मणिपुर: हिंसा, रक्तपात या जमीन हड़पने की कोशिशों के बिना स्थायी शांति की जरुरत, मानवीय त्रासदी से गुजर रहा राज्य

मणिपुर एक बड़ी मानवीय त्रासदी से गुजर रहा है। ऐसे में, सबसे बड़ा सवाल यही है कि वहां का संकट आगे क्या शक्ल लेने जा रहा है और इसका संभावित व्यावहारिक समाधान क्या हो सकता है

फोटो: Getty Images
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मर्सी वी गाइट

मणिपुर में अंतहीन लग रही पेंचीदी जातीय हिंसा के अब तो तीन महीने हो चुके हैं। कुछ वर्गों में सहानुभूतिपूर्ण आवाजों के बावजूद कहीं कोई समाधान नहीं दिख रहा है। केन्द्र और राज्य सरकारें उदासीन बनी हुई हैं और इस ओर से ध्यान भटकाने के लिए हर किस्म के घृणित उपाय कर रही हैं। हिंसा समाप्त कराने और शांति की तरफ बढ़ने के लिए कोई भी वास्तविक प्रयास नहीं हो रहे हैं।

मणिपुर में राजनीतिक और सामाजिक नैरेटिव हाल-फिलहाल में जोमी-कुकी जनजातियों की ओर झुका है। यह असर है उस वीडियो का जिसमें मैतेई लोगों की भीड़ को इस समुदाय की महिलाओं के साथ बदसलूकी करते दिखाया गया है। मणिपुर में इंटरनेट पर प्रतिबंध है और इससे कुछ हासिल होता नहीं दिख रहा। केन्द्र दावा कर रहा है कि वह मुद्दों पर बहस को तैयार है- हालांकि अपनी शर्तों पर- और विपक्ष चाहता है कि सरकार जिद छोड़े, अपना तरीका बदले और सबकी बात सुने। इन सबमें गतिरोध बना ही हुआ है।

इन तमाम राजनीतिक-संवैधानिक विवादों के बीच लोगों की जिंदगियां फंसी हैं। जोमी-कुकी समुदायों में बड़ी तादाद ऐसी महिलाओं और बच्चों की है जो खतरनाक स्वास्थ्य-संबंधी जोखिमों से जूझ रहे हैं। कुछ पर्यवेक्षक यह स्थापित करना चाहते हैं कि दोनों ही पक्षों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है; लेकिन सच्चाई यह है कि 3 मई को शुरू हुई हिंसा के बाद से मैतेईयों के जीवन और व्यापार में भले ही स्वाभाविक तौर पर थोड़ा बहुत व्यवधान पहुंचा हो, दूसरी ओर, जोमी-कुकी-हमार आदिवासी आज जो झेल रहे हैं और उनका जैसा भविष्य सामने है, वह ज्यादा बड़ी सच्चाई है। फिलहाल, उनकी तात्कालिक चिंता यह है कि बहुसंख्यकवादी राज्य तंत्र द्वारा आदिवासी गांवों और जोमी-कुकी लोगों पर हमले लगातार जारी हैं।

राज्य में मैतेई और जोमी-कुकी जनजातियों के बीच जातीय संघर्ष शुरू होने के पीछे की हालिया वजह मैतेई लोगों की अनुसूचित जनजाति (एसटी) के दर्जे की मांग है जबकि मैतेई पहले से ही एक विशेषाधिकार प्राप्त बहुसंख्यक समूह हैं और इनमें सामान्य, अनुसूचित जाति (एससी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) श्रेणियां शामिल हैं। लेकिन इस मुद्दे पर नई दिल्ली की स्पष्ट चुप्पी तात्कालिक या यहां तक कि ऐतिहासिक समाजशास्त्रीय कारणों से आगे है, यह अनुसूचित जनजाति में शामिल किए जाने की मैतईयों की मांग को लेकर नहीं है।

सरकारों का मौन 

तो, यह क्या है? मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह को केन्द्र और बीजेपी नेतृत्व से अभयदान मिले रहने का क्या रहस्य है? तीन महीने से अधिक समय से स्पष्ट प्रशासनिक विफलता के बावजूद केन्द्र ने उन्हें अभी तक हटाया क्यों नहीं? राज्य प्रशासन की विफलता प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए क्या उचित आधार नहीं था? जब हिंसा के दौरान महिलाओं के साथ अत्याचार की खबरें आंखों के सामने आ गईं, तब भी ऐसा क्यों नहीं किया गया?

जब ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ की बात आती है तो ‘आर्थिक और व्यापार सहयोग’ के लिहाज से मणिपुर एक बेहद अहम इलाका बन जाता है। साल 2003 में हॉलैंड की तेल कंपनी- जुबिलेंट ऑयल एंड गैस प्राइवेट लिमिटेड सुर्खियों में थी। कंपनी ने मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों- जिरीबाम, तामेंगलोंग और लमका (बाद में जिले का नाम चुराचांदपुर कर दिया गया) में हाइड्रोकार्बन की खोज के लिए सर्वेक्षण शुरू किया। तेल की खोज के लिए दिया गया कुल क्षेत्र 3,850 वर्ग किलोमीटर था और अनुमान है कि मणिपुर में लगभग 5,000 अरब क्यूबिक फीट तेल है। मणिपुर ब्लॉक-1 की उत्पादन साझेदारी पर 30 जून, 2020 को हस्ताक्षर किए गए; जबकि मणिपुर ब्लॉक-2 के लिए पहले ही 19 जून, 2010 को दस्तखत किए जा चुके थे और मणिपुर सरकार द्वारा 20 सितंबर, 2010 को लाइसेंस जारी किया जा चुका था। यह जमीन हड़पने की कोशिशों की वजह की ओर इशारा है, शायद?

हालांकि, भले ही इस पहाड़ी क्षेत्र जो आदिवासी समुदायों के घर हैं, में काफी मात्रा में तेल और प्राकृतिक गैस का भंडार हो, फिर भी मौजूदा तबाही अब भी समझ से परे है। राज्य सरकार अपनी मशीनरी का इस्तेमाल करके इतने बड़े पैमाने पर जातीय सफाया क्यों करेगी? क्या बहुसंख्यक मैतेई आबादी में पहाड़ी क्षेत्रों के जनजातीय निवासियों के प्रति तेज ईर्ष्या की भावना घर कर गई थी? क्या तेल भंडार के लिए इन क्षेत्रों के दोहन की खोज में वित्तीय लाभ शामिल था? इन दोनों सवालों के जवाब हैं, 'बिल्कुल'। क्या यही वजह थी कि मैतेई लोगों ने पहाड़ी जनजातियों के खिलाफ घृणा अपराधों को बढ़ावा दिया और इसके लिए उन्हें म्यांमार से आए अवैध प्रवासी के रूप में प्रचारित किया गया? फिर ‘हां’, ताकि भविष्य के इन दावों के लिए जगह बनाई जा सके कि मैतेई  इन समृद्ध खनिज भंडार के ‘प्राकृतिक’ या ‘स्वदेशी’ उत्तराधिकारी हैं। ऐसा हो, तब भी, इम्फाल घाटी में निर्दोष आदिवासी लोगों पर हमले, उनकी हत्या और उनके घरों, व्यवसायों, चर्चों और निजी संपत्ति को जलाना कुछ ज्यादा ही है।


अब और किस बात पर विचार किया जा सकता है? म्यांमार के सीमावर्ती राज्य होने के कारण मणिपुर दक्षिण-पूर्व एशियायी देशों में अफीम व्यापार के लिहाज से बहुत अहम है। अगर मणिपुर देश के भीतर और सीमा पार अफीम के व्यापार का अहम ठिकाना है, तब भी आदिवासी पहाड़ी लोगों के खिलाफ इस तरह की हिंसक कार्रवाई से राज्य सरकार और इसकी बहुसंख्यक आबादी को भला क्या फायदा होगा? क्या भारत के भू-राजनीतिक, व्यापार और तथाकथित आर्थिक और रक्षा हितों को मणिपुर के बेकसूर कुकी-जोमी लोगों की जान की कीमत पर बरकरार रखा जा रहा है? मौन के कारण को समझना-समझाना मुश्किल ही है- क्योंकि निश्चित तौर पर यह विश्वसनीय है, अन्यथा सरकार इस पर बोलती जरूर।

तब, हम मुख्यमंत्री बीरेन सिंह और उनकी सरकार को मिल रहे समर्थन की किस तरह व्याख्या करें?

मीरा पैबिस बनाम जोमी-कुकी महिलाएं

संसद सत्र एक निरर्थक रस्साकशी बनकर रह गया है। मीडिया में दोनों पक्षों के बाइट्स और खबरों की भरमार है। हालांकि हकीकत यह है कि मणिपुर से विस्थापित जोमी-कुकी लोग रोजाना ही लमका (अब जिसे इसके थोपे गए नाम चुराचांदपुर से बुलाते हैं), दिल्ली, गुवाहाटी, आइजॉल और ऐसी तमाम दूसरी जगहों में रहते हुए तरह-तरह की तकलीफ झेल रहे हैं। हालत यह है कि चुराचांदपुर जिला अस्पताल के मुर्दाघर में 80 से ज्यादा दिनों तक लावारिस शव पड़े रहे- परिजन इन शवों पर दावा तक नहीं कर पाए क्योंकि ऐसा करने से उनकी जान को खतरा बना रहा।

महिलाओं और बच्चों की पीड़ा किसी की भी समझ से परे है। 3 मई के बाद से कई महिलाओं के साथ दिन-दहाड़े यौन उत्पीड़न और यहां तक कि सामूहिक बलात्कार किए गए हैं। खुले तौर पर। दो जोमी-कुकी लड़कियों को नग्न घुमाने और निहायत अश्लील तरीके से उनके अंगों को छूने का हृदयविदारक वीडियो सार्वजनिक हो गया, पर इन-जैसी तमाम घटनाएं हुईं जिनकी खबरें सामने नहीं आईं (या रिपोर्ट तो हुईं लेकिन उनकी अनदेखी कर दी गई)। इसकी वजह अनिश्चितकालीन इंटरनेट पाबंदी है जो खास तौर पर राज्य के किनारे के इलाकों में लागू हैं।

इस किस्म की कई घटनाएं हुई हैं कि मैतेई भीड़ ने खास तौर से कुकी-जोमी जनजातियों से जुड़े लोगों की तलाश की और इस आधार पर उनके साथ हिंसा में फर्क किया कि कौन जोमी-कुकी समुदाय से है और कौन हमार जैसी नगा जनजातियों से। भीड़ ने किसी को भी नहीं बख्शा- चाहे वह वरिष्ठ नागरिक हो या फिर सरकारी अधिकारी या कर्मचारी। उन्हें सेना या पुलिस के सशस्त्र बल से भी बेखौफ देखा गया। उन्होंने घाटी में या इम्फाल में रहने वाले आदिवासी परिवारों पर धावा बोला; पहाड़ी गांवों पर हमला बोला; छात्रावासों में छात्रों की तलाश की; सड़कें अवरुद्ध करके वे ‘सही शिकार’ के इंतजार में बैठे रहे, यहां तक कि हवाई अड्डे की सड़क पर भी ऐसे लोग घात लगाकर बैठे रहे। आखिर उन्हें वहां से खदेड़ा क्यों नहीं गया? खौफ का माहौल क्यों बने रहने दिया गया? इन लोगों ने खास तौर पर महिलाओं को निशाना बनाया और उनके साथ इंसानियत को शर्मसार करने वाली हरकतें कीं। इस हमलावर भीड़ में अक्सर महिलाएं भी शामिल रहती हैं जो लोगों को उकसाती भी हैं। किसी महिला के शरीर के साथ असभ्य और वहशी दुर्व्यवहार (क्योंकि वह आदिवासी है) भयावह और भय से कंपकंपा देने वाला है।

इन जातीय संघर्षों ने मीरा पैबिस को आदिवासी महिलाओं के खिलाफ हिंसा के अपराधियों में बदल दिया है। (मीरा पैबिस इंफाल घाटी में विभिन्न वर्गों से आने वाली मैतेई महिलाएं हैं। आम तौर पर वरिष्ठ महिलाओं का समूह इसका नेतृत्व करता है।) मीरा पैबिस की लामबंदी प्रायः स्पष्ट रूप से राजनीतिक प्रकृति वाली रही है। मीरा पैबिस सहित नागरिक-समाज समूहों को आदिवासी महिलाओं के खिलाफ हिंसा जारी रखने में अपने स्वयं के जातीय और राजनीतिक झुकाव को स्वीकार करना चाहिए। एक महत्वपूर्ण मामला पारबुंग गांव में 2006 की वह भयावह घटना है जहां यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (यूएनएलएफ) और कांगलेइपाक कम्युनिस्ट पार्टी (केसीपी) के मैतेई उग्रवादियों ने 21 हमार महिलाओं के साथ बलात्कार और छेड़छाड़ की जिनमें 10 नाबालिग थीं। यह तो असम राइफल्स का हस्तक्षेप था जिसने आखिरकार घाटी स्थित विद्रोहियों को जो जनजातीय इलाकों से खदेड़ दिया।

मौजूदा संघर्ष के लंबे समय तक चलने के कारण 20 जून को मीरा पैबिस ने घाटी स्थित प्रतिबंधित संगठन यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (यूएनएलएफ) के चार गिरफ्तार कैडरों को ले जा रहे सेना के काफिले को रोक दिया। इन लोगों को एक दिन पहले 51 मिमी वाले मोर्टारों के साथ पकड़ा गया था। 24 जून को इसी तरह की घटना इम्फाल-पूर्व में हुई जब 1,200 मीरा पैबिस महिलाओं ने स्थानीय विधायक की कथित शह पर 12 कांगलेई यावोल कनबा लूप (केवाईकेएल) कैडरों को ले जा रहे सेना के काफिले को रोक दिया। दोनों घटनाओं में सेना को महिलाओं की भीड़ के आगे झुकते हुए गिरफ्तार लोगों को छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा।


राजनीतिक जटिलताएं और भौगोलिक स्थितियां

बहुसंख्यक मैतेई लोग मणिपुर के संभावित विभाजन को लेकर आशंकित हैं। बहुसंख्यक मैतेई समुदाय द्वारा इंफाल घाटी में जोमी-कुकी आदिवासियों के बलपूर्वक सफाये की कोशिशों के बावजूद मणिपुर की क्षेत्रीय अखंडता को अक्षुण्ण रखने की लगातार मांग राजनीति की ओर इशारा करती है।

मणिपुर चारों तरफ से जमीन से घिरा राज्य है और भौगोलिक दृष्टि से राज्य की तीन इकाइयां हैं- इम्फाल घाटी, मणिपुर पहाड़ी और जिरीबाम बेसिन। इनमें हर की अपनी अलग विशेषता है। राज्य की आबादी इन्हीं तीन में बंटी हुई है। राज्य में आठ जिले हैं- पहाड़ी इलाको में पांच और घाटी में तीन।

मैतेईयों का दावा है कि वे आबादी के लिहाज से 53 फीसद हैं लेकिन 10 फीसद भूभाग में सिमटकर रह गए हैं। इसलिए मैतेई बनाम कुकी-जोमी टकराव में यह भी एक मुद्दा है कि जोमी-कुकी समुदाय मैतेई समुदाय के हिस्से की जमीन पर कब्जा कर रहे हैं।

लेकिन आखिर यह भ्रम क्यों है? पहली बात, गैर-आदिवासी, यानी मूल रूप से घाटी में रहने वाले बहुसंख्यक समूह आदिवासी पहाड़ी क्षेत्रों में जमीन तो खरीद सकते हैं- लेकिन अनुच्छेद 371 (सी) के तहत कुछ प्रतिबंधों के साथ। इसकी वजह यह है कि पहाड़ों में रहने वाले आदिवासियों की आजीविका का एकमात्र स्रोत जमीन है और अगर वह भी उनके हाथ से निकल गई, तो हाशिये पर रहने वाले आदिवासी समुदाय और भी हाशिये पर चले जाएंगे। पहाड़ों में 80 प्रतिशत से अधिक लोग अब भी खेती-किसानी में लगे हुए हैं जबकि मैदानी इलाकों में, केवल 35 प्रतिशत कार्यबल कृषि में लगा है। इसलिए मैदानी इलाकों में लोगों के पास आजीविका के अन्य साधन हैं।

दूसरे, पहाड़ियों की पारिस्थितिकी अधिक संवेदनशील है और वे ज्यादा इंसानी आबादी को वहन नहीं कर सकती। सुदूर उत्तरी इलाकों समेत देश के अन्य हिस्सों के पहाड़ी इलाकों में यह आम बात है कि ‘विकास’ की गतिविधियां एक सीमा से अधिक हुईं , तो ये तरह-तरह की आपदाओं का कारण बन जाती हैं। कुछ साल पहले, नोनी रेलवे निर्माण के दौरान कई लोगों की मौत हो गई थी क्योंकि इलाके में मिट्टी दलदली हो जाने से भूस्खलन हो गया था।

तीसरा, पहाड़ी क्षेत्रों का 90 फीसद इलाका इंसानी रिहाइश के लिहाज से योग्य नहीं जबकि अधिकांश मैदानी क्षेत्र रहने योग्य हैं।

इसलिए, केवल 10 प्रतिशत भूमि पर कब्जे का मैतेई का दावा निराधार है क्योंकि यह ‘रहने योग्य’ भूमि का उचित विवरण नहीं है जहां ‘आजीविका’ की भी गुंजाइश हो। शेष भौगोलिक क्षेत्र में अधिकांश वन भंडार शामिल हैं जो केवल अनुसूचित जनजातियों को कृषि उद्देश्यों के लिए पहुंच प्रदान करते हैं।

मणिपुर में विवाद का एक और मूल कारण यह भी है कि यहां विकास घाटी केन्द्रित है- सड़कें हों, अस्पताल, चिकित्सा और शैक्षणिक संस्थान या फिर सारे महत्वपूर्ण कार्यालय- सभी घाटी में ही स्थित हैं। 


अमन से साथ रहने की संभावना?

संजेनथोंग की संधि (1873) और मोइरंग की संधि (1875) में कहा गया है कि ‘सुमकम (जोमी राजा गौखोथांग के पुत्र) का अधिकार क्षेत्र मोइरांग तक फैला हुआ है और (मैतेई) महाराजा शेष मैदानी इलाकों पर शासन करते हैं।’ यह प्रभावी ढंग से मोइरांग पर ऐतिहासिक तौर पर जोमी-कुकी जनजाति के नियंत्रण का समर्थन करता है। 1971 के 27वें संशोधन अधिनियम से संविधान में जोड़े गए अनुच्छेद 371 (सी) ने मणिपुर को पहाड़ी और घाटी क्षेत्रों में विभाजित किया और ऐतिहासिक तथ्यों को ध्यान में रखते हुए आदिवासी बस्तियों वाले क्षेत्रों को विशेष संरक्षण दिया।

तो, एक अलग प्रशासन की मौजूदा जनजातीय मांग के लिए क्या सूरत बनती है? क्या ऊपर उल्लिखित भौगोलिक क्षेत्रों के अनुसार तीन-तरफा विभाजन स्थायी शांति और स्थिरता सुनिश्चित कर सकता है? क्या इससे काम हो जाएगा? क्या यह संभव भी है? शायद हां।

मणिपुर से अलग होने के लिए नगाओं और जोमी-कुकी की मांग पुरानी है। मणिपुर ने इलाके के भीतर कई जातीय समूहों के बीच कई युद्ध और झगड़े देखे हैं। हालांकि हालिया विवाद, कई तरह से, इन आबादियों के बीच अपरिवर्तनीय मतभेदों का चरम पर पहुंच जाना है।

वर्तमान संवेदनहीन हिंसा को रोकने के लिए, भारत सरकार को व्यवहार्य विकल्पों पर विचार करना चाहिए। उसे न केवल जनजातियों ने जो मांगा है, उसे ध्यान में रखना चाहिए बल्कि जो बहुसंख्यक चाहते हैं, उस पर भी गौर करना चाहिए। मैतेई आज के मणिपुर के मध्य मैदानों में स्थित स्वतंत्र कांगलेइपाक की मांग करते हैं जो लगभग 22,327 वर्ग किलोमीटर इलाका है। उस स्थिति में उत्तरी पहाड़ी जिलों में नगा रहेंगे और मणिपुर के दक्षिणी पहाड़ी जिलों में रहने वाले जोमी-कुकी के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व सुनिश्चित हो सकेगा। उस स्थिति में राज्य के लोग नगाओं और जोमी-कुकी के जनजातीय क्षेत्रों पर अतिक्रमण किए बिना शांति से रह सकेंगे और अपने-अपने क्षेत्रों के विकास के लिए काम कर सकेंगे।

इसलिए, ऐसा विभाजन रक्तपात या जमीन हड़पने की कोशिशों के बिना स्थायी शांति सुनिश्चित कर सकता है।

(मर्सी वी. गाइट नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।) 

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