कश्मीरः तिरस्कारपूर्ण जीवन और सरकारी हिंसा के एक साल, अपने ही नागरिकों के प्रति राज्य के पाप की शर्मनाक कहानी

कभी एक पूर्ण राज्य रहे जम्मू-कश्मीर को पिछले साल अगस्त में मोदी सरकार ने जबर्दस्ती एक केंद्र शासित प्रदेश में बदल दिया और तब से यहां के लोगों का जीवन तिरस्कारपूर्ण और सरकारी हिंसा का शिकार है। यह सब कोरोना संकट से निपटने के लिए लागू लॉकडाउन से पहले हो चुका था।

फोटोः सोशल मीडिया
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आनंद के सहाय

अक्टूबर, 1947 में पाकिस्तान से लगी रियासत जम्मू-कश्मीर के शासक ने उस समय की विशेष परिस्थितियों में ‘विलय’ की जगह भारत में ‘सम्मिलित’ होने का फैसला किया। विशेष परिस्थिति इस मायने में कि हाल ही में बने नए देश पाकिस्तान के साथ युद्ध हो रहा था और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति तथा संयुक्त राष्ट्र में बड़ी ताकतों का झुकाव पाकिस्तान की ओर था। खैर, भारत में शामिल होने के बाद जम्मू-कश्मीर के इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि को एक साल 5 अगस्त को पूरा हो रहा है।

कभी एक पूर्ण राज्य रहे जम्मू-कश्मीर को पिछले साल अगस्त में केंद्र सरकार ने जबर्दस्ती एक केंद्र शासित प्रदेश में तब्दील कर दिया और तभी से यहां के लोगों का जीवन तिरस्कारपूर्ण और सरकारी हिंसा का शिकार हो गया। यह सब कोरोना वायरस से निपटने के लिए लगाए गए लॉकडाउन से पहले ही हो चुका था।

एक नागरिक के रूप में लोगों के अधिकार छिन गए, कश्मीर घाटी वास्तव में एक विशाल सैनिक छावनी बन गई, मोबाइल फोन और इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गईं और आम लोगों के लिए लगभग पूरा साल ही बिना आजीविका के बीता। स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त हो गई। सात हजार कश्मीरियों को एहतियात के तौर पर जेल में डाल दिया गया जिसमें बीजेपी से जुड़े लोगों को छोड़कर पूरा राजनीतिक समुदाय था। सबसे छोटा कैदी नौ साल का एक बालक था।

वैसे भी, तीस साल पहले धार्मिक कट्टरपंथी विचारधारा से पोषित और पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद कश्मीर के लिए अपार दुख लेकर आया था जिससे घाटी में लंबे समय तक चलने वाला एक व्यापक विनाशकारी और मानवाधिकारों के हनन का दौर शुरू हो गया और कश्मीरी पंडितों की समस्या विकराल हो गई। लेकिन पिछले एक साल के दौरान की घटनाएं गवाह हैं कि यह सब किसी दुश्मन के हाथों नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक भारतीय राज्य के हाथों हुआ है। यह एक लंबी और शर्मनाक कहानी है, अपने ही नागरिकों के प्रति राज्य के पाप की कहानी है।

फोन सेवा रोक दिए जाने से ऐन पहले फिजां में अफवाहों का बाजार गर्म था और कश्मीर के लोगों को यह अंदेशा हो रहा था कि अब कुछ बहुत ही बुरा होने वाला है और उसी मनःस्थिति में लोगों ने अपने रिश्तेदारों को फोन करके जैसे उनसे अंतिम बार बात कर ली थी। घाटी में लगभग पांच लाख सैनिक पहले से ही थे और इनके अलावा 38,000 अतिरिक्त सैन्य बल को अप्रत्याशित रूप से तैनात कर दिया गया।

इतनी तैनाती उस इलाके में थी, जिसकी लंबाई 130 किलोमीटर और चौड़ाई मुश्किल से 30 किलोमीटर है और आबादी 70 लाख के आसपास। इतनी संख्या में सैनिकों के होने का क्या मतलब है, इसे समझने के लिए पूर्वी लद्दाख का रुख करें, जहां चीन ने अभी 40,000 सैनिक तैनात कर रखे हैं और माना जा रहा है कि ऐसा उसने युद्ध की तैयारी के तहत किया है।

जॉर्ज ऑरवेल के उस काल्पनिक राज्य को जैसे साकार करते हुए वहां के अखबारों ने कश्मीर के जमीनी हालात पर रिपोर्ट और संपादकीय कॉलम में टिप्पणी करना बंद कर दिया है। इसके बजाय वे लंबी सरकारी विज्ञप्तियां और दर्शन, स्वास्थ्य और बागवानी पर प्रवचन दे रहे हैं। पत्रकारों पर आपराधिक मामलों का केस चलाया जाता है, जैसे वे आतंकवादी और खतरनाकअपराधी हों और नियमित रूप से पुलिस थानों में हाजिरी देने या फिर जेल चले जाने को कहा जाता है।

संदेश साफ है: दुनिया को कुछ न बताएं! सूचना विभाग का कोई अदना-सा अधिकारी यह तय करता है कि खबर क्या है। नई मीडिया नीति में उन्हें सुरक्षा महकमे से घनिष्ठ समन्वय बनाए रखना है। ठीक वैसे ही, जैसी व्यवस्था पाकिस्तान की खूंखार एजेंसी आईएसआई ने बना रखी है। कश्मीर में “न्यू इंडिया” कुछ इस तरह आपका स्वागत करता है।

संविधान के अनुच्छेद 370 को मनमाने तरीके से निरस्त कर दिया गया, जिसने जम्मू-कश्मीर को भारतीय संघ के भीतर विशेष स्वायत्तता और संवैधानिक स्वतंत्रता का वादा किया था और 370 को हटाना न केवल कश्मीर के लोगों की गरिमा के साथ खिलवाड़ है, बल्कि इसने उनके जीवन को भी खतरे में डाल दिया। वहां के लोगों में छले जाने का भाव घर कर गया है, जिसने उनमें एक अजीब-सा खालीपन भर दिया है।

इस लेखक से बातचीत में कई लोगों ने कबूल किया कि जब पिछले साल 4/5 अगस्त को उन्हें सदमा पहुंचाने वाली यह खबर मिली तो वे अपने आंसुओं को रोक नहीं सके थे और यह भी कि जब घाटी में संचार सेवाएं बंद कर दी गई थीं तो कई लोगों ने अपने मित्र अधिकारियों के फोन से रिश्तेदारों से बात की थी। उनमें से हर आदमी एक ही सवाल पूछ रहा था, “अब हम अपने बच्चों को क्या बताएंगे कि हमने भारत को क्यों चुना?” अलगाववादियों में पाकिस्तान समर्थक गुट ही इससे खुश है जो धार्मिक अतिवादी विचारधारा से प्रेरित है, लेकिन घाटी के राजनीतिक अमले में यह एक बहुत ही छोटा समूह है।

अनुच्छेद 370 को हटाने के दो महीने बाद मैं कश्मीर गया। वहां मेरे एक मित्र हैं, जिनके शरीर पर आतंकवादियों की गोलियों के तमाम निशान हैं। उनसे मैंने पूछा कि 90 के दशक में आतंकवाद के चरम पर होने के दौरान भी सेना की भारी तैनाती की गई थी और आज भी यहां बड़ी संख्या में सैनिक हैं। दोनों स्थितियों में उन्हें क्या अंतर दिखता है। उसने बड़ा सपाट सा जवाब दियाः “तब हमें पता था कि भारतीय सेना पाकिस्तान से निपटने के लिए आई है, लेकिन इस बार हम जानते हैं कि वे हमारे लिए आए हैं!”

जिन्ना ने कश्मीर के लोगों को अपनी योजना के तहत पाकिस्तान में शामिल होने के लिए आमंत्रित करने के लिए 1944 की गर्मियों में श्रीनगर का दौरा किया था। कश्मीर के लोगों ने उनका शानदार स्वागत किया, लेकिन उनके सबसे बड़े नेता (“कश्मीर के शेर”) शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने मुस्लिम पाकिस्तान के विचार को खारिज किया क्योंकि वह “धर्मनिरपेक्ष” और“लोकतांत्रिक” भारत- जो अब भी केवल एक वादा ही है- के साथ रहने के बारे में बिल्कुल स्पष्ट धारणा रखते थे। यह जम्मू-कश्मीर के हिंदू शासक महाराजा हरि सिंह के खास हालात में अपनी रियासत को भारत में सम्मिलित करने का फैसला करने के तीन साल पहले की बात है।

यह वह इतिहास है जिसे 5 अगस्त की घटना ने बुरी तरह झकझोर दिया है। इस मुस्लिम-बहुल क्षेत्र के लिए बहुत आसान था कुछ ही गज की दूरी पर स्थित पाकिस्तान के पाले में चला जाना। चूंकि आरएसएस-बीजेपी केवल धर्म के चश्मे से इतिहास और राजनीति को देखते हैं, यह याद रखना चाहिए कि वह जम्मू-कश्मीर के हिंदू शासक ही थे, जिन्होंने बंटवारे के बाद स्वतंत्र रहने का फैसला किया था और वह तो पाकिस्तानी कबायलियों के आक्रमण के बाद के हालात में उन्होंने मजबूरीवश आनन-फानन भारत में शामिल होने का फैसला किया। जाहिर है, यह स्वेच्छा से नहीं हुआ था।

हालांकि, वर्तमान में नई दिल्ली पर सत्तारूढ़ ताकतों के लिए यह बात कोई मायने नहीं रखती कि तब कश्मीर ने पाकिस्तान को खारिज करके एक राजनीतिक साहस का परिचय दिया था। मुसलमानों को संदिग्ध मानना उनके डीएनए में है और ऐसा करके वे देश की वास्तविक सामाजिक संरचना को बिगाड़ रहे हैं। यही मूल वजह है कि संविधान के अनुच्छेद 370 को खारिज कर दिया गया।

हालांकि, मोदी सरकार ने यह झूठा प्रचार किया कि इस अनुच्छेद के रहने के कारण ही अलगाववाद और आतंकवाद का जन्म हुआ। इतिहास गवाह है कि 1949 में संविधान सभा द्वारा जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष प्रावधान को मंजूरी दिए जाने के बाद से ही इसे व्यावहारिक रूप से खत्म करने के लिए आरएसएस और उसके सहयोगी दल उत्सुक थे। तब तो न अलगाववाद था और न ही कोई आतंकवाद!

अनुच्छेद 370 को खत्म करना सबसे बड़ी संवैधानिक विकृतियों में से एक है और यह पूर्णतः अनिश्चित और संभवतः खतरनाक राजनीतिक राह की ओर ले जाता है। इंस्ट्रूमेंट ऑफ ऐक्सेशन- जिसे अनुच्छेद 370 के रूप में कानून में शामिल किया गया- पर जम्मू-कश्मीर के शासक ने अक्टूबर, 1947 में हस्ताक्षर किया और इसका प्रभाव एक संधि का था। इसका अनुमोदन संविधान सभा ने किया और इस तरह यह एक मील का पत्थर था। यह कश्मीर को संवैधानिक तौर पर जोड़ने का साधन था और भारतीय संघ को एक गणराज्य बनाने में इसका बड़ा योगदान था। जम्मू और कश्मीर के लोगों के लिए इस प्रावधान को खत्म कर देना उन्हें विशेष अधिकारों से वंचित करना है। आकार ले रहे इतिहास के नजरिये से देखें तो इसके परिणाम अस्थिर करने वाले हो सकते हैं।

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