मृणाल पांडे का लेखः सिंहासन खाली करो, युवा आता है

देश की युवा पीढ़ी ने देखा है कि चार बरस में गुमसुम आज्ञाकारी बनता देश आज किस तरह विद्रोही तेवरों वाला बन चला है। अब यही युवा तय करेगा कि अगले 5 साल तक भारत का राजनीतिक नक्शा कैसा होगा? इस बार युवा वोट कई नए दरवाजे खोल सकता है और उनको बंद भी कर सकता है।

फोटोः डी डी सेठी
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मृणाल पाण्डे

अब चुनाव आयोग के डाटा के हवाले से खबर है कि 2019 के आम चुनावों में 29 राज्यों में 18 से 22 साल तक की उम्र के वे युवा जो पहली बार मतदान करेंगे 282 लोकसभा सीटों पर प्रत्याशियों के भाग्यविधाता बनेंगे। इस दृष्टि से नव-युवाओं की औसत से बड़ी तादाद वाले राज्य- बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, झारखंड, महाराष्ट्र और राजस्थान की रुझानें नई लोकसभा की शक्ल और नेतृत्व का फैसला करेंगे। संभावना यही है कि उनके मतदान का आधार क्षेत्रीय हित-स्वार्थों के डायनामिक्स- रोटी, कपड़ा, मकान, रोजगार के जमीनी पैमानों पर टिका होगा। किसी राष्ट्रीय मुद्दे या ‘दार्शनिक’ विजन पर नहीं।

आमतौर पर उन्नत देशों में उच्च शिक्षा परिसर युवाओं का रुझान मापने का जरिया होते हैं। पर हमारे यहां उन परिसरों तक अधिकतर युवा अभी नहीं पहुंच पा रहे हैं, जहां भारत माता के अनेक स्वघोषित पुत्रों के कुछ जनूनी जत्थे चेन्नै, हैदराबाद से लेकर दिल्ली और इलाहाबाद तक विश्वविद्यालयीन परिसरों में एक खास तरह की स्क्रिप्ट ले आए हैं। राजनीतिक-सामाजिक असहिष्णुता में वृद्धि या सनातनी जाति व्यवस्था जैसे विषयों पर खुली चर्चा शुरू हुई नहीं कि वे ‘भारत माता की जय’ के उग्र नारे लगाते हुए तमाम असहमति जताने वालों को कम्युनिस्ट, देशद्रोही और भारत माता के विरोधी करार देते हुए माहौल को हिंसक बना देते हैं।

पढ़ाई-लिखाई से उनको खास वास्ता नहीं। पर वे जानते हैं कि बात हाथापाई पर उतार दी गई, तो राष्ट्रवाद या देशभक्ति पर पढ़े-लिखे दिमागों के बीच कोई तर्कशील विमर्श असंभव बन जाएगा। दूसरी तरफ वे युवा हैं जो सरकारी स्कूलों से निकले हैं। उनमें से अधिकतर गरीबी की वजह से यूनिवर्सिटी जा नहीं सकते या फिर लद्धढ़ पढ़ाई की वजह से अच्छे विश्वविद्यालय की बजाय लोन लेकर या जमीन बिकवा कर निजी शिक्षा संस्थानों में आ जाते हैं जिनके कैंपस उनको प्लेसमेंट दिलवा दें। बेरोजगारी का मुंह है कि सुरसाकार बनता जा रहा है। सरकारी या निजी क्षेत्र की नौकरियों के साक्षात्कारों में अक्सर अर्हताहीन पाए गए ये दोनों ही वर्ग ठगा महसूस करते हैं।

इस पीढ़ी की नब्ज सत्तारूढ़ पार्टी जानती है, इसलिए उसकी हरचंद कोशिश है कि छीजती किसानी, घटती उत्पादकता और बढ़ती बेरोजगारी जैसे मुद्दे उठाकर इन युवाओं का मनोबल न गिराया जाए। आंकड़ों से वे देश को तेज रफ्तार तरक्की करता दिखा रहे हैं और बीच-बीच में कुछ अनाम से पुरस्कारों से नवाजे जाकर विदेशों में भी अराजक हंगामे भरे भारत की आर्थिक तरक्की की श्रेष्ठता स्थापित करने का सेहरा बंधवा ले रहे हैं।

दो विश्वयुद्धों और स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े खुद अपने लंबे निजी अनुभव और शोध से संविधान निर्माताओं ने भली तरह जान लिया था, कि श्वेत चमड़ी को श्रेष्ठतर मानने वालों की गढ़ी पश्चिमी लोकतांत्रिक राष्ट्र-राज्य की तस्वीर, जमीन पर उतर कर कई बार बाहर से लाए या बुलाए गए अश्वेत अल्पसंख्य समुदायों, जातीय गुटों के प्रति काफी आक्रामक और असहिष्णु बन जाती है। सैकड़ों साल बाद भी उसमें अन्य मूलों के लोगों को विजातीय मानने के फासीवादी बीज छुपे रहते हैं। और वे आर्थिक या दूसरी तरह की घरेलू असुरक्षा के क्षणों में अचानक बाहर आकर सत्ता को अन्य जातीय गुटों के विरोध में लामबंद करने लगते हैं।

आज बालाकोट के हवाले से भारत माता की रक्षा के नाम पर सेना की एक धर्मविशेष की प्रतीकात्मकता लिए हुए छवि को धर्मनिरपेक्ष मानी गई सेना की पहचान बनाया जा रहा है। लेखक और पत्रकार ही नहीं, सेना के अनुभवी सेवानिवृत्त जनरल तक इस तरह युद्ध को एक जनूनी धार्मिक उत्सव बनाने के विरोध में अपनी आवाज उठा रहे हैं। पर जवाब में बातचीत की बजाय सोशल मीडिया तथा चुनावी रैलियों में धमकियों, गालियों का सिलसिला चिंताजनक है। सालों की मेहनत से रचे गए उदारतामूलक और खुली वार्ता-विमर्श से लोकतांत्रिक मन वाले नागरिक तैयार किए गए हैं। अब चुनावी स्वार्थों की तहत उनकी युवा पीढ़ी को चुनावी राजनीति के कड़वाहट भरे पहरुए बनाने में किस का भला है?

क्या यह अजीब नहीं कि देश में पिछले पांच बरसों में लाखों किसानों और तकनीकी शिक्षा के उच्च केंद्रों तथा ट्यूशन की संस्थाओं के सैकड़ों छात्रों ने भविष्य को अंधेरा मानकर आत्महत्या कर ली। उनकी अकाल मौतों को लेकर शहरी या ग्रामीण युवा सड़क पर नहीं उतरे, लेकिन जब जातिगत आरक्षण और गोकशी पर रोक की आग भड़काई गई, तो उनके जत्थे के जत्थे डंडे-तलवारें लेकर सड़कों पर उमड़ आए।

इस युवा भीड़ ने खून का स्वाद चख लिया है। और वह चीते की तरह खूंखार हो रही है। उसे इसकी आदत सुनियोजित तरीके से डाली गई है। जंगल का जो कानून उनके बहुसंख्य परस्त अथवा (कश्मीर या पूर्वोत्तर में) अल्पसंख्य परस्त बड़ों ने उनके चारों तरफ रचा है उसे ही वे आगे बढ़ा रहे हैं। और इस तरह हमारा लोकतंत्र लगातार एक मुखापेक्षी और केंद्रीकृत बन रहा है जहां महान नेता युवाओं से इकतरफा बातचीत और हास-परिहास करते हैं, उनको सफल खिलाड़ी, सफल बाबू, सफल परीक्षार्थी योद्धा बनने के गुर देते हैं, बिना यह पूछे कि युवा खुद क्या चाहते हैं? उनके अपने मनों में क्या सवाल, क्या शंकाएं कुलबुला रही हैं?

दंगाई युवाओं को लेकर सरकार का रुख अजीब है। अगर वे उनकी विचारधारा के हुए, तो वह गलती करने पर भी उनको भीतर ले जाकर पुचकारती है। बाहर निकल कर उनका मनोविश्लेषण कर उनकी शिक्षा व्यवस्था, उनके शिक्षकों को दोष देती है। दूसरी तरफ वह पुलिस से यह भी कहती है कि वह सरकार पर सवालिया निशान लगाने की जुर्रत कर रहे छात्रों को गिरफ्तार कर थाने ले जाए और उन पर ऐसी धाराओं में केस दर्ज करे, जिनका बाद में कोई कानूनी आधार नहीं बनता और कुछ दिन बाद वे तनिक सूजा चेहरा और फटे कपड़ों में जेल से छूट जाते हैं।

बेचारी पुलिस न तो शिक्षा व्यवस्था बदल सकती है, न ही युवाओं की मनोवैज्ञानिक चिकित्सा कर उनको दक्षिणपंथी बना सकती है। गाड़ी ढाल पर ढकेलते हैं नेता और पुलिस दस्तों से उम्मीद की जाती है कि वे लुढ़कती गाड़ी से इस तरह निपट लें कि वह गड्ढे में न गिरे, न उस पर खरोंच आए।

मतदान की पूर्व संध्या पर युवाओं के भीतर यह छटपटाहट किसी गहरी मनोवैज्ञानिक वजह से नहीं उमड़ रही है। वह इसलिए हो रही है कि उनकी स्थाई तकलीफें- बेरोजगारी, शिक्षण संस्थाओं की कमी, सरकारी शिक्षा प्रणाली में लगातार सरकारी दखलंदाजी से उसका कबाड़ीकरण बड़ी चुनावी रैलियों में कांटे का मुद्दा बनकर नहीं उभर रहा है। कश्मीर या पूर्वोत्तर छोड़ भी दें, तो भी तीन तलाक, सबरीमला मंदिर प्रवेश, सीबीआई की उठापटक, हथियारों की खरीद के कथित घोटाले सामने लाने-छिपाने में व्यस्त सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों उनको खुद अपने परिप्रेक्ष्य में उदासीन दिख रहे हैं। जब बड़े मर्यादाओं का दामन छोड़ दें, तो भी युवाओं की मर्यादा कायम रहेगी, यह मानना एक भोला सपना ही तो है।

फिर भी युवा वोट ही इस बार तय करेगा कि अगले 5 सालों तक भारत का राजनीतिक नक्शा कैसा होगा? इस पीढ़ी ने देखा है कि किस तरह चार बरस तक गुमसुम आज्ञाकारी बनता गया देश आज किस तरह विद्रोही तेवरों वाला बन चला है। कायर या प्रलापी? उनका मूल व्यक्तित्व क्या है? या दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं? युवा वोट कई नए दरवाजे खोल सकता है और उनको बंद भी कर सकता है। उसका वोट न देना भी एक तरह का वोट ही होगा, क्योंकि नतीजे उसे भी अपने बहुआलोचित माता-पिताओं के साथ झेलने ही होंगे। बेहतर हो कि वह अकर्म से दुनिया को बदतर बनाने की बजाय सकर्मक तरीके से अपनी सदी के भारत का नया चेहरा गढ़ना और उसमें छुपे खतरों से जूझना शुरू करे।

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