आवारा पशुओं पर नियंत्रण के बिना लंपी बीमारी पर लगाम लगाना मुमकिन नहीं

दूध न देने वाले और बेकार जानवरों को किसान-पशुपालक खुला छोड़ देते हैं लेकिन पीढ़ियों की सोच के कारण यह नहीं चाहते कि उन्हें बूचड़खाने में पहुंचाया जाए। ऐसे में, छुट्टा घूम रहे जानवर स्वस्थ पशुओं में बीमारी फैला रहे हैं।

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पश्चिमी और उत्तरी भारत में लंपी चर्म रोग (एलएसडी) फैला हुआ है। गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में जानवर बड़ी संख्या में बीमार हो रहे हैं और उनकी मौत हो रही है। इन राज्यों में आवारा पशुओं की संख्या भी उतनी ही बड़ी है। मच्छर, मक्खियों, किलनी या कुटकी (टिक) और जूं या चीलर-जैसे संचालकों के जरिये रोग के वायरस तो फैलते ही हैं, दूध, नाक, आंखों से बहने वाले पानी, सैलाइवा और खून के जरिये बीमार पशुओं में वायरस का स्राव होता है। बीमार पशु अगर उसी पानी और चारे को खाते-पीते हैं जिसे स्वस्थ पशु खा-पी रहे हैं, दोनों किस्म के पशु एक ही किस्म की गंदगी में रहे हैं, तो उनमें बीमारी फैलती ही जाएगी।

जुलाई में बिन मौसम होने वाली भारी बारिश लंपी रोग के तेजी से फैलाव का कारण बनी है। वैसे, वैज्ञानिकों ने इसके साथ ही यह कहा है कि जिन इलाकों में लंपी ज्यादा तेजी से फैला है, वहां आवारा पशुओं की समस्या पहले से ही काफी गंभीर है। दरअसल, ये आवारा पशु स्वतंत्र ढंग से इधर-उधर घूमते-विचरते रहते हैं और ये स्वस्थ पशुओं को भी लगातार बीमार कर दे रहे हैं। समस्या इसलिए भी बढ़ती ही गई है कि पशुपालन करने वाले लोग अपने बीमार पशुओं को भी छुट्टा छोड़ दे रहे हैं जिससे खुले में अनियंत्रित ढंग से घूमते-विचरते बीमार पशुओं की संख्या निरंतर ही बढ़ती जा रही है। उन पशुओं में लंपी होने की ज्यादा आशंका है जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम है।

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वैज्ञानिकों का कहना है कि सड़कों पर भागने-विचरने वाले पशुओं और वैसी गौशालाओं में रहने वाले पशुओं में यह दोष सबसे अधिक है जहां बेकार पशुओं को लगभग ठूसकर रख दिया गया है। यहां वैसे भी उन्हें खाने-पीने के लिए चारा-पानी की गंभीर कमी रहती है और वहां की स्थितियां भी गंदगी वाली रहती हैं। ये आवारा पशु कोई हवा में पैदा नहीं हुए हैं। ये दूध न दे पाने वाले पशु हैं जिन्हें पशुपालकों, किसानों ने सड़कों पर इसलिए छोड़ दिया है क्योंकि इन्हें कोई दूसरा किसान खरीदना नहीम चाहताः या तो इसलिए कि उन्होंने दूध देना छोड़ दिया है या वे किसी काम लायक नहीं रह गए हैं या बीमार हो गए हैं।

इसकी वजह सूखे की हालत भी हो सकती है या उनमें कोई रोग होना हो सकता है जिसने किसानों को इन्हें अपने पास से अलग करने को विवश कर दिया हो। इन राज्यों में पशुओं को बूचड़खाने में भेजने को लेकर कठोर काननू होने की वजह से इन पशुओं का कोई खरीददार नहीं है। इन कानूनों ने अनुत्पादक पशुओं के किसी भी किस्म के व्यापार को नामुमकिन बना दिया है।


आखिर, यह स्थिति केरल और पश्चिम बंगाल में क्यों नहीं है? ऐसा इसलिए है क्योंकि इन राज्यों ने पशुओं की कटाई की अनुमति दी हुई है जिससे व्यापारी वैसे अनुत्पादक पशुओं की खरीद करते हैं जिन्हें कोई अन्य किसान नहीं खरीदेगा। ये पशु काटे जाते हैं और इसके बाद बीफ, चमड़ा और अन्य चीजों का व्यापार होता है।

आजादी के तुरंत बाद 1950 के दशक के शुरुआती वर्षों में उत्तरी और पश्चिमी राज्यों में पशुओं के काटे जाने को लेकर काननू बनाए गए थे। इन राज्यों में कांग्रेस शासन के दौरान 1950 में राजस्थान, 1954 में महाराष्ट्र, गुजरात, यूपी, पंजाब, हरियाणा में 1955 में काननू बने थे। सत्ता में कोई भी पार्टी रही हो, इन कानूनों को दिनों-दिन और कठोर बनाया गया। 2014 के बाद की शासन-व्यवस्था में इन कानूनों में व्यापक संशोधन कर दिए गए और पशुओं को काटने और बीफ खाने को अपराध बनाने के खयाल से पूरे देश में पशुओं को काटने को लेकर समान किस्म के काननू बना दिए गए। इनमें दंड को काफी बढ़ा दिया गया है- यह काम गैरजमानती बना दिया गया है, खुद को निर्दोष साबित करने का दायित्व आरोपी पर है और काटने के लिए ले जाए जाने वाले पशुओं को ढोने और व्यापार के काम को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया है।

इन सबसे ऊपर, बीजेपी-शासित राज्य गौरक्षकों को सक्रिय रूप से प्रोत्साहित करते हैं जो ऐसे मुसलमानों, दलितों और आदिवासियों पर खास तौर से टूट पड़ते हैं जिनके लिए बीफ भोजन का अभिन्न अंग है और जिनके लिए पशु व्यापार और पशुओं को काटना जीवन-यापन का प्रमुख हिस्सा है। इस वजह से इन राज्यों में आवारा पशुओं की संख्या में उत्तरोत्तर बढ़ोतरी हुई है।

भारत की 20वीं पशुगणना के अनुसार, पशुओं की संख्या में हरियाणा में 9 प्रतिशत और राजस्थान में 35 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। यह सड़कों पर और गौशालाओं में पशुओं की संख्या बढ़ने की कहानी कहती है। समाचार रिपोर्ट्स इस बात की पुष्टि करती हैं कि गुस्साए किसान फसल चर रहे ऐसे भूखे पशुओं पर आक्रमण कर रहे हैं जो कभी उनके ही थे लेकिन अब ‘आवारा’ हैं क्योंकि उनकी रक्षा और पूजा की जानी है, उन्हें काटा नहीं जाना है।

हाल में एक दर्दनाक और क्रूर घटना सामने आई जब मध्य प्रदेश में किसानों ने पशुओं से ‘छुटकारा’ पाने के लिए उन्हें बुरी तरह पीटा और उन्हें उफनती नदी में डुबो दिया। पूरी दनिु या में अधिकतर जगह लंपी पर नियंत्रण जल्दी पहचान, बड़े पैमाने पर वैक्सिनेशन, इनके आने-जाने पर कड़े प्रतिबंधों और बीमार पशुओं को काटकर किया गया है। भारत में ‘पशुओं की कटाई न करने’ वाले तर्कहीन और आदर्शवादी रवैये की वजह से यह समस्या बढ़ी है।


पशुओं की संख्या को लचीला और स्वस्थ बनाए रखने के खयाल से किसानों को यह बात खुलकर और ईमानदारी से समझने की जरूरत है कि जिन पशुओं को वे नहीं पाल सकते और जिन्हें कोई नहीं पाल सकता, उनकी कटाई जरूरी है। उन्हें ऐसे अनुत्पादक पशुओं को एक कीमत पर बेचने की व्यवस्था के लिए खुद ही सक्रिय होकर मांग उठानी होगी ताकि वे इन्हें बेचकर स्वस्थ पशु खरीद सकें। उन्हें पशुओं की कटाई पर लगी रोक हटाने और ऐसे आधुनिक बूचड़खाने बनाने का राज्य सरकारों पर दबाव बनाना होगा जहां पशुओं को बिना दर्द काटा जा सके।

दुखद यह है कि पशुपालन करने वाले अधिकतर किसान ऐसा नहीं करने वाले क्योंकि वे ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पाखंड और जाति व्यवस्था में पीढ़ियों से फंसे हुए हैं जिनके जरिये वे इस नैरेटिव को बिना सवाल स्वीकार करते हैं कि गोवध पाप है और बीफ खाना ‘दषिूत’ कर्म है। प्रमुख या उच्च जातियों के किसान मानते हैं कि कथित निचली और हाशिये की जातियां एक बार बेच दिए गए पशुओं की देखभाल करेंगी क्योंकि यह ‘उनकी जाति का काम है।’ यह सोच ही लोगों और पशुओं-दोनों के साथ हिंसा और क्रूरता करने के अलावा अतार्किक काननू बनाने की जड़ में है।

(डॉ. सागरी आर रामदास पशुचिकित्सा वैज्ञानिक हैं और फूड सोवेरेन्टी अलायंस, इंडिया से संबद्ध हैं)

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