मोदी विरोध को नई ताकत देगा ममदानी का उदय!
भारतीय मूल के ममदानी वैश्विक पहुंच वाले अमेरिकी नेता हैं। वह खुले तौर पर मोदी की आलोचना करते हैं, भारत के बहुलवादी अतीत की बात करते हैं और इसे नागरिकता के समावेशी दृष्टिकोण से जोड़कर देखते हैं।

संदेह नही कि न्यूयॉर्क के मेयर के रूप में ज़ोहरान ममदानी का चुना जाना ऐतिहासिक घटना है। उनका उदय पहचान की राजनीति, प्रवासी लामबंदी और प्रगतिशील वैश्विक संबंधों में बड़े बदलावों का संकेत देता है। उनकी कामयाबी के दूरगामी असर होने वाले हैं। भारतीय इस बात को बाखूबी समझते हैं, चाहे वे ममदानी के नजरिये से सहमत हों या नहीं। नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए ममदानी का उदय जरूर एक रणनीतिक सिरदर्द है।
भारतीय मूल के ममदानी वैश्विक पहुंच वाले अमेरिकी नेता हैं। वह खुले तौर पर मोदी की आलोचना करते हैं, भारत के बहुलवादी अतीत की बात करते हैं और इसे नागरिकता के समावेशी दृष्टिकोण से जोड़कर देखते हैं। जाहिर है, ‘हिन्दुत्व परियोजना’ का सामना एक नए तरह के विरोधी से हो रहा है, जिसकी असहमति के स्वर न केवल न्यूयॉर्क, बल्कि प्रवासी समुदायों, वैश्विक प्रगतिशील नेटवर्क और भारत की विदेश नीति के विमर्श में भी गूंजेंगे।
ममदानी के प्लेटफॉर्म पर समाजवादी आर्थिक आदर्शों-किराये को स्थिर करना, सार्वजनिक आवास का विस्तार और सबकी पहुंच को ध्यान में रखने के आक्रामक एजेंडे- के साथ उनकी भारतीय विरासत को गौरवपूर्ण तरीके से जोड़ा गया है। जीत के बाद अपने संबोधन में ममदानी ने जवाहरलाल नेहरू के समावेशी भारत के दृष्टिकोण की बात की और बॉलीवुड गाने ‘धूम मचा ले’ के साथ इसका समापन किया। उन्होंने प्रतीकात्मक रूप से अपने राजनीतिक आदर्शवाद को सांस्कृतिक गौरव के साथ पेश किया।
अपने पूरे चुनाव अभियान के दौरान ममदानी ने बार-बार अपनी भारतीय जड़ों का जिक्र किया। जिस बहुलवादी भारत के बारे में सुनते हुए वह बड़े हुए, उसके ठीक उलट नरेन्द्र मोदी के बीजेपी की अगुवाई वाले बहिष्कारवादी भारत की बात की। ममदानी ने बड़ी बेबाकी के साथ मोदी के भारत को ‘ऐसा भारत बताया जिसमें कुछ खास तरह के भारतीयों के लिए ही जगह है’। उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों के लिए मोदी को सार्वजनिक रूप से एक ‘युद्ध अपराधी’ कहा और इन दंगों को सांप्रदायिक विभाजन के जरिये राजनीतिक लामबंदी का एक पैटर्न करार दिया।
हिन्दुत्व खेमे के नजरिये से यह तीन स्तरों पर मायने रखता है। पहला, भारत में आक्रामक तरीके से मोदी की छवि दुनिया भर में एक प्रतिष्ठित ‘मजबूत’ नेता के तौर पर बनाई जाती है जिसकी प्रवासियों में जबर्दस्त लोकप्रियता है। ममदानी मोदी की इसके बिल्कुल उलट तस्वीर पेश करते हैं। वर्षों से, बीजेपी सरकार ने मोदी के नेतृत्व में भारत को वैश्विक स्तर पर उभरते राष्ट्र, एक आत्मविश्वासपूर्ण भारत के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। यह वैसा नैरेटिव है जिसे विदेशों में रहने वाले भारतीय मूल के नेता अपना सकते हैं। लेकिन ममदानी इस पटकथा को चुनौती देते हैं। ममदानी जिस स्पष्टता के साथ मोदी की विभाजनकारी राजनीति को खारिज करते हैं, वह विदेशों में रह रहे भारतीय मूल के नेताओं के लिए एक आदर्श बन सकता है, और आने वाले दिनों में भारतीय राजनयिकों को इससे जूझना पड़ सकता है।
दूसरा, ममदानी के किस्म की राजनीति इस धारणा को पुष्ट करती है कि हिन्दुत्व की पहुंच भारत की सीमाओं तक ही सीमित नहीं। हिन्दू-राष्ट्रवादी परियोजना राजनीतिक लामबंदी, प्रवासी समुदायों, अंतरराष्ट्रीय संगठनों और अंतरराष्ट्रीय मीडिया के वैश्विक नेटवर्क में तेजी से पैठ बना रही है। ममदानी का चुनाव इससे ठीक उलट प्रतिबिंब प्रस्तुत करता है: भारतीय मूल का एक पश्चिमी नेता जो बाहर से हिन्दुत्व के नैरेटिव को चुनौती देता है और जिससे घरेलू स्तर पर विरोध को बल मिलता है।
बीजेपी या उससे जुड़े समूहों के लिए यह कोई मामूली बात नहीं: जैसे-जैसे प्रवासी समुदाय मुखर होता जाएगा, हिन्दुत्व के खिलाफ बाहरी दबाव और अंतरराष्ट्रीय कार्यकर्ताओं के जुड़ाव की संभावना बढ़ती जाएगी। चूंकि ममदानी की दुनियाभर में अपनी एक अलग पहचान है, उनकी छवि एक प्रगतिशील व्यक्ति की है और अमेरिकी राजनीतिक संरचना में उनकी पहुंच है, इसलिए वह भारत के अंदर हिन्दुत्व का विरोध करने वालों के लिए वैश्विक समर्थन के प्रतीक बन जाते हैं। इसलिए उनका यह उदय सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं, यह प्रवासी असंतोष को एक विश्वसनीय अंतरराष्ट्रीय आवाज देता है।
तीसरा, भारत-अमेरिका संबंधों और द्विपक्षीय कूटनीति के लिए इसके संदेश और व्यावहारिक निहितार्थ महत्वपूर्ण हैं। मोदी सरकार ने रणनीतिक समीकरण, आर्थिक साझेदारी और पुल की तरह काम करते प्रवासी समुदाय पर ध्यान केन्द्रित करते हुए लंबे समय से खुद को अमेरिका के भरोसेमंद साझेदार के रूप में प्रस्तुत किया है जो भारत की वैश्विक हितधारक के रूप में स्थिति को मजबूत करता है। इस बीच, अमेरिका ने रणनीतिक लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए भारत की आंतरिक राजनीति की तीखी सार्वजनिक आलोचना से परहेज किया है। लेकिन ममदानी जैसी शख्सियत इस गणित को जटिल बना देती है: उनके उत्थान का सीधा मतलब है कि भारत यह मानकर नहीं चल सकता कि भारतीय अमेरिकी एक स्वर में उसकी नीतियों का समर्थन करेंगे या प्रवासी समुदाय स्वाभाविक रूप से नई दिल्ली के नैरेटिव के पक्ष में झुक जाएगा।
दूसरे शब्दों में, मोदी सरकार की प्रवासी रणनीति अब एक विपरीत धारा का सामना कर रही है, जिसमें अमेरिका में एक भारतीय मूल का नेता न केवल रणनीतिक सुविधा या आर्थिक साझेदारी के संदर्भ में, बल्कि बहुलवादी मूल्यों और मानवाधिकारों पर भारत के दृष्टिकोण के संदर्भ में भी भारतीयों के साथ विचार विनिमय कर सकता है। इसलिए, ममदानी के उदय को एक अलग घटना मानना गलत होगा। उनकी सफलता मोदी विरोधी प्रवासी समुदायों को सशक्त बनाएगी, उन्हें उच्च पद पर एक समर्थक प्रदान करेगी और उनके इस भाव को पुष्ट करेगी कि भारत की आलोचना देशद्रोह नहीं है। यह पश्चिमी अभिजात वर्ग और मीडिया को भी संकेत देगा कि भारत सरकार के नैरेटिव को अब उसके वैश्विक प्रवासी समुदाय से भी चुनौती का सामना करना पड़ेगा।
ममदानी के उदय का नतीजों का आकलन कर रहे हिन्दुत्व समूहों के सामने एक मुश्किल विकल्प है: या तो इससे दो-दो हाथ करें या फिर नजरअंदाज कर दें। संभवतः वे ममदानी को नजरअंदाज करने की कोशिश करें, लेकिन ममदानी जितना ज्यादा अपने मंच का इस्तेमाल भारत के बारे में बोलने के लिए करेंगे, प्रवासी समदाय के बीच बहसों में भारतीय राजनीति उतनी ही ज्यादा मुखरता से शामिल होती जाएगी। हिन्दुत्व समूह अगर ममदानी पर हमला बोलने का विकल्प चुनते हैं, तो इसकी तीखी प्रतिक्रिया का ‘खतरा’ है जिससे मोदी बचना चाहेंगे। अगर उन्होंने बातचीत-व्यवहार का विकल्प चुना, तो सरकार को देश और विदेश में आलोचना और विरोध के लिए जगह बनाने पर मजबूर होना पड़ेगा।
इन सबका मतलब यह नहीं है कि ममदानी हिन्दुत्व परियोजना के पतन का कारण बनने वाले हैं या उनका नया कद भारतीय राजनीति में तुरंत कोई बड़ा बदलाव लाएगा। लेकिन ममदानी का उदय निश्चित रूप से रणभूमि को बदल देगा। भारत की राजनीतिक दिशा अब वैश्विक प्रवासी चर्चाओं, पश्चिम के सभागारों और प्रगतिशील नेटवर्कों में और भी प्रमुखता से दिखाई देगी।
ममदानी का उदय मोदी और हिन्दुत्ववादियों के लिए बुरी खबर है, क्योंकि इससे पश्चिम में भारतीय मूल के लोगों की सफलता के नैरेटिव पर एकाधिकार जमाने की उनकी क्षमता कम हो जाती है। यह इस धारणा को भी कमजोर करता है कि प्रवासी नेता उनकी हिन्दुत्व परियोजना से जुड़ेंगे, और यह आलोचना के नए आयाम पैदा करता है जो भारत में विपक्ष को विदेशों में दबाव और समर्थन से जोड़ सकते हैं।
(अशोक स्वैन स्वीडन के उप्सला विश्वविद्यालय में शांति और संघर्ष अनुसंधान के प्रोफेसर हैं।)
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