गांधी 150: बापू को सिर्फ ‘गांधीवाद’ में कैद करना सर्वथा अनुचित

अपने चौड़े कंधों पर विफलता को उठाए गांधी की विरासत एक धर्मनिरपेक्ष और समतावादी नैतिकता के लिए प्रयास करना जारी रखेगी। उम्मीद करनी चाहिए कि यह विरासत देश में बहुलवाद को मजबूत करने के लिए नई पीढ़ी का मार्गदर्शन करती रहेगी।

फोटो : सोशल मीडिया
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गोपाल कृष्ण गांधी

पूरी दुनिया गांधी मार्ग के जरिए रास्ता तलाश रही है। लेकिन, अपने ही देश में लोकतंत्र पर जिस तरह से खतरे बढ़ते जा रहे हैं, उसमें महात्मा गांधी के संदेश पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। हमने अपने साप्ताहिक समाचार पत्र संडे नवजीवन के दो अंक गांधी जी पर केंद्रित करने का निर्णय लिया। इसी तरह नवजीवन वेबसाइट भी अगले दो सप्ताह तक गांधी जी के विचारों, उनके काम और गांधी जी के मूल्यों से संबंधित लेखों को प्रस्तुत करेगी। इसी कड़ी में हम आज प्रस्तुत कर रहे हैं महात्मा गांधी के पौत्र और बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी का लेख। इस लेख में वे बता रहे हैं कि बापू की जो सबसे बड़ी ताकत थी, वही उनकी कमजोरी भी थी।किसी व्यक्ति के साथ उनका संपर्क विश्वास के आधार पर होता था। इसी कारण कई बार उन्होंने अपने भरोसे को टूटते भी देखा।

मोहनदास करमचंद गांधी असाधारण थे, लेकिन गलतियों से परे नहीं। उनकी प्रशंसा करना, उनसे सीखना बुद्धिमानी है, लेकिन उन्हें कल्ट बना देना अनुचित। ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं कि वह गलतियों से परे नहीं थे और कई बार गलतियां कीं, बल्कि इसलिए कि कोई भी कल्ट दोषमुक्त नहीं। यह व्यक्ति को देवता बनाकर उसे इंसान से दूर कर देता है। किसी व्यक्ति को देवता बना देना और उसके विचारों को ‘वाद’ में तब्दील कर देना उन्हें निर्जीव पत्थर बना देने जैसा है। गांधी ने खुद कहा था “गांधीवाद जैसी कोई चीज नहीं है और मैं अपने बाद ऐसा कोई पंथ नहीं छोड़ना चाहता।”

जॉर्ज ऑरवेल ने गांधी की गलतियों पर लिखा, “ कुछ सिगरेट, मांस से भरे चंद निवाले, बचपन में नौकरानी के पैसे चुरा लेना, दो बार वेश्यालय जाना (दोनों बार वह ‘बिना कुछ किए’ आ गए), एक बार आपा खो बैठना- उनकी गलतियों का यही तो संग्रह है।” ऑरवेल ने गांधी के जीवन के बेबाक विश्लेषण (द पार्टीसन रिव्यू, जनवरी 1949) में प्रासंगिक सवाल पूछा। क्या ब्रिटिश राज के खिलाफ काम करने वाली गांधी की पद्धति हिटलर और स्टालिन की अगुवाई वाली व्यवस्थाओं के खिलाफ भी काम करती? जवाब खोजने का काम पाठकों पर छोड़ते हुए ओरवेल ने कहा- यह गांधी ही थे जिन्होंने “बिना घृणा संघर्ष बनाए रखा” और इस तरह, “राजनीतिक हवा को दूषित” नहीं होने दिया। इसी का नतीजा था कि अंग्रेजी राज खत्म होने पर भी भारत-इंग्लैंड रिश्ते खतरे में नहीं आए।

वह इन शब्दों के साथ अपना लेख खत्म करते हैं: “...उन्हें संत बताने को कोई अस्वीकार कर सकता है (हालांकि गांधी ने खुद ऐसा कोई दावा नहीं किया), कोई एकआदर्श के रूप में संतत्व को भी अस्वीकार कर सकता है और ऐसा सोच सकता है कि गांधी के मूल उद्देश्य मानव-विरोधी और प्रतिक्रियावादी थे: लेकिन अगर उन्हें केवल एक राजनेता के रूप में देखें और हमारे समय की दूसरी प्रमुख राजनीतिक हस्तियों से उनकी तुलना करें तो एक खुशबू का अहसास होता है जो वह छोड़ गए।”


बेशक गांधी खुद को बेहतर, और बेहतर करने की हमेशा कोशिश करते रहे, लेकिन उनकी इन गलतियों से कहीं बड़ी गलती क्या उनके सरोकारों और उनकी विरासत के साथ नहीं हो रही? इतिहासकार सावधानीपूर्वक तथ्यान्वेषण से कुछ गलतियों को खोज सकते हैं। हां, उनके आलोचक जरूर उनमें तमाम गलतियां निकाल सकते हैं।

मैं मानता हूं कि जो उनकी सबसे बड़ी ताकत थी, वही उनकी कमजोरी भी थी। किसी भी व्यक्ति के साथ उनका संपर्क विश्वास के आधार पर होता था, संदेह पर नहीं। वह लोगों की मंशा, उनके इरादे पर अटूट भरोसा करते थे। इसी कारण उन्होंने कई बार अपने भरोसे को टूटते देखा। यह एक सामान्य मानवीय भूल थी, लेकिन इसका विपरीत प्रभाव उस आंदोलन पर पड़ा जिसका वह नेतृत्व कर रहे थे।

गांधी के व्यक्तित्व का एक और पक्ष था जिस पर गौर करना उचित होगा। एक बार जब उन्हें यकीन हो जाता कि किसी खास व्यक्ति ने उनके भरोसे को तोड़ा है, तो वह आसानी से राय बदलते नहीं थे। उनके पुत्र हरिलाल गांधी, सुभाष चंद्र बोस, मुंबई के कांग्रेसी के एफ नरीमन, सेंट्रल प्रोविन्स के नेता एन. बी. खरे, मद्रास के नेता एस. सत्यमूर्ति इसके उदाहरण हैं जिन पर महात्मा अपने जीवन के विभिन्न चरणों में बेहद भरोसा किया करते थे। इसी वजह से इतिहास इन लोगों के साथ गांधी के कई छोटे-छोटे मतभेदों का साक्षी बना।

गांधी की सिद्धांतों के प्रति दृढ़ता, कभी-कभी एक तरह की जिद में बदल जाती थी जिससे उनकी मान्यता की जीत के अलावा कुछ नहीं निकलता। लेकिन यह निहायत व्यक्तिपरक होता। इसके कारण अपने व्यापक राजनीतिक कार्यक्रम पर पड़ने वाले प्रभाव का उन पर तो ज्यादा असर नहीं पड़ा, लेकिन इससे बड़े लक्ष्य और परिणति पर कभी तात्कालिक तो कभी दीर्घकालिक असर जरूर पड़ा।

इसी संदर्भ में एक सवाल जरूर उभरता है जो एक ऐतिहासिक भूल की ओर संकेत करता है और जिसकी छाया आज भी इस उपमहाद्वीप की राजनीति पर है- ऐसा क्यों हुआ कि हिंदुओं और मुसलमानों को अपनी मूल राजनीति पर भरोसे में लेने के बावजूद वह पाकिस्तान के पक्ष में मुस्लिम जनमत को तैयार होने से नहीं रोक सके? हरिजन और दलित उद्धार के प्रति ईमानदार और दिली प्रतिबद्धता के बावजूद वह भारत में दलित राजनीति को भटकने से क्यों नहीं रोक सके?

मेरा मानना है कि इसका उत्तर कांग्रेस के समावेशी दर्शन और भारत की समावेशी दृष्टि के अंतर्विरोध में है। जब कांग्रेस हिंदू और मुस्लिम के बीच या उच्च जाति और निम्न जाति के हिंदू के बीच अंतर नहीं करती थी और सबके कल्याण के लिए काम करना चाहती थी, हिंदू पूर्वाग्रहों और अश्लीलता से लड़ रही थी, तो वह वैसे किसी कार्यक्रम का समर्थन कैसे कर सकती थी जो अलगाववाद के आधार पर उनके लिए न्याय की बात करता हो? यह था तर्क। लेकिन राजनीतिक भावना केवल तर्क पर आधारित नहीं होती।


कांग्रेस अपनी जिस प्रतिनिधित्व संरचना और पंथ पर यकीन करती थी, उसे गांधी मानते और पोषित करते थे। यह संरचना नागरिक रूप से ईमानदार थी, लेकिन राजनीतिक रूप से संवेदनशील नहीं थी। यह समझने की जरूरत थी कि अल्पसंख्यक समूह समाज में अपने लिए जगह और सुरक्षा चाहते थे, लेकिन वे यह सब किसी व्यक्ति या संगठन की दया से नहीं बल्कि नागरिकअधिकार के स्वतंत्र और संप्रभु क्रियान्वयन के जरिये। जिन्ना और आंबेडकर बुनियादी तौर पर चाहते थे कि उन्हें अपने-अपने समुदायों का स्वाभाविक प्रवक्ता माना जाए, न कि कांग्रेस को। लेकिन गांधी और कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं थे क्योंकि वे मानते थे कि कांग्रेस अल्पसंख्यक सरोकारों तथा ऐसे समावेशी भारत के लिए प्रतिबद्ध है जिसमें सभी नागरिक हर दृष्टि से समान होंगे। इसके दो ही नतीजे हो सकते थे- एक जिम्मेदार संवैधानिक स्व-शासन का निर्माण या गतिरोध।

अपने चौड़े कंधों पर विफलता को उठाए गांधी की विरासत एक धर्मनिरपेक्ष और समतावादी नैतिकता के लिए प्रयास करना जारी रखेगी। उम्मीद करनी चाहिए कि यह विरासत देश में बहुलवाद को मजबूत करने के लिए नई पीढ़ी का मार्गदर्शन करती रहेगी।

गांधी और पर्यावरण

अगर हम राजनीतिक तौर पर एक नैतिक भविष्य को जरूरी मानते हैं तो हमें पर्यावरण की दृष्टि से एक नैतिक भविष्य को भी अहम मानना होगा। आज जब दुनिया पर्यावरण की दृष्टि से एक नैतिक भविष्य की रूपरेखा तैयार करना चाहती है, उसकी नजरें महात्मा गांधी की ओर जाती हैं। पर्यावरण की दृष्टि से नैतिक भविष्य? यह क्या है? गांधी तो पर्यावरण की बात नहीं करते थे! फिर भी, चूंकि वह हर इंसान को इंसाफ और पृथ्वी पर जीवन के सिद्धांत की बात करते थे, वह स्वतः पर्यावरण की चिंता करने वाले प्रकाश-स्तंभ बन गए। गांधी ऐसी व्यवस्था के पक्षधर थे जिसमें कोई भी सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक या सैन्य ताकत किसी भी व्यक्ति या समूह को उसकी मान्यता, मूल्यों या हैसियत के आधार पर प्रताड़ित न कर सके। साधारण शब्दों में एक ऐसा भविष्य जिसमें राजनीतिक दादागिरी या निरंकुशता की कोई जगह न हो।

गांधी, मार्टिन लूथर किंग, दलाई लामा, नेल्सन मंडेला ने अपनी-अपनी पीढ़ियों को बताया कि कैसे अहिंसात्मक तरीकों से एक निरंकुश व्यवस्था का मुकाबला संभव है। म्यांमार में रोहिंग्या लोगों की पीड़ा के बावजूद इस सूची में मैं आंग सान सू की का नाम भी शामिल करना चाहूंगा क्योंकि जब उनके सामने आशा की कोई किरण नहीं थी, उनके बुलंद इरादे तेजोदीप्त रहे। वह बड़े धैर्य के साथ अहिंसक आंदोलन के रास्ते पर चलती रहीं। राजनीतिक तौर पर नैतिक बने रहने के लिए साधन और साध्य को लेकर हमेशा संवेदनशील रहना पड़ता है। इसके लिए हिम्मत से भी ज्यादा कुछ की दरकार होती है।

जब गांधी का अहिंसक आंदोलन हिंसक होने लगा तो उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन ही स्थगित कर दिया। मार्टिन लूथर किंग ने वियतनाम में अमेरिकी कार्रवाई को चुनौती देकर अपने नागरिक प्रतिरोध के विवादित हो जाने का जोखिम उठाया। मंडेला ने लोकप्रियता से ऊपर सिद्धांत रखा जब उन्होंने कहा कि ‘मैं नस्लवाद के खिलाफहूं, चाहे वह गोरा हो या काला।’

गांधी की राजनीतिक विरासत महत्वपूर्ण और बेहद चुनौतीपूर्ण है, जिसमें उनके अनुयायियों को उपेक्षा, उपहास, उत्पीड़न और इससे भी अधिक बुरी स्थिति का सामना करना पड़ता है। उनकी सफलता को बलिदान के इंच-टेप से मापा जाता है। लेकिन यही वह विरासत है जो हिंसा, उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ उपलब्ध वास्तविक विकल्प है।

(साभारः ओयूपी पब्लिकेशन की किताब गांधी 150 के नए संस्करण की भूमिका से संपादित अंश।)

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