कबीर का दांव और BJP का भरम, क्या मुर्शिदाबाद बनेगा नया अयोध्या?

मुर्शिदाबाद में नई बाबरी मस्जिद और राम मंदिर की प्रतिकृति के शिलान्यास ने पश्चिम बंगाल की राजनीति में हलचल बढ़ा दी है। 2026 विधानसभा चुनाव से पहले उभरते सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, हुमायूं कबीर की नई राजनीतिक पहल और बीजेपी-तृणमूल के सियासी गणित पर नजर।

फोटो: सोशल मीडिया
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शिखा मुखर्जी

मुर्शिदाबाद नया अयोध्या बनेगा? संघ परिवार द्वारा बाबरी मस्जिद विध्वंस की 33वीं वर्षगांठ पर तृणमूल कांग्रेस के निलंबित विधायक हुमायूं कबीर ने 6 दिसंबर को मुर्शिदाबाद के बेलडांगा में ‘नई बाबरी मस्जिद’ की नींव रखी। कई राजनीतिक दलों में आते-जाते रहे और हमेशा चर्चा में रहने वाले कबीर ने कहा कि उन्होंने मस्जिद की प्रतिकृति का निर्माण शुरू करने का अपना वादा पूरा किया है, और जिसे वह “मुसलमानों के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई” बताते हैं।

मुर्शिदाबाद जिले के पूर्व बीजेपी अध्यक्ष सखारोव सरकार भी उसी दिन बरहामपुर में अयोध्या के राम मंदिर की प्रतिकृति के लिए ‘भूमि पूजन’ और ‘शिला प्रतिष्ठा’ दोनों करते दिखाई दिए। मुर्शिदाबाद में दूसरी बार ऐसी ‘पहल’ हुई है। जनवरी 2025 में बंगीय राम सेवा परिषद धर्मार्थ ट्रस्ट ने भी सागरदिघी के अलंकार गांव में रामलला की प्रतिकृति स्थापित की थी।

6 दिसंबर को हुए ऐसे प्रतिस्पर्धी शिलान्यासों के बाद पहले से संवेदनशील माहौल और बिगड़ गया है, जो अगस्त 1947 से पूर्व के तनाव की याद दिलाता है। एक और जमावड़ा भी हुआ, जब सनातन संस्कृति संसद द्वारा 7 दिसंबर को आयोजित ‘गीता पाठ’ के कार्यक्रम में भगवद्गीता का पाठ करने के लिए मध्य कोलकाता में करीब पांच लाख लोग इकट्ठा हुए। इनमें पश्चिम बंगाल बीजेपी के शीर्ष नेता भी शामिल थे।

ऐसे आयोजनों से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जैसे संकेत मिल रहे हैं, वह 2026 के विधानसभा चुनावों से पहले उभरने वाले संकट की ओर इशारा कर रहे हैं।


बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सामिक भट्टाचार्य कहते हैं, “पश्चिम बंगाल सरकार बाबर-प्रेमी है। यह सरकार  हिन्दुओं ही नहीं मुसलमानों की भी विरोधी है।” केन्द्रीय मंत्री सुकांत मजूमदार कहते हैं कि “बंगाल में हिन्दू बेगाने होते जा रहे हैं। बंगाल ने भारत के साथ रहने का फैसला इसलिए किया था, क्योंकि हिन्दू अलग जमीन चाहते थे। अगर हिन्दू अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा करना चाहते हैं तो एकजुट होना होगा।”

ऐसे ही ‘वंदे मातरम’ के 150 वर्ष पूरे होने पर हुई चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी कांग्रेस पर राष्ट्र के साथ विश्वासघात करने का आरोप लगाया और इसे भारत विभाजन से जोड़ दिया, जो उनकी नजर में ‘सबसे बड़ा विश्वासघात’ है, यानी मुस्लिम लीग के दबाव में 1947 में हुआ भारत का विभाजन।

मतलब, मोदी और हुमायूं कबीर एक ही नाव पर सवार लोगों की तरह की भाषा बोल रहे हैं। मोदी कांग्रेस पर आरोप लगा रहे हैं, तो हुमायूं कबीर ममता बनर्जी की सरकार को पश्चिम बंगाल के मुसलमानों के प्रति शत्रुतापूर्ण बताते रहे हैं। दोनों की मिलीभगत की पुष्टि एक बीजेपी नेता की इस बात से भी होती है कि “हुमायूं कबीर को बीजेपी के कुछ लोगों ने ही उकसाया है। उनका मानना ​​है कि कबीर मुस्लिम मतों के विभाजन में मदद करेंगे, जिसका नुकसान तृणमूल कांग्रेस को होगा और बीजेपी को हिन्दू वोटों और मुस्लिम असंतुष्टों को एकसाथ लाने का बड़ा मौका मिल जाएगा।”

हुमायूं कबीर ने घोषणा की है कि वह अपनी नई पार्टी 22 दिसंबर को लॉन्च करेंगे और यह 134 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। बंगाल विधानसभा में कुल 294 सीटें हैं। उनका मानना है कि उनकी पार्टी राज्य के मुसलमानों (2011 की जनगणना के अनुसार 22 प्रतिशत) को आकर्षित कर सकती है, जिससे उसे निर्णायक भूमिका निभाने की ताकत मिलेगी।


बीजेपी का गणित भी सीधा है। बीजेपी के हिन्दुत्व एजेंडे के विरोधी के तौर पर मुस्लिम मतदाताओं के बीच ममता बनर्जी की लोकप्रियता से मिली तृणमूल कांग्रेस की ताकत किसी हद तक कमजोर पड़ रही है। इसी कारण बीजेपी को लगता है कि सूबे की सत्ता पर काबिज होने की दौड़ में शामिल होने का अच्छा मौका उसके हाथ लग रहा है। अगर कबीर मुस्लिम बहुल सीटों (लगभग 90) पर जीत हासिल करते हैं या उनमें सेंध लगा पाते हैं, तो सत्ता-साझा करने का समझौता आकार ले सकता है।

कबीर की मुसलमानों के लिए, मुसलमानों द्वारा, और खुले तौर पर एक सांप्रदायिक अपील वाली पार्टी उतारने की योजना विभाजन की संवेदनशील यादों को ही उभार रही है। यह योजना उसी ‘1941 मॉडल’ का एक नया रूप प्रस्तुत करती दिखती है, जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व वाली हिन्दू महासभा, फजलुल हक के नेतृत्व वाली कृषक प्रजा पार्टी, मुस्लिम लीग और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के फॉरवर्ड ब्लॉक के गठबंधन ने सरकार बनाई थी।

हालांकि यह मॉडल मौजूदा वास्तविकताओं से कोसों दूर है। बीजेपी हिन्दू महासभा नहीं है और कबीर की अभी तक अघोषित पार्टी के मुस्लिम लीग बनने की संभावना भी नहीं दिखती। ऐसे लोग भी कम नहीं हैं, जिन्हें कबीर के अपने निर्वाचन क्षेत्र भरतपुर या उससे सटे रेजिनगर से भी जीतने का भरोसा नहीं है।

वैसे भी, पश्चिम बंगाल में हिन्दू वोट उस तरह एकजुट नहीं हैं, जैसा बीजेपी को लगता है या उसे सुहाता है। यही कारण है कि धार्मिक भावनाएं भड़काने के लिए मंदिर निर्माण के वादे, सामूहिक गीता पाठ जैसे कार्यक्रम तो चल ही रहे हैं, यहां मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण जैसे अभियान का भी जिक्र जरूरी है जिसे भारतीय मतदाताओं के रूप में छिपे कथित मुस्लिम घुसपैठियों को ढूंढ निकालने और उन्हें बाहर निकालने के हथियार के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। कबीर अकेले आगे बढ़ने को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। यही कारण है कि अखिल भारतीय मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन, स्थानीय भारतीय धर्मनिरपेक्ष मोर्चा, कांग्रेस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ संपर्क में हैं।


यह सब वहां हो रहा है जहां की राजनीति में गलाकाट प्रतिस्पर्धी तो हैं ही, स्थापित पार्टियां उन वोट बैंकों को लुभाने के लिए संघर्ष करती रही हैं, जो कई बार खंडित भी हुए हैं। ऐसे में सांप्रदायिक होने से बचे बड़े मतदाता वर्ग पर नजर डालें और बंगाली अस्मिता और संस्कृति से बीजेपी की दूरी के कारण उसकी गलतियों को देखें, तो कबीर की योजनाएं कोरी कल्पना जैसी ही लगने लगती हैं। 

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