कुलदीप नैयर: साहस और गरिमा का संयोग

आज जब मीडिया पेशेवरों के बीच खुलकर विचारों का आदान-प्रदान और सार्वजनिक बहसें तेजी से क्षणभंगुर होती जा रही हैं और दूसरे धर्म के लोगों को अचानक अपमानजनक तरीके से विदेशी बताया जा रहा है, वैसे में कुलदीप नैयर जैसा खुलापन असाधारण नजर आता है।

फोटो: सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

कुलदीप नैयर का 95 साल की उम्र में निधन हो गया। वे कई राष्ट्रीय दैनिकों के अनुभवी संपादक रहे। इसके अलावा वे 14 भाषाओं में छपने वाले 80 प्रकाशनों के स्तंभकार थे। उन्होंने विभिन्न विषयों पर 15 किताबें लिखीं। वे पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के प्रेस सलाहकार भी रहे। उन्होंने इंग्लैंड में भारत के राजदूत के रूप में भी कार्य किया। 90 के दशक में वे राज्यसभा के सदस्य रहे। उन्होंने राज्य की दमनकारी कार्रवाईयों के खिलाफ ऐतिहासिक याचिकाएं डालीं, जिनमें आपातकाल से लेकर बाबरी मस्जिद का विध्वंस शामिल है। परंपरागत रूप से देखा जाए तो उन्होंने भरा-पूरा जीवन व्यतीत किया। लेकिन उन्होंने अपने जीवन में काफी खतरे भी उठाए। मीडिया में काम करने वाले हम जैसे लोग उनके जैसे असाधारण व्यक्ति को हमेशा याद करेंगे जब भी हमारी आजादी खतरे में होगी। उनका दायरा, दिल और साहस काफी बड़ा था। उन्होंने बार-बार अपनी पूरी शक्ति के साथ अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई और उसे चुनौती दी और अपने पेशे के सदस्यों को गर्व महसूस कराया।

कुलदीप नैयर भारतीयों की उस पीढ़ी का हिस्सा थे जिन्होंने अविभाजित भारत में कॉलेज से स्नातक किया और गांधी की उस सोच में भरोसा किया कि विभाजन एक गलती थी। उनका मानना था कि भारत और पाकिस्तान एक मां के दो बेटे हैं और जब तक वे अपनी तुच्छ आशंकाओं को नहीं छोड़ते और मित्रवत पड़ोसी में अपना रूपांतरण नहीं करते, तब तक दोनों शांति से नहीं रहेंगे। जंग, सीमा पर होने वाली मौतें और संयुक्त राष्ट्र में घृणित टकरावों ने भी उनके इस विश्वास को नहीं हिलाया और साल 2000 में उन्होंने राजघाट से वाघा बॉर्डर तक अमन दोस्ती यात्रा शुरू की, जिसका अंत भारत-पाक सीमा पर भागीदारों द्वारा शांति के लिए हर साल 14 अगस्त को मोमबत्तियां जलाकर हुआ। यह पूरी तरह यथोचित था कि उनकी आखिरी सार्वजनिक उपस्थिति इस साल 12 अगस्त को हुई जब उन्होंने अमन दोस्ती यात्रा को हरी झंडी दिखाई।

हम भारतीय गणतंत्र के इतिहास में कई सरकारों पर कई चीजों के लिए आरोप लगा सकते हैं, लेकिन कोई भी यह नहीं सकता कि जब भी उनकी सत्ता को खतरा हुआ तो उन्होंने शक्ति के एकाधिकार का इस्तेमाल करने में हिचक बरती। ऐसे मौकों पर कुलदीप नैय्यर ने हम लोगों को निराश नहीं किया जब हमने अपने नागरिक अधिकार को कुचले जाने को लेकर विरोध किया। उन्होंने आपातकाल के खिलाफ याचिका दी और मीसा के तहत जेल गए, लेकिन कुछ सालों बाद उन्होंने फिर बाबरी मस्जिद विध्वंस के खिलाफ जस्टिस सीतलवाड़ के साथ मिलकर याचिका दी। उन्होंने मीडिया की आजादी पर उठे हर खतरे का विरोध किया। जब हममें से कुछ वरिष्ठ महिला पत्रकारों ने मिलकर इंडियन वीमेंस प्रेस क्लब के गठन का फैसला लिया तो उन्होंने अपने सहयोगियों वरिष्ठ पत्रकार बीजी वर्गीस और एचके दुआ के साथ मिलकर मजबूती के साथ हमारा समर्थन किया और हमारे समारोहों में हमेशा शरीक हुए।

जब वे लंदन में भारतीय उच्चायुक्त थे तब एक बार दिल्ली यात्रा के दौरान मैं उनसे मिली तो उन्होंने झिड़कते हुए कहा, “जब पिछले महीने आप लंदन में थीं तो आपको घर आने का समय नहीं मिला?” मैंने भुनभनाते हुए कहा कि इस तरह का पाप करना मेरे लिए अकल्पनीय है। मैं एक साल पहले लंदन के उनके घर में उनसे और उनकी गरिमामयी पत्नी से मिलने और उनके पंजाबी आवभगत का आनंद उठाने के बाद लंदन नहीं गई थी। वे मुस्कुराए और कहा, “मेरी गलती है। किसी ने मुझसे कहा कि आप दिखी थीं।” फिर उन्होंने गर्माहट से मेरा सर थपथपाया और कहा, “मैंने उनसे कहा था कि मृणाल मेरे साथ ऐसा नहीं कर सकतीं। मुझे खुशी है कि मैं सही था।”

जो लोग उन्हें जानते थे और लगभग आधी सदी तक एक पत्रकार, एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में उन्हें काम करते हुए देखा था, उनके लिए कुलदीप नैय्यर ऐसे शख्स बने रहे जो वाघा बॉर्डर के दोनों तरफ की सरकारों और ऊपर मौजूद ईश्वर के बारे में खुलकर वो बोलते थे जो वे सोचते थे और इसकी चिंता नहीं करते थे कि उन्हें सताया जाएगा या मारने की धमकी दी जाएगी। आज जब मीडिया पेशेवरों के बीच खुलकर विचारों का आदान-प्रदान और सार्वजनिक बहसें तेजी से क्षणभंगुर होती जा रही हैं और दूसरे धर्म के लोगों को अचानक अपमानजनक तरीके से विदेशी बताया जा रहा है, वैसे में कुलदीप नैयर जैसा खुलापन असाधारण नजर आता है। वे बहुत सारे लोगों के लिए न्यायपूर्ण मुद्दों की आवाज बन गए थे और उन्होंने अन्याय के प्रति हमेशा आवाज उठाई जैसा कुछ ही लोग कर पाते हैं।

निखिल चक्रवर्ती, प्रेम भाटिया और बीजी वर्गीस की तरह ही कुलदीप नैयर पत्रकारों की उस आखिरी जमात का हिस्सा थे जो हमारे गुस्से को अभिव्यक्त करने का आखिरी जरिया थे। वे हमेशा आंखों में एक चमक लिए अपने युवा सहयोगियों की तमतमाहट से भरी बातें धैर्य से सुनते। और जब वे आश्वस्त हो जाते तो नागरिक आजादी को खतरा पहुंचाने वाले विधेयकों और विद्वेषपूर्ण नारों को सर के बल खड़ा कर देते। उन्होंने हमेशा विवादों को सीधे कोर्ट ले जाकर सुलझाने में विश्वास किया। और कितने अविस्मरणीय ढंग से वे राज्य को कोर्ट लेकर गए। न्यायपालिका ने भी कभी उन्हें निराश नहीं किया। दोनों ने मिलकर यह सुनिश्चित किया कि असहमतियों का समाधान कोर्ट में निकाला जाए, ताकि मीडिया, महिलाएं और अल्पसंख्यक समान अधिकार और गरिमा का जीवन व्यतीत कर सकें, और भारत के सारे नागरिक सभ्य होने की बुनियादी शर्तों को पूरा करें।

जैसा कि लक्ष्मण ने रामायण में अहिल्या के बारे में कहा था कि ऐसे साहस, ऐसी गरिमा के सामने सिर झुकाना चाहिए।

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