जन्माष्टमी विशेष: राधामय वृंदावन की बुनियाद में दिखती है प्रेम की झलक
असल में प्रेम सवाल पूछना सिखाता है, हामी भरने से परे जाकर जवाब खोजने में जुटता है। प्रेम में डूबा समाज परतंत्र नहीं होता। डरे हुए समाज में प्रेम नहीं हो सकता। इसलिए हर तानाशाह प्रेम पर प्रहरी बैठाता है। जहां प्रेम पनप गया, वहां कोई किसी के वश में नहीं होगा।

“अवघा रंग एक झाला”
“हर रंग में तू है समाया,
मैं बिन रंग की तुझ में रंग गई।”
यह प्रसिद्ध अबंग तेरहवीं सदी की संत सोयराबाई का है, जो पंढ़रपुर के विठोबा को समर्पित है। चोखा मेला और उनकी पत्नी सोयराबाई दलित समुदाय से थे। वे अवर्ण माने जाते थे। सो जब वे रंग मे रंगने की बात कहते हैं, तब उसके सामाजिक मायने हैं। विठोबा किसी वर्ण को नहीं देखता। उसके हृदय में हर कोई समा सकता है। यह उसका भाव है।
पूरे देश में अनेक स्थान पर कृष्ण जन्माष्टमी मनाई जा रही है। तब इस निर्मल अभिव्यक्ति में विद्रोह, बदलाव की कई परतें दिखाई पड़ती हैं। कुछ समय पहले वृंदावन यात्रा के दौरान प्रेम सरोवर जाना हुआ। निर्मल पानी की लहरें देखकर कुछ भाव महसूस हुए। क्या प्रेम ऐसा ही निर्मल, निर्बाध, आजाद भाव नहीं? जब देश में लव जिहाद पर कानून बनाए जाते हैं, तब प्रेम ही कहां सहज रह जाता है! मगर उस स्थान की बुनियाद में प्रेम की झलक दिखाई पड़ी। राधा और कृष्ण का प्रेम जो किसी बंधन या औपचारिक संबंध का मोहताज नहीं।
प्रेम मात्र स्त्रीवादी गुण है। यह कहना तो गलत होगा, क्योंकि कोई भी भाव किसी लिंग से बंधा नहीं है। मगर प्रेम की धारा स्त्री अस्मिता से गहरे तक जुड़ी है। वृंदावन में प्रतिमा तो बांके बिहारी की है। राधा का कोई अलग स्थान नहीं। वातावरण में राधा हैं। यह कह सकते हैं कि वृंदावन राधामय है। “राधे-राधे” में कृष्ण गुम नहीं हो जाते, बल्कि प्रेम में साथ चलने, स्वायत्त स्थान को बनाए रखने का भान मिलता है। जहां एक दूसरे के व्यक्तित्व को लील लेने या उसमें समा जाने से इतर साथ रहने का चलन है। दोनों को एक दूजे से छांव मिलती है। पर कोई किसी का साया नहीं हो जाता। आदिवासी समकालीन कवयित्री जसिंता की कविता है- “प्रेम में दो हो जाना।” बिना एक दूसरे पर पाबंदी लगाए, साथ देना। आदिवासियत प्रेम में पेड़ हो जाने को मानती है। पेड़ जो निर्मल छांव देता है, राधा कृष्ण भी क्या प्रेम में पेड़ हो गए थे? आखिर तक बंधन से आजाद रहे और जड़ों को सूखने नहीं दिया।
कृष्ण की भक्ति में शुरुआती स्त्री उन्मुक्ति के नाद सुनाई पड़ती है। कृष्ण परंपरा में पितृसत्तात्मक रेखाएं और अग्नि स्नान नहीं है। दैहिक मनोभाव की अभिव्यक्ति जो स्त्री के लिए सर्वथा निषेध है। भक्ति के पद में उसकी झलक सुनाई पड़ती है। एक ऐसे दौर में जब स्त्री के शरीर को मोक्ष, निर्वाण, मुक्ति लायक नहीं माना जाता था। जब उसे माया स्वरूप जानकर तिरस्कृत किया जाता, तब पहले-पहल बुद्ध और बौद्ध संघ ने स्त्री थेरियों को मान्यता दी। थेरी गाथा में शुरुआती प्रतिश्रृति सुनाई देती है। किस्सगौतमी, रोहिणी, अम्बपाली आदि अनेक थेरियों ने ढाई हजा़र साल पहले के अपने गान में घरेलू हिंसा, अत्याचार और फिर मुक्ति की राह का वर्णन किया। भले ही भिक्खुणियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार संघ के नियमों के तहत होता था, पर कम-से-कम संघ स्थापित करने की इजाजत मिल गई थी।
दक्षिण की भक्ति परंपरा में नवीं सदी में स्त्री आलवार और नायनार माने वैष्णव, शैव भक्ति संत अपवाद स्वरूप है। आंडाल उनमें से एक हैं। बहुत दिनों तक उन्हें आलवार माने जाने पर निषेध रहा। पर आंडाल ने स्वतंत्र अभिव्यक्ति के दायरों को फैलाया। भक्ति में मात्र दासी भाव तक खुद को सीमित न रख कर रंगनाथ स्वामी की संगिनी होने की आकांक्षा को व्यक्त किया। तमाम दैहिक भावों को नजरअंदाज करने, नकारने या छुपाने को ही संस्कृति माने जाने की पंरपरा रही है। अपने पसंद का साथी चुनने या उसके सामने प्रेम प्रस्ताव रखने को बेहद विकृत, अशोभनीय, “पशु नारी” का व्यवहार कहा गया है। तब आंडाल के पद चौंकाने वाले हैं। उन्हें आज के स्त्रीवादी ढांचे से तो नहीं देखना चाहिए। मगर उस काल के लिए तो यह काफी चुनौतिपूर्ण रहा होगा। उनकी कविता में शारीरिक तड़प नैसर्गिकता के साथ प्रकट होती है।
“जैसे ही तुम्हारी छाया से रात और स्याह पड़ती जाती है
मैं तुम्हारे प्रेम में तड़पती हूं, रात भर जागती हूं।
तुम से होकर गुजरती दक्षिणी बयार मुझे आलोड़ित करती है।
चला आ! वरन् मैं प्राण तोड़ बैठूंगी।”
कहते हैं नन्ही आंडाल उद्यान में मिली थीं। उन्हें रंगनाथ मंदिर के निःसंतान पुजारी ने गोद ले लिया। उनके माता-पिता, जाति आदि की कोई जानकारी नहीं है। थिरुपवई, नाचियार थिरुमोई उनकी रचना है। उनकी रचनाओं में एक तरफ दैहिक इच्छा और दिव्य से मिलन की तीव्र आकांक्षा है। दूसरी ओर देह से परे जाने की यात्रा है। आज उनकी कविताओं को काफी संशोधित कर पढ़ा-पढ़ाया जाता है। पुरुष आलवार की रचनाओं के साथ यह सांस्कृतिक स्वच्छता अभियान नहीं चलाया जाता। मगर स्त्री कैसे अपनी दैहिक कामना को अभिव्यक्त कर सकती है? उसे तो कामना शून्य होना चाहिए। उसकी कामना पुरुष के अधीन होनी चाहिए। आखिर वह उसी का तो क्षेत्र है।
इसी तरह मध्य कालीन महाराष्ट्र में पतित कही जाती गणिका कान्होपात्रा के अबंग भी ऐसे ही प्रतिरोध से भरे हैं। वह विठोबा से कहती है- ’’कान्होपात्रा ने तो खुद को तुम्हारे आगे समर्पित किया। अपने देह पर मेरा क्या वश? यदि मुझे किसी पुरुष ने छुआ, तो क्या उसके लिए तुम दोषी नहीं?’’ स्त्री शरीर को क्षेत्र के रूप मे देखने, उस पर पुरुष के कब्जे को सही सामाजिक व्यवस्था मानने का दौर अब भी खत्म नहीं हुआ है।
शरीर पर स्पर्श के लिए परीक्षा की बात थी। तब शरीर के आचरण से अपराधमुक्त होकर उन्मुक्ति की तलाश करना निश्चित ही विप्लवकारी रहा होगा। भक्ति में मीरा ने सामाजिक कुरीतियों से स्पष्ट इंकार किया। सोलहवीं सदी की मीरा ने पति की मृत्यु के बाद सती होने से मना कर दिया।
“सती न होस्यां गिरधर घनश्याम
म्हारा मन मोहो घनसामी।”
अन्य राजपूत रानियों की तरह सख्त पर्दा या एकल निवास नहीं रखा। उन सबके साथ सह गायन किया जो अछूत माने जाते थे। प्रेम प्रतिरोध और अपने लिए खड़ा होना सिखाता है। प्रेम गुलामी को पहचानना सिखाता है। व्यवस्था की बेड़ियों को तोड़कर खड़ा होना विद्रोही का व्यवहार है। पर बिना प्रेमी हुए, कोई विद्रोही नहीं हो सकता।
प्रेम अंधा और अंधानुकरण नहीं है। असल में प्रेम सवाल पूछना सिखाता है, हामी भरने से परे जाकर जवाब खोजने में जुटता है। प्रेम में डूबा समाज परतंत्र नहीं होता। डरे हुए समाज में प्रेम नहीं हो सकता। इसलिए हर तानाशाह प्रेम पर प्रहरी बैठाता है। जहां प्रेम पनप गया, वहां कोई किसी के वश में नहीं होगा।
हमारी तहजीब को प्रेम ही केवल जिंदा रख सकता है। वृंदावन से उस दिन लौटते वक्त टटिया स्थान पर समाज गायन सुना। हरिदास जी के पद थे, पखावज और वीणा से सजे स्वर थे। इस स्थान पर बिजली का उपयोग नहीं किया जाता। गायन को भजन या पूजन नहीं कहा जाता। वह गायन सेवा कहलाता है, प्रस्तुति या प्रदर्शन नहीं।
“निरखी निरखी प्यारी राधे
को अनत ना काहू तारे।”
गायन ने आलौकिकता से भर दिया। लौटते वक्त शिरीष के फूल खिले थे, स्वतंत्र और प्रेम की पंखुड़ियां लिए।
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