औरंगजेब की कब्र को लेकर हड़बोंग मचाने वाले इतिहास से कुछ तो सबक लेते!
औरंगजेब की कब्र को लेकर जो हो-हल्ला मचाया जा रहा है, उससे लगता है कि इतिहास बदलने का वादा करके आए आरएसएस के सत्ताधीशों ने स्वीकार लिया है कि वह ऐसा नहीं कर सकते, इसीलिए इतिहास को बदलने के बजाय उसे दोहराने में लगे हैं।

महाराष्ट्र के औरंगाबाद (अब छत्रपति संभाजी नगर) जिले में खुल्दाबाद स्थित मुगल बादशाह औरंगजेब की भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित कब्र को लेकर जैसा हड़बोंग मचाया जा रहा है, उससे लगता है कि इतिहास बदलने का वादा करके आए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार के सत्ताधीशों ने वह वादा निभाने में अपनी असमर्थता स्वीकार कर ली है। इसीलिए इतिहास को बदलने के बजाय तेजी से उसको दोहराने में लगे हैं।
तोड़-फोड़ या ध्वंस का इतिहास दोहराना उन्हें कितना रास आता है, उत्तर प्रदेश में अपनी कल्याण सिंह सरकार के दौरान 6 दिसम्बर,1992 को सत्ता के बल और दल सहित अयोध्या की ऐतिहासिक महत्व की बाबरी मस्जिद ढहाकर वे बखूबी जता चुके हैं। उसे ढहाते वक्त भी उन्हें भ्रम था कि देश के संविधान की सर्वथा अवहेलना का उनका यह कृत्य उसके इतिहास को बदलकर रख देने वाला है।
लेकिन जैसा कि हिंदी के बड़े कवि नरेश सक्सेना अपनी 'छ: दिसम्बर' शीर्षक कविता में जता चुके हैं, अंततः वह इतिहास का बदलाव नहीं, दोहराव ही सिद्ध हुआ :
इतिहास के बहुत से भ्रमों में से
एक यह भी है
कि महमूद ग़ज़नवी लौट गया था
लौटा नहीं था वह
यहीं था
सैकड़ों बरस बाद
अचानक
वह प्रकट हुआ अयोध्या में।
सोमनाथ में उसने किया था
अल्लाह का काम तमाम
इस बार उसका नारा था
जय श्रीराम।
इतिहास का अनादर
बाद में बाबरी से जुड़े विवाद के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह माना कि इतिहास में यह जताने वाला कोई साक्ष्य नहीं कि बाबरी मस्जिद राम मंदिर तोड़कर उसकी जगह बनाई गई थी, उससे उसका ध्वंस इतिहास का दोहराव भी नहीं रह गया, इतिहास के जानबूझकर किये गये गंभीर अनादर के रूप में ही परिभाषित हुआ।
यहां समझ लेना चाहिए कि ऐसे किसी भी ध्वंस की मार्फत इतिहास को बदलने या मिटाने की बात सोचना किसी हिमाकत से कम नहीं होता। क्योंकि ध्वंसों की मार्फत भले ही इतिहास में छोटी या बड़ी कोई नई कड़ी जोड़ी जा सकती हो, उससे पहले के इतिहास को कतई मिटाया या बदला नहीं जा सकता। न अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ढहाने से उसका पूर्ववर्ती इतिहास मिटा, न मार्च, 2001 में अफगानिस्तान के बामियान में स्थित गौतम बुद्ध की विशाल प्रतिमाओं को तोड़कर तालिबान उनका इतिहास मिटा पाया।
इसी तरह अंग्रेजों ने बहुत कोशिश की कि वे हमारे 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम को इतिहास में स्वतंत्रता संग्राम के रूप में दर्ज होने से रोककर किसी और रूप में दर्ज करा दें, लेकिन नहीं कर पाये। क्योंकि इतिहास की गति पर किसी का वश नहीं चलता। उससे सबक जरूर लिया जा सकता है, लेकिन बदला नहीं जा सकता।
बदला तो वास्तव में भविष्य को ही जा सकता है। आजादी के बाद समता पर आधारित संविधान का शासन स्वीकार कर हमने एक देश के तौर पर अपने भविष्य को बदलने की कोशिश की तो भी वह त्रासद इतिहास नहीं ही बदला, जब मनुस्मृति आधारित शासन व्यवस्था में देश की बड़ी आबादी को शूद्र व अछूत आदि करार देकर कुत्ते बिल्लियों से भी बुरे हाल में रखा जाता था।
1917 में रूस की जिस कम्युनिस्ट क्रांति ने दुनिया को चकित करते हुए सोवियत संघ को अस्तित्व प्रदान किया था, उसके विफल होकर सोवियत संघ के विघटन तक पहुंच जाने के बावजूद उसके होने का इतिहास पूरी तरह सही-सलामत है। अलबत्ता, उसमें उसकी विफलता का इतिहास भी जुड़ गया है।
जाहिर है कि ध्वंसों का भी इतिहास होता है और इतिहास को बदलने के बजाय नया इतिहास बनाने में लगा जाये तो बनाया जा सकता है। लेकिन नया इतिहास बनाना जहां बहुत श्रमसाध्य होता है, वही उसके अनादर और दोहराव की फितरतें शरारतों का-सा मजा देती हैं और ऐसा लगता है कि संघ परिवारी आजकल इस मजे के लती हो गये हैं।
जहां तक इतिहास के अनादर की बात है, संघ परिवार को वह इसलिए भी बहुत रुचता है कि इस देश में (कई दूसरी चीजों की तरह) इतिहास रचना भी मूलतः उन मुसलमानों की ही देन है, जिन्हें यह परिवार सारी खुराफातों की जड़ मानता है।
प्रतिष्ठित चिंतक/लेखक जगदीश्वर चतुर्वेदी ने लिखा है :
भारत में मुग़लों के आने के पहले इतिहास लेखन की परंपरा नहीं थी। आरएसएस के लोग मुसलमानों को बर्बर और हिन्दू विरोधी प्रचारित करने के चक्कर में यह भूल ही गए कि मुसलमानों के आने के बाद ही भारत में इतिहास लिखने की परंपरा का श्रीगणेश हुआ है। मुग़लों के आने के पहले हिन्दुओं में सांसारिक घटनाओं और दैनंदिन ज़िंदगी की घटनाओं का इतिहास लिखने की प्रवृत्ति नहीं थी। हिन्दुओं के लिए तो संसार माया था और माया का ब्यौरा कौन रखे! मुसलमानों को इसका श्रेय जाता है कि हमने उनसे इतिहास लिखना सीखा। मुग़लों के आने के पहले हिन्दू समाज में दैनंदिन जीवन में क्या घटा और कैसे घटा इसका हिसाब रखना समय का अपव्यय माना जाता था। यही वजह है कि मुग़लों के आने के पहले कभी किसी व्यक्ति ने इतिहास नहीं लिखा। कुछ राज प्रशस्तियाँ या अतिरंजित वर्णन जरूर मिलते हैं। लेकिन उनमें तिथियों का कोई कालक्रम नहीं है।
इसके बावजूद विडम्बना यह कि संघ परिवार को इस देश में मुगलों या मुसलमानों के इतिहास से ही सबसे ज्यादा समस्या है। तभी तो वह उनके इतिहास में औरंगजेब की 'क्रूरता' को छोड़कर कुछ भी याद नहीं रखना चाहता।
इस सिलसिले में 'इतिहास के साथ यह अन्याय' शीर्षक अपनी पुस्तक में प्रो. बी.एन. पांडेय (जो उड़ीसा के राज्यपाल और राज्यसभा के सदस्य रहे हैं) ने एक शे'र उद्धृत किया है :
तुम्हें ले-दे के सारी दास्तां में याद है इतना।
कि औरंगज़ेब हिन्दू-कुश था, ज़ालिम था, सितमगर था।।
उन्होंने कई उदाहरण देकर सिद्ध किया है कि औरंगज़ेब को इस तरह क्रूर शासक के रूप में याद करना सही नहीं है। क्योंकि बतौर बादशाह वह उन अर्थों में कतई 'हिंदूकुश, जालिम और सितमगर' नहीं था, जिनमें संघ परिवारी उसे वैसा ठहराना चाहते हैं। अकारण नहीं कि महात्मा गांधी अपने 'हिन्द स्वराज' और 'यंग इंडिया' में ही नहीं, अपने भाषण में भी सादगी व ईमानदारी समेत कई नैतिकताओं व मान्यताओं के लिए उसकी प्रशंसा कर गये हैं।
साम्राज्य प्राप्ति और विस्तार में क्रूरता
हां, साम्राज्य पाने और उसका विस्तार करने की प्रतिद्वंद्विता में वह अपने प्रतिद्वंद्वियों के ही नहीं, भाई दारा शिकोह तक के प्रति क्रूरता की सारी सीमाएं तोड़ता दिखाई देता है। प्रतिद्वंद्वी मराठा शासक उसकी इस 'क्रूरता' को, आज के तुच्छ राजनीतिक लाभ के लिए उसकी कब्र को तोड़ने या हटाने की बात करने वालों से बेहतर ढंग से समझते थे। इसलिए उन्होंने न सिर्फ उसकी कब्र बल्कि मुगलों द्वारा निर्मित दूसरे स्मारकों के ध्वंस या अवमानना पर कभी विचार तक नहीं किया।
छत्रपति शिवाजी के पोते छत्रपति शाहू प्रथम तो, जो शिवाजी द्वारा स्थापित मराठा साम्राज्य के पांचवें शासक थे, अपने वक्त में औरंगजेब की कब्र पर भी गये थे। यह भूलकर कि उसने 1689 में उनके पिता संभाजी महाराज को फांसी पर लटकाया और खुद उनको कैद में डाल दिया था।
1707 में औरंगजेब की मौत के कुछ समय बाद उनकी रिहाई हुई और वे मराठा शासक बने तो उसकी कब्र पर उसे श्रद्धांजलि देने गए। जानकारों के अनुसार वी जी खोबरेकर की लिखी 'मराठा कालखंड' और रिचर्ड ईटन की लिखी 'ए सोशल हिस्ट्री ऑफ द डेक्कन' आदि पुस्तकों में उनकी इस कब्र यात्रा का ज़िक्र है।
यहां उल्लेखनीय है कि मराठों और मुगलों की तमाम दुश्मनी के बावजूद मराठों के शासन में उक्त कब्र को क्षति पहुंचाने की कोई कोशिश नहीं हुई, जो मराठों के 'गौरव' के नाम पर आज की जा रही है।
इसके विपरीत मराठा शासकों ने अपनी सीमाओं में स्थित मस्जिदों समेत कई मुगल इमारतों को संरक्षित किया। यह तब था, जब मराठे युद्धों के दौरान मुगलों की शाही इमारतों में लूटपाट का कोई भी अवसर हाथ से कतई जाने नहीं देते थे।
छत्रपति शिवाजी (19 फरवरी, 1630- 03 अप्रैल,1680) ने तो महाराष्ट्र में सतारा के पास प्रतापगढ़ में स्वयं अफजल खान (जो धोखे से मिलने के लिए बुलाकर उनकी हत्या करना चाहता था और इस कोशिश में उनके बघनख के वार से खुद मारा गया) का मकबरा बनवाया था। एक बार कुछ उन्मादियों ने उसको तोड़ना चाहा तो वे यह जानकर चकित रह गये कि उसका निर्माण तो स्वयं शिवाजी ने ही करवाया था।
कोई तो ले कोई सबक
सोचिये जरा कि शिवाजी अपनी हत्या करने आये अफजल खान का मकबरा बनवा गये हैं और अब उनके साम्राज्य की अस्मिता के नाम पर मुगलद्रोही या कि मुस्लिमद्रोही अभियान चलाया जा रहा है तो यह याद रखने की जरूरत भी नहीं समझी जा रही कि शिवाजी के दादा मालोजीराव भोसले ने शाह शरीफ नाम के सूफी संत के सम्मान में अपने बेटों के नाम शाहजी और शरीफजी रखे थे, जबकि शिवाजी ने स्वयं अपनी राजधानी रायगढ़ में अपने महल के पास हिन्दू धर्मावलम्बियों के लिए मन्दिर बनवाया तो इस्लाम के अनुयायियों के लिए मस्जिद भी बनवाई थी।
औरंगजेब से मराठों का संघर्ष भी दो साम्राज्यों का संघर्ष था, दो धर्मों का नहीं। इस बात को शिवाजी द्वारा औरंगजेब को समय-समय पर लिखे गये पत्रों से भी समझा जा सकता है। उन दोनों की सेनाओं में भी उनके लिए अपनी जान की बाजी लगा देने वाले दूसरे धर्मों के अनेक अनुयायी निर्णायक पदों पर नियुक्त थे। इतना ही नहीं, अपने साम्राज्य की सीमाओं के विस्तार के लिए वे अपने धर्म के अनुयायी राजाओं से भी उसी तरह लड़ते थे जैसे अन्य धर्मों के अनुयायी राजाओं से।
शिवाजी की थलसेना व जलसेना में एक तिहाई मुस्लिम सैनिक थे। नौसेना और तोपखाने की तो कमान भी मुसलमान योद्धाओं के हाथ थी। औरंगजेब ने उन्हें आगरा के किले में नजरबंद कर रखा था तो उनके वहां से निकल भागने में सबसे ज्यादा मदद मदारी मेहतर नाम के मुसलमान ने की थी। इसी तरह उनके गुप्तचर मामलों के सलाहकार मौलाना हैदर अली थे और अफजल द्वारा उनकी हत्या के प्रयास से उन्हें आगाह भी रुस्तम-ए-जहां नामक एक मुसलमान ने ही किया था।
जानकारों के अनुसार शिवाजी जब भी किसी राज्य पर आक्रमण करते तो सैनिकों को साफ-साफ कह देते थे कि वे किसी भी स्थिति में महिलाओं, बच्चों, धर्मस्थलों व धर्मग्रंथों को कोई नुकसान न पहुंचायें। वे किसी भी धर्म से सम्बन्धित क्यों न हों। इतिहासकारों ने लिखा है कि एक बार उनके सैनिक लूट के माल के साथ बसाई के नवाब की खूबसूरत बहू को भी उठा लाये तो उन्होंने पहले अपने सैनिकों की ओर से उससे माफी मांगी, फिर ससम्मान उसके महल वापस पहुंचवा दिया था।
यहां यह जानना भी दिलचस्प है कि मराठा साम्राज्य की स्थापना के सिलसिले में कोई साढे तीन शताब्दी पहले 6 जून, 1674 को उनका राज्याभिषेक हुआ तो उन्हें मुसलमानों के नहीं, हिंदू जाति व्यवस्था के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा था। 1630 में 19 फरवरी को कुसूर के शिवनेरी फोर्ट में माता जीजाबाई और पिता शाहजी भोंसले की संतान केे रूप में जन्मे शिवाजी के कुलगोत्र को लेकर संशय के शिकार स्थानीय रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने इसके चलते उनका राज्याभिषेक कराने से मना कर दिया था। तब इसके लिए विशेष दूत भेजकर बनारस से पंडित गंगभट्ट को बुलाया गया था, जिन्होंने वैदिक रीति से राज्याभिषेक सम्पन्न कराया और मंत्रध्वनि के बीच उन्हें राजा की वेशभूषा पहनवाई थी। इससे पहले कई मराठा सामंत भी, हिंदू होने के बावजूद, उनको राजा या महाराज नहीं मानते थे।
ऐसा नहीं कि औरंगज़ेब की क़ब्र को लेकर राई का पहाड़ करने पर आमादा संघ परिवार यह सब बातें जानता या समझता नहीं हो। लेकिन वह क्या करे, अयोध्या के रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवाद के समाधान के बाद उसके लिए फिलहाल, वहां कोई 'रस' नहीं रह गया है और अपने मुस्लिम विरोधी एजेंडे के लिए उसको 'नई संभावनाओं' से भरी नयी अयोध्या की तलाश है। वह काशी में मिले, मथुरा में, संभल में, खुल्दाबाद में या अन्यत्र। बहाना औरंगजेब हो या कुछ और, सारे मुसलमानों को उससे जोड़कर उनसे बदला लेने के उसके उद्देश्य में सहायक होना चाहिए।
अयोध्या में परम्परा से चले आ रहे 'जय सीताराम' के अभिवादन को उसने 'जय श्री राम' के आक्रामक नारे में यों ही नहीं बदला है। अब, जब वे उसे 'एक ही नारा एक ही नाम, जय श्रीराम, जय श्रीराम' तक पहुंचाकर हमलों और हत्याओं की पुकार बनाने में सफल हो गये हैं और सत्ता पर भी काबिज हैं, उनके मंसूबे आसमान क्यों नहीं छूना चाहेंगे? और क्यों नहीं, उनके मुकाबले देश का सामूहिक सामाजिक विवेक एक बार फिर कड़ी परीक्षा से गुजरने को विवश होगा?
अरसा पहले ऐसी ही परीक्षा के वक्त वाराणसी (जो अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का निर्वाचन क्षेत्र है) के अलबेले शायर नज़ीर बनारसी ने 'हिंदू-मुसलमान' करने वालों से पूछा था कि तुम क्या करोगे भाई, हमने तो गंगा के जल से वजू करके नमाज़ें भी पढ़ी हैं और उसका जल भी पिया है और वह हमारे शरीर के रक्त में भी शामिल है।
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