सांसों पर संकट: शहरी नियोजन की खामियों को दुरुस्त करने के बजाए तकनीकी तरीके अपनाने से कम नहीं होगा वायु प्रदूषण

क्या वायु प्रदूषण के लिहाज से हमारे शहर-कस्बे उस मुकाम तक पहुंच चुके हैं जहां से वापस आने की कोई राह नहीं? जब आपकी हर सांस के साथ जहर अंदर जा रहा हो, तो सवाल शहरी नियोजन से जुड़े एजेंसियों से किया जाना चाहिए।

सर्दियों की आहट शुरु होते ही ऐसे ही धुंध में लिपट जाती है दिल्ली और उसके आसपास के इलाके, जिसमें सांस लेना हो जाता है मुश्किल (फोटो : Getty Images)
सर्दियों की आहट शुरु होते ही ऐसे ही धुंध में लिपट जाती है दिल्ली और उसके आसपास के इलाके, जिसमें सांस लेना हो जाता है मुश्किल (फोटो : Getty Images)
user

भारत डोगरा

वायु प्रदूषण महज चिंता का नहीं, हमारे अस्तित्व से जुड़ा विषय बन गया है। यह ऐसा संकट है जिसे हम अपनी हर सांस के साथ अपने फेफड़ों में महसूस करते हैं। दुनिया भर में सालाना करीब 70 लाख लोग वायु प्रदूषण के कारण हुए फेफड़ों के कैंसर, हृदय रोग और स्ट्रोक से असमय जान गंवा बैठते हैं। चूंकि कार्बन डाइऑक्साइड जैसे वायु प्रदूषक ग्रीनहाउस गैसें भी हैं, इसलिए उन्हें कम करना और भी जरूरी हो जाता है।  

भारतीय शहर वायु प्रदूषण संकट के केंद्र में हैं। विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट, 2022 से पता चलता है कि 2021 में भारत का एक भी शहर 2.5 प्रति घन मीटर हवा में 5 माइक्रोग्राम पीएम (पार्टिकुलेट मैटर) के संशोधित डब्ल्यूएचओ सुरक्षा मानकों पर खरा नहीं उतरता था। इतना ही नहीं, हमारे लगभग आधे शहरों में पार्टिकुलेट मैटर इस सीमा से तकरीबन 10 गुना पाए गए।  

शिकागो विश्वविद्यालय में ऊर्जा नीति संस्थान (ईपीआईसी) के एक अध्ययन से पता चला है कि दिल्ली जैसे अत्यधिक प्रदूषित शहर में जीवन प्रत्याशा नौ साल तक कम हो गई है। दिल्ली पीएम 2.5 सांद्रता के वार्षिक औसत के आधार पर दुनिया का चौथा सबसे प्रदूषित शहर है। चिंता इसलिए भी बढ़ जाती है कि यह स्थिति 2019 में राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) शुरू होने के बावजूद है जिसमें 100 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों को शामिल किया गया था।

न केवल दिल्ली जैसे भूमि से घिरे शहरों (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अन्य छोटे-बड़े शहरों समेत) में गंभीर वायु प्रदूषण की रिपोर्ट बार-बार आई है बल्कि मुंबई जैसे तटीय शहर भी वायु प्रदूषण की चपेट में आ चुके हैं जिन्हें कुछ साल पहले तक ताजी समुद्री हवाओं के कारण इस तरह के प्रदूषण से सुरक्षित माना जाता था। अफसोस की बात है कि अब यह स्थिति नहीं रही और इसके लिए अंधाधुंध निर्माण समेत तमाम मनुष्य जनित कारक जिम्मेदार हैं।  

पूरी दुनिया इस संकट से जूझ रही है और ऐसे में वायु प्रदूषण को रोकने के मामले में कुछ उल्लेखनीय सफलताओं की ओर ध्यान नहीं जाना कोई अस्वाभाविक बात नहीं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के एक हालिया नोट में पांच शहरों- पेरिस, न्यूयॉर्क, सियोल, बोगोटा और अकरा में कुछ उत्साहजनक पहलों का उल्लेख किया गया है। घाना का अकरा वह पहला अफ्रीकी शहर है जो ‘ब्रीथलाई’ अभियान में शामिल हुआ है। ‘ब्रीथलाई’ अभियान को कई अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने मिलकर शुरू किया है। सियोल की एक एक पहल ने मुझे खास तौर पर प्रभावित किया जिसके तहत शहर के केन्द्र में हवा पहुंचाने के लिए नदियों और सड़कों के किनारे पेड़ लगाकर एक ‘पवन पथ वन’ बनाने पर काम चल रहा है।  

क्या ऐसे आविष्कार हमें भारत में प्रेरणा दे सकते हैं? जबकि एनसीएपी की लॉन्चिंग एक बहुत जरूरी कदम था लेकिन कम फंडिंग और अस्पष्ट दृष्टि के कारण शुरू से ही इसमें बाधा उत्पन्न हो गई। बेशक रायपुर जैसे शहरों में कुछ अल्पकालिक सफलताएं मिली हैं लेकिन कुल मिलाकर स्थिति बहुत निराशाजनक और चिंताजनक बनी हुई है। 


चूंकि विभिन्न सरकारों के नियंत्रण में आने वाले कई शहर समान रूप से गंभीर प्रदूषण समस्याओं से जूझ रहे हैं, इसलिए दोष किसी एक पर नहीं मढ़ा जा सकता, बल्कि इसे शासन की एक बड़ी विफलता के रूप में देखा जाना चाहिए। यह विफलता इसलिए है कि 21वीं सदी के शहरी शासन को पर्यावरण के मुद्दे पर जितना संवेदनशील और गंभीर होना चाहिए था, वह सुनिश्चित नहीं हो सका। अच्छी तरह से सूचित योजना और विचारशील कार्यान्वयन के बजाय, भारत में शहरी शासन अक्सर तदर्थ प्रतिक्रियाओं, लोकलुभावनवाद और भ्रष्टाचार से प्रेरित होता है। 

जिस बात को अब भी स्वीकार नहीं किया जा रहा है, वह यह है कि प्रदूषण नियंत्रण शहरी विकास के मूल में होना चाहिए। हमारी खराब विरासत और भविष्य के लिए बढ़ती चिंताओं को देखते हुए शहरी नियोजन को बहुस्तरीय सुधारों के साथ एक बड़ी भूमिका निभाने की जरूरत है। 

जब दिल्ली जैसे शहर की बात आती है जिसका देश की राजधानी के रूप में खास महत्व है, तो आंकड़ों, अध्ययनों और उन पर आधारित विभिन्न पहलों की कोई कमी नहीं है। फिर भी, पूरे सिस्टम में भयावह कमियां बनी हुई हैं। हमारा अनुभव यही है कि जब वायु प्रदूषण की समस्या गंभीरतम होती है, तभी हम इस मुद्दे पर पर्याप्त ध्यान देते हैं, अन्यथा इसे भुलाए रहते हैं। यानी वायु प्रदूषण के प्रति हमारी चिंता एक अवधि तक ही सीमित रहती है जिसके परिणामस्वरूप प्रदूषण के आधार स्तर में कोई कमी नहीं आई है।  

भारत स्टेज-VI उत्सर्जन मानकों सहित वाहन प्रदूषण को कम करने के लिए सरकार द्वारा उठाए जा रहे विभिन्न कदमों के बारे में काफी कुछ कहा गया है। हो सकता है कि इन कदमों ने थोड़ी-बहुत सकारात्मक भूमिका निभाई हो। लेकिन अगर आप व्यापक परिदृश्य को देखें तो पता चलेगा कि कैसे इन नीतियों ने निजी कार स्वामित्व की बहुत तेज वृद्धि का भी समर्थन किया है जो हमारे शहरों के स्वास्थ्य के लिहाज से सुरक्षित दर से कहीं ज्यादा है। इसके साथ ही सार्वजनिक परिवहन पर उतना ध्यान नहीं दिया गया और स्थिति यह है कि कई जगहों पर इसकी हालत बदतर ही हो गई है। 

एक अन्य पहलू जिसने वास्तविक परिणामों की तुलना में मीडिया का अधिक ध्यान आकर्षित किया है, वह है पराली जलाना। इसके कई समाधान सुझाए गए हैं जिनमें से कई के साथ व्यावहारिक दिक्कतें हैं। एक बहुचर्चित समाधान धान की फसल के डंठल के लिए आर्थिक रूप से लाभदायक उपयोग ढूंढना, इन्फ्रास्ट्रक्चर की स्थापना करना है। लेकिन इस तरह का ढांचा खड़ा करने में काफी निवेश की जरूरत होगी। दूसरा सुझाव है खरीफ सीजन में धान की खेती के स्थान पर कम पानी वाली फसलें उगाई जाएं। हमें बताया गया है कि इससे न केवल पराली की समस्या बल्कि पानी के अत्यधिक दोहन की समस्या भी हल हो जाएगी। स्पष्ट रूप से, दोनों दृष्टिकोण एक-दूसरे के अनुरूप नहीं हैं। लेकिन वर्षों की बहस के बाद ऐसा लगता है कि दोनों में से किसी को भी अगले स्तर पर नहीं ले जाया गया है। 


प्रदूषण के सवाल पर हमारा ध्यान कितना दोषपूर्ण है, इसके तमाम उदाहरण हैं। जैसे, पिछले साल अगस्त में दिल्ली से सटे नोएडा में दो 100 मीटर ऊंची गगनचुंबी इमारतें- एक 29 मंजिला, दूसरी 32 मंजिला- 3,700 किलोग्राम विस्फोटक का उपयोग करके ध्वस्त कर दी गईं। विध्वंस से भारी मात्रा में धूल के साथ-साथ 80,000 टन मलबा उत्पन्न हुआ जिससे मनुष्य के स्वास्थ्य के साथ-साथ पक्षियों को भी खतरा हुआ। हालांकि निर्माण नियमों की अनदेखी की शिकायतें सही थीं लेकिन इमारतों के असुरक्षित होने की कोई शिकायत नहीं थी। इसलिए, विध्वंस के बजाय समाधान यह होगा कि निर्माणकर्ताओं पर समान राशि का जुर्माना लगाया जाए और उस धन का उपयोग कई हजार स्वदेशी मिश्रित पेड़ों का एक बगीचा बनाने में किया जाए। इसके बजाय, हमें बड़े पैमाने पर विस्फोटक अवशेषों के साथ 80,000 टन मलबा और अत्यधिक प्रदूषणकारी धूल मिली। 

क्या इस विध्वंस को धूल प्रदूषण के प्रमुख कारणों में से एक के रूप में पहचाना गया है? नहीं, इसके विपरीत, विध्वंस तेजी से बढ़ रहा है। जितना हमें दिखता है, उससे कहीं गैरजरूरी और गलत तरीके से इस तरह के काम किए जा रहे हैं। यह हमारे तथाकथित शहरी शासन के एक और उपेक्षित पहलू की ओर ध्यान दिलाता है- गलत नीतियां जो न केवल प्रदूषण बढ़ाती हैं बल्कि, इसके अलावा, मनुष्यों, खासकर कमजोर वर्गों के लिए अत्यधिक अन्यायपूर्ण हैं। 

हाल ही में, मैंने दिल्ली में विध्वंस अभियान के कई पीड़ितों से बात की। इन लोगों को कई साल पहले शहर के अपेक्षाकृत केन्द्रीय हिस्सों से बेदखल कर दिया गया था और वे बाहरी इलाकों में जाकर रहने लगे। इन लोगों ने बताया कि पहले वे काम पर पैदल जाते थे, अब उन्हें लगभग रोजाना भीड़ भरी बसों में यात्रा करनी पड़ती है। तो सबसे पहले, विध्वंसों ने भारी धूल और मलबे का प्रदूषण उत्पन्न किया और फिर, लोगों को काम पर जाने के लिए परिवहन का सहारा लेने के कारण रोजमर्रा के उत्सर्जन में भी भागीदार हो गया। ऐसी स्थितियां भारत में शहरी नियोजन की त्रुटिपूर्ण और अभिजात्यवादी अवधारणाओं पर सवाल उठाती हैं। वे समस्या का समाधान करने या उसे कम करने के बजाय उसे और बढ़ा देते हैं। 

एक अन्य उदाहरण पर गौर करें। मैंने कई महिलाओं से बात की जो बर्तनों के बदले मध्यवर्गीय घरों से कपड़े इकट्ठा करती हैं। फिर इन कपड़ों की मरम्मत कर उन्हें सेकंड-हैंड बाजार में बिक्री के लिए भेजती हैं। कचरे से धन पैदा करने, इस प्रक्रिया में आजीविका पैदा करने और गरीबों के लिए सस्ते मूल्य पर कपड़े उपलब्ध कराने का भी एक अच्छा उदाहरण है। इस काम का सबसे बड़ा केन्द्र दिल्ली में रघुबीर नगर के पास था जो एक जीवंत, रंगीन और मनोरंजक व्यापार स्थल था जहां महिलाएं बातचीत करते समय मजाक करती थीं- उन दो स्वेटरों के लिए पांच चम्मच, इन तीन शर्टों के लिए एक कटोरा...। 


दुर्भाग्य से इन उद्यमशील महिलाओं की झोपड़ियां कुछ साल पहले जमींदोज हो गईं। इस बड़े पैमाने पर विध्वंस को कवर करते समय मुझे इस समुदाय में हुए बड़े पैमाने पर व्यवधान के बारे में पता चला। जब मैं उनसे दूर उस स्थान पर मिलने गया जहां उन्हें भेजा गया था, तो मुझे न केवल उनकी बढ़ी हुई कठिनाइयों और घटती आय के बारे में पता चला बल्कि मैंने वही पैटर्न भी देखा। विध्वंस-संबंधी मलबे और धूल से होने वाले प्रदूषण के अलावा कार्यस्थलों की दैनिक यात्रा के कारण परिवहन-संबंधी प्रदूषण में भी वृद्धि हुई है। 

इसके अलावा, शहरों के बाहरी इलाके में जहां सबसे गरीब लोगों को धकेला जा रहा है, वहां साफ-सफाई और पानी सहित जरूरी सुविधाओं में आनुपातिक वृद्धि नहीं हुई। निहायत गंदगी और निहायत बेरोजगारी सरकारी ‘सफाई अभियान’ के दो तुरंत दिखाई देने वाले परिणाम हैं। 

यह एक गंवाया हुआ अवसर है। अगर रचनात्मक रूप से उपयोग किया जाए, तो अर्ध-शहरी क्षेत्र वनीकरण और कृषि-पारिस्थितिकी का केन्द्र बन सकते हैं जो स्वच्छ हवा के साथ-साथ शहर को ताजा और स्वस्थ भोजन की आपूर्ति में योगदान दे सकते हैं। जबकि अब तक प्रदूषण में कमी की परिकल्पना एक ऐसे एजेंडे के रूप में की गई है जो गरीबों को उनके घरों और आजीविका से विस्थापित करता है, शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में हरित कार्यक्रमों के लिए एक मजबूत मामला है जो गरीबों को बड़े पैमाने पर अत्यधिक रचनात्मक नौकरियां प्रदान कर सकता है। सामाजिक न्याय और पर्यावरण संरक्षण के लिए चिंताओं को मिलाकर चलना मुझे भारत में शहरी नियोजन और शासन के लिए सबसे अच्छा तरीका लगता है। 

प्रदूषण रोकने के किसी भी प्रयास का ठोस वैज्ञानिक आधार होना चाहिए। इस मामले में अत्यधिक तकनीकी दृष्टिकोण काम नहीं करेगा। इसलिए, इस महत्वपूर्ण काम को आम लोगों, खास तौर पर कमजोर वर्गों की सुप्त ऊर्जा और रचनात्मकता से जोड़ा जाना चाहिए। आज उपेक्षा और बेरोजगारी से जूझ रहे सबसे गरीब लोग शहरी भारत के पारिस्थितिक उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, बशर्ते शहरों की हरियाली में उनके लिए पर्याप्त रचनात्मक आजीविका उत्पन्न की जाए।  

वायु प्रदूषण को कम करने की ढेर सारी सामग्री में न्याय और पारिस्थितिकी संबंधी चिंताओं को जोड़कर वायु प्रदूषण कम करने के उपाय खोजे नहीं मिलेंगे। लेकिन समझना होगा कि इसी में हमारे शहरों का साफ-सुथरा भविष्य निहित है। 

(भारत डोगरा कैम्पेन टु सेव अर्थ नाउ के मानद संयोजक हैं। उनकी हालिया किताबों में प्रोटेक्टिंग अर्थ फॉर चिल्ड्रेन, प्लैनेट इन पेरिल और अ डे इन 2071 हैं। )

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia