बेवजह नहीं है। ध्रुवीकरण का इतिहास तो रहा है और मुस्लिम-बहुल जनसांख्यिकी अगर बदली जाती है, तो इसका राजनीतिक महत्व एकजुटता के किसी भी प्रयास को धक्का ही पहुंचाएगा। ऐसी हालत में, पीड़ा, भेदभाव और अराजकता बढ़ने का खतरा बना ही रहेगा।

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