आकार पटेल / कश्मीर टाइम्स पर छापा और बोलने की आजादी पर पाबंदी को लेकर मुख्यधारा के मीडिया की खामोशी
जम्मू का एक ऐसा अखबार जो घाटी की आवाज बनकर खड़ा हुआ था, उसे खामोश करने की कोशिश और मुख्यधारा के मीडिया में इस पर सन्नाटा हमारे समय को रेखांकित करता है।

कश्मीर टाइम्स और उसकी संपादक अनुराधा भसीन पर पड़े छापे को लेकर ‘सूत्रों’ के हवाले से तमाम तरह की बातें कही जा रही हैं।
इस बाबत कुछ बैकग्राउंड यानी पृष्ठभूमि जानना जरूरी है ताकि पाठक इसे सही नजरिए से देख सकें। 2 जून 2020 को, मोदी सरकार ने ‘न्यू मीडिया पॉलिसी 2020’ का ऐलान किया। यह खास तौर पर कश्मीर के लिए बनाई गई एक पॉलिसी है। ध्यान रखें कि कश्मीर में सरकार की कार्यप्रणाली में यह दिखावा किया गया है कि इसका मकसद राज्य का एकीकरण है जिसे उन कानूनों को खत्म करने से संभव हुआ है जो इसे बाकी भारत से अलग करते थे।
फिर भी, यह एक और सिर्फ़ कश्मीर वाली पॉलिसी थी। 50 पन्नों से ज़्यादा लंबी इस पॉलिसी ने सरकार को यह तय करने की पूरी छूट दे दी कि कौन सी ख़बर ‘फ़ेक’, ‘अनैतिक’ या ‘एंटी-नेशनल’ है। इसके आधार पर, वह पत्रकारों और मीडिया संगठनों या संस्थानों के ख़िलाफ़ कानूनी और अन्य सज़ा देने वाली कार्रवाई कर सकती है।
विदेशों में मीडिया पर नज़र रखने वाली एजेंसियों ने ‘फेक’, ‘अनैतिक’, ‘एंटी-नेशनल’ और ‘एंटी-सोशल’ जैसे धुंधले और अपरिभाषित शब्दों के इस्तेमाल को नोट करते हुए आशंका जताई है कि इनसे नीति के गलत इस्तेमाल के दरवाज़े खुल गए क्योंकि इनसे खबरों को अपने तरीके से तौलने वाले अफसरों का सही या गलत तय करने वाले कोई मानक या सिद्धांत नहीं मिलते थे। ये सब पूरी तरह सरकार की मर्जी पर आधारित है। इस मामले में जम्मू की प्रेस खामोश है, जबकि कश्मीरी मीडिया और प्रेस ने इस नीति का कड़ा विरोध किया था। विरोध करने वाली साहसी आवाजों में अनुराधा भसीन भी शामिल थीं।
10 जनवरी 2020 को, कश्मीर में इंटरनेट की बहाली से जुड़े एक मामले की सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने तय किया कि इंटरनेट का एक्सेस भारतीयों का बुनियादी अधिकार है। अगले दिन कई अखबारों ने इसे इस तरह रिपोर्ट किया: ‘सुप्रीम कोर्ट ने कहा- इंटरनेट लोगों का बुनियादी अधिकार है’ और ‘सुप्रीम कोर्ट ने इंटरनेट यूज़र्स के अधिकार को पहचाना, साथ ही उनकी जिम्मेदारी भी तय की’।
दुर्भाग्य से, असली इंसाफ तो हुआ ही नहीं और कश्मीरियों के इंटरनेट इस्तेमाल पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गई। सरकार ने तर्क दिया: ‘इंटरनेट इस्तेमाल करने का अधिकार कोई बुनियादी अधिकार नहीं है और इसलिए इंटरनेट के ज़रिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत बोलने और बोलने की आज़ादी के अधिकार का इस्तेमाल करने और/या अनुच्छेद 19(1)(जी) के तहत कोई भी व्यापार या बिज़नेस करने के लिए इंटरनेट के इस्तेमाल के तरीके और दायरे को कम किया जा सकता है।’
कश्मीरियों को इस सामूहिक सज़ा के लिए यह वजह दी गई थी कि ‘अगस्त 2019 के संवैधानिक घटनाक्रम के बाद, पाकिस्तान के हैंडलर्स ने, सीधे या अप्रत्यक्ष, सोशल मीडिया पर सक्रियता बढ़ा दी थी, जिसका मकसद इलाके में शांति भंग करना, हिंसा भड़काना और आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा देना है।’ सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट में दलील दी: ‘दुर्भाग्य से, इंटरनेट जिहाद भी एक सफल जिहाद है। यह एक वैश्विक परिघटना है। जिहादी नेता इंटरनेट के ज़रिए नफ़रत और गैर-कानूनी गतिविधियों को अंजाम दे सकते हैं।’ कोर्ट ने इस पर पूछा कि क्या कुछ पाबंदियों के साथ इंटरनेट एक्सेस की इजाज़त दी जा सकती है। इस पर केंद्र सरकार ने कहा, ‘इंटरनेट स्पीड बढ़ने से भड़काऊ वीडियो और दूसरी बड़ी डेटा फ़ाइलें तेज़ी से अपलोड और पोस्ट होंगी।’ मेहता ने कहा, ‘एकमात्र हल यह है कि या तो आपके पास इंटरनेट हो या आपके पास इंटरनेट न हो।’
यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि 2001 में कश्मीर में हिंसा अपने चरम पर थी, जिसमें 4,000 से ज़्यादा लोग मारे गए थे। यह तब हुआ था जब कश्मीर में इंटरनेट और मोबाइल टेलीफोनी भी नहीं थी।
आंकड़ों के मुताबिक, हिंसा के स्तर और इंटरनेट तक पहुंच के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है। लेकिन सरकार या अदालत ने इस पहलू को नहीं देखा। 2019 के संवैधानिक बदलाव के बाद से, जम्मू और कश्मीर में सरकार द्वारा लगाए गए कम से कम 90 इंटरनेट शटडाउन की वजह से इंटरनेट एक्सेस में रुकावट आई है - जो दुनिया में सबसे ज़्यादा है। पूरी दुनिया ने इसे नोट किया है।
इंटरनेट सस्पेंशन को ट्रैक करने वाले इंटरनेशनल एडवोकेसी ग्रुप, एक्सेस नाउ के मुताबिक, यह शटडाउन (कुल 17 महीने, जिसमें सात महीने ऐसे भी थे जब 2G मोबाइल टेलीफोनी भी सस्पेंड थी) किसी भी डेमोक्रेसी में अब तक का सबसे लंबा शटडाउन था।
एमनेस्टी इंडिया ने 14 जनवरी 2020 से 4 अगस्त 2020 के बीच सरकार की तरफ से लगाए गए कुल 67 इंटरनेट शटडाउन को रिकॉर्ड किया है। कश्मीर में इंटरनेट 'फिर से शुरू' होने के बावजूद, इंटरनेट सर्विस को मनमाने ढंग से बंद करना आम बात है। कोई भी घटना, और प्रशासन की कोई भी मनमानी, कश्मीरियों को पुराने ज़माने में वापस भेज देती है।
मुद्दे की बात करें तो, 10 जनवरी 2020 को जिस केस की सुनवाई हुई, उसमें याचिकाकर्ता कश्मीर टाइम्स अखबार की एडिटर और पब्लिशर अनुराधा भसीन थीं। उन्होंने कोर्ट को बताया था कि भारत सरकार की तरफ से संचार यानी कम्युनिकेशन पर लगी रोक की वजह से वह अखबार पब्लिश नहीं कर सकतीं।
उन्होंने इंटरनेट, मोबाइल और लैंडलाइन फ़ोन के इस्तेमाल पर लगी रोक हटाने और दूसरी इसी तरह की राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी दी (मीडिया की बिना कम्युनिकेशन के पब्लिश न कर पाने की नाकामी भी एक वजह है कि कोर्ट को इस मामले को बोलने की आज़ादी के नज़रिए से देखना पड़ा)। लेकिन कोर्ट का नजरिया या रुख वैसा नहीं था जैसा कि होना चाहिए था, और अंतत: रोक जारी रहीं।
कश्मीर टाइम्स प्रकाशित नहीं हो पाया और उसे अपना काम बंद करना पड़ा। इसे भी दुनिया ने देखा और वजह को नाम दिया: ‘बदला’: भारत सरकार ने कश्मीर अखबार का ऑफिस सील किया’, यह 20 अक्टूबर 2020 की एक हेडलाइन है।
आरोपों के मौजूदा दौर के बाद, इस हफ़्ते एक और हेडलाइन देखने को मिली है: 'कश्मीर टाइम्स: जम्मू का एक अख़बार जो घाटी के लिए खड़ा हुआ'। रिपोर्ट में कहा गया है कि '1954 में शुरू हुआ यह अख़बार कश्मीर के मीडिया जगत में एक असरदार और भरोसेमंद आवाज़ माना जाता है।'
यह बिल्कुल सच है और यह शर्मनाक है कि इस पर इस तरह से हमला किया गया है और भसीन को अपने और अपने अखबार के समर्थन में, खासकर भारत के कायर मीडिया की कोई आवाज सुनाई नहीं देती है।
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