लोकसभा चुनाव 2024 भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में एक अहम मोड़, लोकतंत्र के लिए जागी नई उम्मीद
आम चुनाव भारत के लोकतांत्रिक परिदृश्य के संभावित पुनःसंयोजन का संकेत देते हैं। मतदाताओं ने विभिन्न दलों के बीच संतुलन बहाल करके देश के राजनीतिक जगह को फिर से आजाद कर दिया है। यह सरकार को बेलगाम होने से रोकने में विपक्ष की अहम भूमिका को बहाल करने का भी संकेत देता है।

2024 का लोकसभा चुनाव भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में एक अहम मोड़ साबित हुआ क्योंकि इसने विपक्ष के लिए बीजेपी के दबदबे को चुनौती देने की उम्मीदें जगाईं। बेशक बीजेपी लगातार तीसरी बार सरकार बनाना में कामयाब रही लेकिन वह साधारण बहुमत भी न ला सकी और उसे सरकार बनाने के लिए तेलुगुदेशम पार्टी और जनता दल (यूनाइटेड) जैसी क्षेत्रीय पार्टियों के साथ रणनीतिक साझेदारी करनी पड़ी। विपक्ष के प्रदर्शन ने भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिए उम्मीदों को जन्म दिया है और संयुक्त मोर्चे के आकार लेने के करीब एक दशक बाद भारतीय राजनीति को फिर से नए आयाम मिलने की शुरुआत हुई है।
इस फैसले के महत्व को सही-सही बताना मुश्किल है। 2024 का चुनाव हिन्दू राष्ट्रवाद को साकार करने, सत्तावाद की जड़ों को मजबूत करने, सत्ताधारी पार्टी के पैसे और मीडिया पर कब्जा करने और लगभग हर महत्वपूर्ण संस्थान पर कब्जा कर लेने की पृष्ठभूमि में लड़ा गया था। भारत के असहाय दिखने वाले चुनाव आयोग ने सत्ताधारी पार्टी के नेताओं को खुलेआम चुनाव कानूनों के उल्लंघन की छूट दी हुई थी। बीजेपी को बाकी सभी पार्टियों के कुल फंड से तीन गुना ज्यादा फंडिंग मिली तो उसका श्रेय अपारदर्शी चुनावी बॉन्ड प्रणाली को जाता है जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया। इन बाधाओं के बावजूद, आम चुनाव में पड़े वोट सत्तावादी शासन और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कथित अजेयता- दोनों को नकारने वाले थे।
विभाजनकारी राजनीतिक एजेंडा चुनाव प्रचार के दौरान भी स्पष्ट था। पूरे अभियान के दौरान बीजेपी ने मतदाताओं को ध्रुवीकृत करने के लिए धार्मिक भय और पूर्वाग्रहों को भड़काया। हालांकि ज्यादातर निर्वाचन क्षेत्रों में जहां इस तरह के नफरती भाषण दिए गए, वहां बीजेपी के खिलाफ मतदान हुआ और इस मामले में अयोध्या का खास तौर पर जिक्र किया जा सकता है। बीजेपी मानकर चल रही थी कि जनवरी 2024 में राम मंदिर के उद्घाटन के बाद आम चुनाव में उत्तर प्रदेश के नतीजे कैसे आएंगे, यह सिर्फ एक औपचारिकता है। अयोध्या आंदोलन के केन्द्र अवध में रहे फैजाबाद और आसपास के निर्वाचन क्षेत्रों में बीजेपी की हार, मौजूदा शासन के प्रति व्यापक असंतोष का प्रतीक है।
विपक्ष ने अपनी ओर से बीजेपी के खिलाफ एक प्रभावी चुनौती पेश की। इसने सत्तारूढ़ दल को चुनौती देने के लिए व्यापक आर्थिक असंतोष, उच्च बेरोजगारी और मुद्रास्फीति को मुद्दा बनाया।
विपक्ष का नैरेटिव जो दैनिक जीवन को प्रभावित करने वाले ठोस आर्थिक मुद्दों, लोकतांत्रिक पतन और बीजेपी के हिन्दू राष्ट्रवादी बयानबाजी के बरक्स धर्मनिरपेक्ष प्रतिपक्ष के रूप में खुद को स्थापित करने पर ध्यान केन्द्रित करने पर था, वह मतदाताओं के फैसले में भी अभिव्यक्त हुआ। अहम बात यह है कि विपक्षी दलों ने दलितों, मुसलमानों और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) सहित हाशिये के समुदायों को साथ लेते हुए एक गठबंधन बनाने की कोशिश की। विपक्ष का प्रदर्शन इसलिए भी अच्छा हुआ क्योंकि वह एकजुट रहा और उसने गठबंधन बनाने के बेहतर प्रयास किए।
आम चुनाव भारत के लोकतांत्रिक परिदृश्य के संभावित पुनःसंयोजन का संकेत देते हैं। मतदाताओं ने विभिन्न दलों के बीच संतुलन बहाल करके देश के राजनीतिक जगह को फिर से आजाद कर दिया है। यह सरकार को बेलगाम होने से रोकने में विपक्ष की अहम भूमिका को बहाल करने का भी संकेत देता है। लेकिन विपक्ष की उम्मीदों के सामने खड़ी हैं चुनौतियां। चुनाव नतीजों ने सरकार को समावेशी, उदार या उत्तरदायी नहीं बनाया है। विपक्ष के धार पाने के बाद भी सरकार सत्तावादी साधनों से अपनी सत्ता को मजबूत करने के लगातार प्रयास कर रही है और यह बताता है कि विपक्ष को आने वाले समय में किस तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ेगा।
हालांकि बीजेपी के अपने दम पर बहुमत हासिल न कर पाने और विपक्षी गुट के संयुक्त प्रभाव में रहने वाली सीटों की बड़ी संख्या पूरे देश में राजनीतिक माहौल को बदलने वाला रहा है। कुल मिलाकर यह चुनाव दिखाता है कि पिछले दशक के दौरान राजनीतिक दक्षिणपंथ की जीत कोई पत्थर की लकीर नहीं है क्योंकि उन्हें बहुसंख्यक लोगों का विश्वास प्राप्त नहीं है और अगर विपक्षी ताकतें एकजुट होती हैं तो उन्हें चुनौती दी जा सकती है।
इस रुख को और मजबूत करने के लिए विपक्षी दल व्यवस्था पर हमला करने में कम आक्रामक होने का खतरा नहीं उठा सकते। ऐसे समावेशी, न्यायसंगत और लोकतांत्रिक विकल्पों को बढ़ावा देना जरूरी है जो मानवाधिकारों को प्राथमिकता देते हों, लोगों को मौलिक आर्थिक अधिकार देते हों और इसके साथ ही अल्पसंख्यक अधिकारों की उचित मान्यता और सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के पक्ष में सकारात्मक कार्रवाई करते हों। इसी से भारत में लोकतंत्र की गुणवत्ता और आने वाले वर्षों में कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन की चुनावी संभावनाएं निर्धारित होंगी।
इस लेख की लेखिका जोया हसन हैं। जोया हसन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के राजनीतिक अध्ययन केन्द्र में प्रोफेसर एमेरिटा हैं।
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