तापमान बढ़ने से समुद्र से सटे कई बड़े महानगर मुश्किल में!

तापमान बढ़ने से समुद्र से सटे कई बड़े महानगर मुश्किल में, कोयले पर अधिक निर्भरता कम करनी ही होगी।

फोटो: Getty Images
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पंकज चतुर्वेदी

कॉप 30 की बैठक में हम भाग ले तो रहे हैं, पर देखना यह भी चाहिए कि पर्यावरण संरक्षण के लिए कुछ प्रयास कर भी रहे हैं या नहीं और जो कर रहे हैं, उनकी अहमियत कितनी है।

जीवाश्म ईंधन को न्यायसंगत, व्यवस्थित और समान तरीके से चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की प्रक्रिया को तेज करना कॉप 30 का अनिवार्य एजेंडा है। इसलिए इस पर विचार करना जरूरी है कि कोयला या पेट्रो ईंधन के विकल्प के रूप में हम जिस सौर ऊर्जा को चुन रहे हैं, क्या वह  पर्यावरण संरक्षण का दायित्व लंबे समय तक निभा सकता है? 

सौर पैनलों का जीवनकाल अधिकतम 25 से 30 साल होता है। पहले लगाए गए पैनल अब सेवामुक्त होने की कगार पर हैं। इससे 2030 के बाद, खास तौर पर 2050 तक ई-कचरे की मात्रा में भारी वृद्धि होने की आशंका है।

अंतरराष्ट्रीय नवीकरणीय ऊर्जा एजेंसी (इरेना) के अनुसार, 2050 तक वैश्विक सौर ई-कचरा बढ़कर 78 मिलियन टन तक पहुंच सकता है। भारत में भी 2030 तक यह 600 किलो टन से अधिक हो सकता है। सौर पैनल मुख्य रूप से ग्लास (लगभग 70 प्रतिशत), एल्युमिनियम फ्रेम, प्लास्टिक और तांबे के तार से बने होते हैं। 


हालांकि इनमें कैडमियम टेलुराइड, सीसा (लेड) और सेलेनियम जैसे हानिकारक और जहरीले भारी धातु भी अल्प मात्रा में होते हैं। यदि इन पैनलों को लैंडफिल में फेंक दिया जाता है, तो ये जहरीले पदार्थ रिसकर मिट्टी और भूजल को दूषित कर सकते हैं। सौर पैनलों की रीसाइक्लिंग आसान नहीं क्योंकि वे विभिन्न सामग्रियों की जटिल परतों, जैसे, ग्लास, प्लास्टिक की परतें और धातु के तार, से बने होते हैं जिन्हें अलग करना मुश्किल होता है। पैनलों के जटिल निर्माण के कारण रीसाइक्लिंग की प्रक्रिया महंगी होती है और रीसाइक्लिंग किए जाने वाले पदार्थ, जैसे, निम्न गुणवत्ता वाले ग्लास, बेचे जाने पर लागत की भरपाई नहीं कर पाते हैं।

मुख्य दिक्कत यह है कि हमारी अर्थव्यवस्था और ऊर्जा सुरक्षा अब भी कोयले पर अत्यधिक निर्भर है और हम अब भी इस पर ही जोर दे रहे हैं। नवीकरणीय ऊर्जा की तीव्र वृद्धि के बावजूद बढ़ती ऊर्जा मांग को पूरा करने के लिए नए कोयला संयंत्रों की योजना और कोयले के उत्पादन में वृद्धि जारी है। जीवाश्म ईंधन से न्यायसंगत और व्यवस्थित बदलाव एक बड़ी आर्थिक और सामाजिक चुनौती है। स्वच्छ ऊर्जा में बड़े पैमाने पर निवेश और उन्नत प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण की गति अब भी मांग के मुकाबले काफी कम है।

कॉप-30 सम्मेलन में शामिल वे देश सबसे अधिक चिंतित हैं जिन पर डूबने का खतरा तत्काल मंडरा रहा है। अपने यहां वैसा खतरा नहीं, पर अपने यहां समुद्र से सटे कई बड़े महानगरों पर इसका असर तो है ही। दरअसल, तापमान बढ़ने से समुद्र के जल स्तर में उफान बढ़ रहा है, जलवायु परिवर्तन के कारण चक्रवात बढ़ रहे हैं और तटीय कटाव की गति भी बढ़ती ही जा रही है।


विकासशील देश भूमि के डूबने या खेती-किसानी पर प्रभाव पड़ने-जैसे जलवायु परिवर्तन के अपरिहार्य और अपरिवर्तनीय प्रभावों के लिए अमीर देशों से वित्तीय मुआवजा देने के लिए एक विशिष्ट कोष बनाने की मांग करते रहे हैं। कॉप 28 में इस तरह के विशेष फंड पर  सहमति भी बनी थी। विकासशील देशों को स्वच्छ अर्थव्यवस्थाओं में परिवर्तन करने और जलवायु प्रभावों के अनुकूलन में मदद करने के लिए 2035 तक हर साल कम-से-कम 1.3 ट्रिलियन डॉलर जुटाने और उसके वितरण आदि पर सहमति बनाना इस सम्मेलन की बड़ी चुनौती है।

दरअसल, जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में पैसा बड़ी बाधा बना हुआ है। ऐतिहासिक रूप से उत्सर्जन के लिए सबसे कम जिम्मेदार विकासशील देश जलवायु प्रभावों के अनुकूलन और शमन के लिए भारी वित्तीय बोझ उठा रहे हैं। विकासशील देशों को 2035 तक अनुकूलन के लिए सालाना 310 बिलियन डॉलर से अधिक की जरूरत है। लेकिन विकसित देशों द्वारा 2020 तक प्रति वर्ष 100 बिलियन डॉलर देने का वादा ही अभी पूरी तरह से पूरा नहीं हुआ है। इस सम्मेलन में इस दिशा में कोई ठोस और जवाबदेह कदम की कोई उम्मीद दिख भी नहीं रही है। भारत सहित कई देशों ने मांग की है कि जलवायु वित्त का बड़ा हिस्सा अनुकूलन कार्यों, जैसे सूखा प्रबंधन, बाढ़ सुरक्षा और लचीली कृषि प्रणालियों के निर्माण पर केन्द्रित हो। लेकिन यह दूर की कौड़ी ही है।

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