यूक्रेन मामले पर भारतीय कूटनीति के कई छेद आए सामने, रूस के चक्कर में चीन-पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखा देश

मोदी के दावों के बावजूद भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा में गिरावट आई है क्योंकि विश्व समुदाय चीन का मुकाबला करने में उनकी सरकार की असफलता, लॉकडाउन और कोविड लहर को लेकर इसकी अव्यावहारिकता और गंभीर दुस्साहस के साथ-साथ इसकी प्रतिशोध की राजनीति का भी गवाह है।

फोटोः सोशल मीडिया
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सरोश बाना

24 फरवरी को यूक्रेन के खिलाफ रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के एकतरफा और नासमझी भरे युद्ध के एक साल पूरे हो गए। संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकारों के उच्चायुक्त कार्यालय के अनुसार, साल भर के इस संघर्ष में  कम-से-कम 8,000 यूक्रेनी नागरिकों की जान गई और 13,300 से ज्यादा जख्मी हुए हैं। वैश्विक खाद्य और ऊर्जा आपूर्ति के लिए इसने जैसा संकट उत्पन्न किया है, वह खतरनाक रूप से बढ़ता ही जा रहा है।

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन अपने लोगों और राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की के साथ एकजुटता प्रदर्शित करने के इरादे से 20 फरवरी को युद्ध ग्रस्त यूक्रेन की अघोषित और नाटकीय यात्रा भी कर आए। उन्होंने कहा, “रूसी हमले का शिकार अकेले यूक्रेन नहीं हुआ है, पूरी दुनिया ने युगों-युगों के लिए एक परीक्षा का सामना किया है और दुनिया के हर लोकतंत्र के लिए यह परीक्षा की घड़ी है।” पुतिन को यह अच्छा नहीं लगा  और नाखुशी जताते हुए अगले ही दिन 2010 की नई सामरिक शस्त्र कटौती संधि (न्यू स्टार्ट) को ही निलंबित करने की घोषणा कर डाली। हालांकि यह 5 फरवरी, 2026 तक चलने वाले ‘न्यू स्टार्ट’ को खत्म नहीं करता है, फिर भी इससे इतना तो साफ है ही कि वह अब नए सिरे से किसी समझौते की संभावना नकार रहे हैं और ऐसा 1972 के बाद पहली बार हो रहा है। यह परमाणु हथियारों की एक नई होड़ को बढ़ावा देने वाला भी है।

वैश्विक स्तर पर लोकतंत्र और निरकुंशता के बीच होड़ को एकतरफा हमले के तौर पर परिभाषित करने के साथ विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में भारत को ‘दूसरी तरफ नहीं देख रहा है’ के रूप में समझा जाना चाहिए। नई दिल्ली अपनी उस विदेश नीति का पुनर्मूल्यांकन करने की जरूरत पर सोच सकती है जिसके बारे में कहा जाता है कि यह ‘स्व-हित’ निर्देशित है। रूस से अनुकूल दरों पर पेट्रोलियम और गैस लेने के लिए प्रतिबंधों की अनदेखी और बड़े पैमाने पर रक्षा खरीद ऑर्डर देकर अमेरिका और उसके सहयोगियों को खुश कर, इसने सफलतापूर्वक तंग रस्सी पर चलने वाली एक चाल तो चली ही है।

भारत ने सदियों पुराने रिश्तों, खासतौर से तत्कालीन सोवियत संघ के साथ 1971 की शांति, मैत्री और सहयोग की द्विपक्षीय संधि की तरफ इशारा करते हुए रूस की निंदा करने की अपनी महत्वाकांक्षा और अनिच्छा को रूस के साथ सन 2000 की ‘रणनीतिक साझेदारी पर घोषणा’ तक बढ़ा दिया जिसमें “दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में रक्षा और सैन्य-तकनीकी सहयोग मजबूत करने” की बात कही गई थी।

अपनी खुद की ऊर्जा जरूरतों के प्रति चिंता का इजहार करते हुए भारत रूस से अपने ईंधन आयात को बढ़ावा देने के मामले में पश्चिम के साथ टकरा गया जिसने 5 फरवरी से यूरोपीय संघ द्वारा यूरोपीय संघ के 27 देशों को पेट्रोल, डीजल और जेट ईंधन सहित परिष्कृत पेट्रोलियम उत्पादों के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया।


अप्रैल, 2022 से जनवरी, 2023 के दौरान रूस से भारत का कच्चे तेल का आयात 384 प्रतिशत बढ़कर 37.31 बिलियन डॉलर हो गया जिससे रूस 2022-23 में भारत का चौथा सबसे बड़ा आयात भागीदार बन गया जबकि पिछले वर्ष वह 18वें स्थान पर था। अगर कीमतें और शर्तें अनुकूल रहती हैं तो भारत रूस से अपने कच्चे तेल के आयात को और ज्यादा बढ़ा सकता है। साथ ही कुछ भारतीय रिफाइनरी रूसी डीजल और अन्य रिफाइंड उत्पादों का आयात कर रहे हैं और परिशोधन के बाद इसका कुछ हिस्सा पश्चिमी देशों को फिर से निर्यात कर रहे हैं जो कुछ-कुछ ‘सब के लिए जीत’ वाली स्थिति जैसा है।

भारत-रूस रिश्तों में महत्वपूर्ण बदलाव उस वक्त आया जब पुतिन ने अफगानिस्तान के मामले पर सुरक्षा परिषदों/एनएसए सचिवों की पांचवीं बैठक के लिए फरवरी में मास्को की दो दिन की यात्रा पर गए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकर (एनएसए) अजीत डोवाल के साथ अलग से बैठक की और जिसे ‘ऑफ द टेबल’ कहा गया। इस तरह डोवाल अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में तत्कालीन एनएसए बृजेश मिश्रा के बाद पिछले बीस वर्षों के दौरान अपनी वरिष्ठता वाले प्रथम भारतीय अधिकारी बन गए जिनकी पुतिन से आमने-सामने की मुलाकात हुई। डोवाल और विदेश मंत्री एस जयशंकर यूक्रेन युद्ध के मामले में भारतीय नीति के संयुक्त रूप से सूत्रधार रहे हैं और एनएसए की यह रूस यात्रा जयशंकर की यात्रा के तीन महीने बाद हुई थी।

नरेंद्र मोदी सरकार बीजिंग के साथ मास्को के गहराते रिश्तों को लेकर कतई चिंतित नहीं दिखती जो विशेष तौर पर 2020 में पूर्वी लद्दाख पर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के आक्रमण के बाद से 3,488 किलोमीटर लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर खतरनाक रूप से मंडरा रहा है। रूस के आक्रमण से कुछ ही दिन पहले चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा था कि उनका देश और रूस “किसी सीमा से परे” दोस्ती का आनंद उठाते हैं।

कहना न होगा कि भारत 15 सदस्यीय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी), 193 सदस्यीय संयुक्त राष्ट्र महासभा, 47 सदस्यीय संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद और 173 सदस्यीय अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में यूक्रेन पर जानलेवा हमले के मामले में रूस के खिलाफ वोट से अनुपस्थित रहकर अनजाने में ही अपने कट्टर प्रतिद्वंद्वियों- चीन और पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखने से विकट परिस्थिति में है।

भारत फरवरी में छठवीं बार यूक्रेन से सम्बद्ध संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव से दूर रहा। यह प्रस्ताव यूक्रेन पर रूसी हमले की निंदा करता था और भारत की अनुपस्थिति से किसी का ‘भला’ नहीं होने जा रहा था। इसमें 141 देश उस मांग के साथ थे कि रूस को यूक्रेन छोड़ देना चाहिए। भारत जिसके प्रधानमंत्री ने पिछले साल पुरजोर शब्दों में कहा था- ‘यह दौर युद्ध का नहीं है’, उन 32 देशों के साथ खड़ा दिखा जो इस युद्ध को लेकर अपना साफ मत और मन नहीं बना सके।


चीन की दूरी रूस के साथ उसकी निकटता से उतनी ही प्रेरित है जितनी कि पश्चिम के साथ उसके खुले मतभेदों से जबकि पाकिस्तान का रुख चीन पर उसकी अत्यधिक निर्भरता से निर्देशित था। ऐसा लगता है कि चीन को लेकर भारत में किसी सुसंगत रणनीति का अभाव है। दो मोर्चों पर एक चुनौती का सामना करते हुए भारत को यह अहसास है कि उसे अपने विरोधियों से अपने दम पर लड़ना है लेकिन चीन के साथ उसकी किसी सैन्य विषमता से इनकार करता है।

फिर भी, अपनी सीमाओं पर हो रही गतिविधियों से चिंतित नई दिल्ली ने 2021 में अमेरिका से 3.4 बिलियन डॉलर के हथियारों का आर्डर दिया जो 2019 में 6.2 मिलियन डॉलर था। इसने अमेरिका, रूस और इजरायल से उन महत्वपूर्ण हथियारों की तेज डिलीवरी की मांग की जिनके लिए पहले से आदेश हैं।

इस बीच अमेरिका ने बेंगलुरू के एयरो इंडिया शो में भारत में पहली बार अपने सबसे उन्नत लड़ाकू जेट, लॉकहीड मार्टिन एफ-35 लाइटिंग II, जनरल डायनेमिक्स एफ-16 फाइटिंग फाल्कन, बोइंग एफ/ए-18 सुपर हॉर्नेट और रॉकवेल बी-1बी लांसर सुपरसोनिक पारंपरिक बमवर्षक के साथ प्रदर्शन करके न सिर्फ अपना एक हाई प्रोफाइल प्रस्तुत किया बल्कि इसके जरिये ‘सोवियत संघ युग’ के बाद से भारत के सबसे बड़े हथियार आपूर्तिकर्ता रूस को एक तरह से धुंधलके में धकेलने की भी कोशिश की। यह भी अनायास तो नहीं था कि इस रक्षा प्रदर्शनी के 27 साल के इतिहास में इस बार ही पहली बार अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल सबसे विशाल दिखाई दिया जबकि रूस की उपस्थिति नाममात्र की थी। यही नहीं, राज्य के स्वामित्व वाले हथियार निर्यातक रोसोबोरोनेक्सपोर्ट का यूनाइटेड एयरक्राफ़्ट और अल्माज-एंटे के साथ एक संयुक्त स्टाल भी मौजूद दिखा।

भारत अंतत: महज वाशिंगटन को तसल्ली देने के इरादे से प्रस्ताव पर कुछ अमेरिकी लड़ाकू विमानों का विकल्प चुन सकता है जो फ्रांस के डसॉल्ट एविएशन के राफेल के कारण पीछे रह गया था और जिसे एफ-16 ब्लॉक 70 और एफ/ए-18 ई/एफ सुपर हॉर्नेट के ऊपर चुना गया था। अमेरिका ने भारत द्वारा रूस से पांच एस-400 तृंफ स्व-चालित सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल प्रणाली की 5.43 बिलियन डॉलर की खरीद पर भी नाराजगी जताई। फिर भी प्रतिबंध अधिनियम (सीएएटीएसए) के जरिये अमेरिका के विरोधियों का मुकाबला करने के तहत दिल्ली को प्रतिबंधित करने से परहेज किया। क्रेमलिन अच्छी तरह जानता है कि भारत चीन या पाकिस्तान के खिलाफ एस-400 का इस्तेमाल कर सकता है। ये दोनों ही रूस के बचे हुए चंद सहयोगी हैं। 

भारत के पास अपने सैन्य दुस्साहस के कूटनीतिक समर्थन के लिए पुतिन को सलाह देने की सीमाएं हैं, खासकर जब चीन के साथ अपने स्वयं के सीमा मुद्दे पर यह 17 दौर की कोर कमांडर स्तरीय वार्ता के बाद भी एलएसी पर चीनी ज्यादतियां कम करने में असमर्थ रहा है।

मोदी ने पुतिन से पश्चिमी शक्तियों के साथ समझौता करने का आग्रह करने के लिए फोन किया था और यह निश्चित तौर पर एक उल्लेखनीय घटना थी। आखिरकार, उन्होंने खुद चीन को हमलावर के रूप में पहचानने से भी परहेज किया है और वह राष्ट्रपति शी को फोन करके यह मुद्दा उठाने से भी बचे हैं जिसके बारे में अनेक भारतीयों का मानना है कि इससे सीमा गतिरोध को कम करने में मदद मिलेगी। नई दिल्ली ने कथित तौर पर वाशिंगटन से भारत-अमेरिका के संयुक्त बयानों में चीन की सीमा-पार घुसपैठ का उल्लेख करने में भी बचने का आग्रह किया है ताकि बीजिंग को ‘भड़काने’ से बचा जा सके।


ये कारक मोदी के अपने उन महान दावों के विपरीत हैं जो उन्होंने 2019 में अपने चुनावी अभियान के दौरान बार-बार किए थे कि वह ही एकमात्र नेता हैं जो एक मजबूत सरकार प्रदान कर सकते हैं और वही भारत को ‘महाशक्ति’ बना सकते हैं। ऐसे भरोसों-दावों के बावजूद भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा में गिरावट आई है क्योंकि विश्व समुदाय चीन का मुकाबला करने में उनकी सरकार की असफलता, लॉकडाउन और कोविड-19 की दूसरी लहर को लेकर इसकी अव्यावहारिकता और गंभीर दुस्साहस के साथ-साथ इसकी प्रतिशोध की राजनीति का भी गवाह है जहां इसने विरोधियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ अपनी कानून प्रवर्तन एजेंसियों का हथियार बनाकर इस्तेमाल किया है।

हालांकि यूक्रेन से 5,240 किलोमीटर दूर भी, भारत वहां की गर्मी को महसूस कर रहा है क्योंकि रूस और अमेरिकी नेतृत्व वाले नाटो गठबंधन के बीच की यह एक अच्छी रेखा है। रूस और अमेरिका- दोनों के साथ अपनी रणनीतिक साझेदारी के अलावा, दो युद्धरत शक्तियां क्रमश: इसके हथियारों के पहले और दूसरे सबसे बड़े विक्रेता भी हैं।   भारत सचेत है, हालांकि उसने कभी भी सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार नहीं किया है कि यह मुख्य रूप से एक प्रतिष्ठित ग्राहक के रूप में भारत के लिए उनका उच्च सम्मान है जिसने इन “रणनीतिक साझेदारी” को संचालित किया है और जो अनिवार्य रूप से लेनदेन से प्रेरित हैं।

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