खतरनाक स्तर तक पहुंचा सोशल मीडिया पर झूठ और अफवाह, ये पूरी दुनिया के लिए एक बड़ा खतरा

सोशल मीडिया पर झूठ और अफवाह एक खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है। यह अंतर्राष्ट्रीय शान्ति के लिए खतरा है, लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए खतरा है, पृथ्वी के लिए खतरा है और जन-स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा है।

फोटोः IANS
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महेन्द्र पांडे

सोशल मीडिया के दौर में झूठी खबरों या फिर अफवाहों पर लगाम लगाना असंभव हो चला है। हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि झूठी खबरों का विस्तार अधिक आबादी में और अधिक तेजी से होने लगा है। यूनिवर्सिटी ऑफ़ वाशिंगटन के वैज्ञानिक कार्ल बेर्ग्स्तोम विज्ञान के क्षेत्र में झूठ और अफवाहों के विस्तार के विशेषज्ञ माने जाते हैं। उनके अनुसार सोशल मीडिया मनोविज्ञान की एक वैश्विक प्रयोगशाला है जहां रियल-टाइम प्रयोग किये जाते हैं और यदि आप अपने मस्तिष्क को लेकर जागरूक नहीं हैं तब निश्चय ही सोशल मीडिया आपको मानसिक तौर पर अपना गुलाम बनाने में सक्षम है। उन्होंने वर्ष 2021 में प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल अकैडमी ऑफ़ साइंसेज में प्रकाशित एक शोधपत्र में कहा था कि सोशल मीडिया पर झूठ और अफवाह एक खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है– यह अंतर्राष्ट्रीय शान्ति के लिए खतरा है, लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए खतरा है, पृथ्वी के लिए खतरा है और जन-स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा है।

कार्ल बेर्ग्स्तोम के अनुसार वर्ष 2018 और 2019 में अमेरिका में भविष्य की काल्पनिक महामारी से मुकाबले को लेकर गहन चर्चा की गयी थी, और इसमें अनेकों विशेषज्ञों ने हिस्सा लिया था। सबने भविष्य की चुनौतियों पर गहन चर्चा की, पर तब किसी ने भी ये नहीं बताया था को महामारी के दौर में झूठ और अफवाह भी बड़े स्तर पर महामारी के विस्तार में सहायक हो सकते हैं। पर, जब कोविड 19 का दौर आया तब सारी चर्चा बेकार हो गयी और सोशल मीडिया पर झूठ और अफवाह सबसे बड़ा मुद्दा बन गया। वैक्सीन के बारे में वैज्ञानिकों और सरकारों के तमाम दावों के बीच सोशल मीडिया पर प्रसारित इससे सम्बंधित अफवाह पर लोगों ने अधिक भरोसा किया। इस अफवाह का आलम यह है कि अमेरिका में लगभग एक-चौथाई लोगों ने वैक्सीन ली ही नहीं और कनाडा में ट्रक चालकों की हड़ताल भी टीके के विरुद्ध दुष्प्रचार के कारण हुई। अधिकतर यूरोपीय और दक्षिणी अमेरिका के देशों में अमेरिका जैसी स्थिति ही है। कई देशों में टीके के विरुद्ध दुष्प्रचार का आलम यह था कि टीके के विरुद्ध जनता सडकों पर उतर गयी थी और हिंसक प्रदर्शन भी किये गए थे। कुछ अध्ययनों में बताया गया था कि फेसबुक पर केवल 12 लोगों ने कोविड 19 से जुडी 73 प्रतिशत अफवाहें फैलाईं थीं, पर फेसबुक ने इनमें से किसी को भी ब्लाक नहीं किया।


कोविड 19 के दौर में जहां वैज्ञानिक इसके तथ्यों को जनता के सामने ला रहे थे वहीं सोशल मीडिया इससे सम्बंधित अफवाहों से भरा पड़ा था। दुनिया के अनेक शासक, जिसमें अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प, ब्राज़ील के राष्ट्रपति बोल्सेनारो और हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रमुख थे, जाहिर है जनता का एक बड़ा तबका अफवाहों को ही सच मानता है और ऐसे दौर में अफवाहों को सच मानने वाले कोविड 19 का सच उजागर करने वाले वैज्ञानिकों, लेखकों और पत्रकारों पर हमले कर रहे थे। जेनेवा स्थित इन्सेक्युरिटी इनसाइट्स नामक संस्था के अनुसार दुनिया में पिछले दो वर्षों के दौरान 517 ऐसे वैज्ञानिकों पर शारीरिक हमले किये गए जो कोविड 19 पर अनुसंधान कर रहे थे, या फिर नए अनुसंधानों की जानकारी मीडिया में उपलब्ध करा रहे थे। इनमें से 10 वैज्ञानिक मारे गए, 24 का अपहरण किया गया और 59 गंभीर तरीके से घायल हुए।

प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका, साइंस, के संपादकों ने दुनिया के 9585 ऐसे वैज्ञानिकों से अपने अनुभव साझा करने को कहा था, जिनके कोविड 19 से सम्बंधिर शोधपत्र प्रकाशित किये गए हैं। इनमें से 510 वैज्ञानिकों ने अपने अनुभव साझा किये। इसमें से 38 प्रतिशत वैज्ञानिकों के अनुसार उन्हें समाज में प्रताड़ित किया गया – इसमें शारीरिक हिंसा, हिंसक अपशब्द, सोशल मीडिया पर ट्रोल और धमकिया–सभी शामिल हैं।


अमेरिकन जर्नल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित एक लेख के अनुसार अमेरिका में कोविड 19 पर अनुसंधान या वैज्ञानिक तथ्यों को मीडिया के समक्ष प्रस्तुत करने वाले 583 वैज्ञानिकों में से 57 प्रतिशत को प्रताड़ना झेलनी पड़ी। वैज्ञानिक पत्रिका, नेचर, में प्रकाशित एक लेख के अनुसार दुनिया में कोविड 19 पर काम कर रहे 321 वैज्ञानिकों के सर्वेक्षण का निष्कर्ष है कि इनमें से 81 प्रतिशत अनेकों तरह की प्रताड़ना का शिकार हुए।

केंट स्टेट यूनिवर्सिटी की एपिडेमिओलोजिस्त तरु स्मिथ के अनुसार राजनेताओ द्वारा जिन वैज्ञानिक मुद्दों पर चर्चा की जाती है, यदि ऐसे विषयों पर किसी वैज्ञानिक का शोध राजनैतिक विचारधारा से मेल नहीं खाता तब ऐसे वैज्ञानिकों की प्रताड़ना की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। ऐसे मानव विकास, एचआईवी-एड्स और जलवायु परिवर्तन के मामलों में भी देखा गया है। पर, कोविड 19 के साथ दिक्कत यह थी कि पूरी दुनिया में ही यह विशुद्ध तौर पर राजनैतिक मसला ही रहा, जाहिर है इस दौर में वैज्ञानिकों की प्रताड़ना भी बढ़ी। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में इतिहासकार, रूथ बेन-घिअत, के अनुसार वैज्ञानिकों पर हमले की घटनाएं निरंकुश शासन के दौरान बढ़ जाती हैं और इस दौर में पूरी दुनिया में ही निरंकुश शासक सत्ता पर काबिज हैं।

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