बहुमत की दबंगई से संविधान की आत्मा के साथ खिलवाड़, लेकिन इसी देश में होगा सशक्त और व्यापक प्रतिकार

गांधी, नेहरू, आंबेडकर, राजेंद्र प्रसाद जैसे महान नेताओं ने भारत को धर्मनिरपेक्ष और सभी को हर स्तर पर समानता देने वाला संविधान दिया। आज तक यहां किसी के साथ भेदभाव नहीं हुआ। पाकिस्तान में यदि धर्म के आधार पर उत्पीड़न होता है तो भारत में भी क्यों होना चाहिए?

फोटोः सोशल मीडिया
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नवीन जोशी

सुदूर पूर्वोत्तर की शांति जैसे एक धमाके से भंग हो गई है। इनर लाइन परमिट की आड़ में वहां के जो राज्य फिलहाल नागरिकता संशोधन कानून से बचते दिख रहे हैं, वे भी सशंक हैं। एनआरसी की तलवार लटक तो रही ही है। बंगाल में विरोध बढ़ता जा रहा है। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार समेत लगभग सभी राज्यों में गुस्सा सुलग रहा है। छिटपुट प्रदर्शन भी कुचले जा रहे हैं जो प्रतिरोध को और हवा दे रहे हैं। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार जन आक्रोश को सुनने-समझने की बजाय उसके पीछे ‘कांग्रेस और मुसलमान गुंडों’ का हाथ बता रही है। प्रदर्शनकारियों का बर्बर दमन किया जा रहा है।अमित शाह से लेकर योगी आदित्यनाथ तक बढ़-चढ़कर घोषणा कर रहे हैं कि एनआरसी देश भर में लागू किया जाएगा। योगी ने तो एनआरसी को ‘सरदार पटेल की कल्पना के एक भारत-मजबूत भारत’ से जोड़ दिया है।

दूसरी तरफ, देश भर के मुसलमानों में आशंकाएं और भय व्याप्त होता जा रहा है। विभिन्न राज्यों से खबरें मिल रही हैं कि मुसलमान अपनी नागरिकता सिद्ध करने के लिए दस्तावेज जुटाने में लगे हैं, जिनके अभाव में उन्हें ‘घुसपैठिया’ बताकर देश से खदेड़े जाने का खतरा पैदा हो गया है। संसदीय बहुमत के गुमान में चूर मोदी सरकार विवादित मुद्दों पर जनमत जानने या उस पर बहस आमंत्रित करने की बजाय अपने फैसले एकाएक और जबरिया थोप रही है। नोटबंदी का फैसला हो या कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने से लेकर एनआरसी या नागरिकता संशोधन कानून- सभी फैसले बहुमत के जोर से थोपे गए हैं।

सरकार ने आज तक नोटबंदी के भारी नुकसान कुबूल नहीं किए, न ही वह एनआरसी और नागरिकता कानून की असंवैधानिकता की कोई चिंता कर रही है। संविधान की प्रति के सामने शीश नवाने और संसद की सीढ़ियों पर मत्था टेकने वालों की सरकार वस्तुतः लोकतंत्र के नाम पर बहुमत की दबंगई चला रही है। असम में एनआरसी लागू करने की कोशिश में जो उतावली की गई, उसके नतीजे में नागरिकता संशोधन कानून लाया गया। वहां जो 19 लाख से ज्यादा लोग एनआरसी से बाहर रह गए थे, उनमें अधिसंख्य गैर-मुस्लिम निकले। नागरिकता संशोधन कानून उसी ‘गलती’ की भरपाई के लिए लाया गया।

लेकिन यह चिंता बीजेपी को है ही नहीं कि इस कानून के प्रावधान स्पष्टतः संविधान की मूल भावना और भारतीय समाज की विशिष्ट पहचान पर चोट करते हैं। संयुक्त राष्ट्र से लेकर विभिन्न देशों में मोदी सरकार के इन फैसलों पर न केवल आश्चर्य बल्कि विरोध भी व्यक्त किया जा रहा है तो उसके पर्याप्त कारण हैं। जिस धार्मिक-जातीय-सांस्कृतिक अनेकता में एकता के लिए भारत की पहचान रही है और जिस देश का संविधान बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक को समानता का अधिकार देता है, उसमें किसी धार्मिक समुदाय के प्रति भेदभाव का कानून कैसे बनाया जा सकता है?


नागरिकता कानून में किया गया संशोधन कहता है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से ‘उत्पीड़ित’ होकर भारत आए हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, पारसियों को देश की नागरिकता दी जा सकती है। इसमें मुसलमानों को जानबूझ कर छोड़ दिया गया है। तर्क यह दिया गया है कि ये देश ‘इस्लामिक’ हैं इसलिए वहां मुसलमान उत्पीड़ित नहीं हो सकते। इस तर्क में अनेक कुतर्क हैं। अगर दूसरे देशों के गैर-मुस्लिम उत्पीड़ितों की चिंता है तो नेपाल, म्यांमार- जैसे पड़ोसी देशों को क्यों छोड़ दिया गया?

फिर, इस्लामिक देशों में भी कोई मुस्लिम उत्पीड़ित क्यों नहीं हो सकता? विभाजन के समय पाकिस्तान गए बहुतेरे मुस्लिम आज भी वहां उत्पीड़ित हैं। कई लौटे भी क्योंकि उन्हें वह पाकिस्तान नहीं मिला जिसकी उम्मीद में वे वहां गए थे। अपना मूल मुल्क अगर उन्हें आज बेहतर लगता है तो वे यहां ससम्मान क्यों नहीं रह सकते? ऐसे मुसलमान यहां घुसपैठिए कहलाएं और बाकी सब नागरिकता दिए जाने योग्य शरणार्थी, कानून में संशोधन करके इस भेदभाव को संवैधानिक स्वीकृति कैसे दी जा सकती है?

गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में बार-बार यह कहा कि इस देश का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ और ऐसा नहीं हुआ होता तो यह कानून बनाने की जरूरत नहीं पड़ती। यह अमित शाह की गलत बयानी है। पाकिस्तान की मांग धर्म के आधार पर थी, जिसे महात्मा गांधी ने तो, खैर, अंतिम समय तक रोकने की कोशिश की ही, कांग्रेसी नेताओं ने भी पूरा विरोध किया। अंततः पाकिस्तान बना। लेकिन जो भारत बचा रहा, वह कहीं से भी धर्म के आधार पर नहीं है। मुसलमानों की बड़ी आबादी ने फिर भी इसे अपना देश माना और पाकिस्तान जाने से इनकार किया।

गांधी, नेहरू, आंबेडकर, राजेंद्र प्रसाद और अन्य महान नेताओं ने भारत को धर्मनिरपेक्ष और सभी नागरिकों को हर स्तर पर समानता देने वाला संविधान दिया। आज तक यहां किसी के साथ इस तरह का भेदभाव नहीं हुआ। भारत की बहुलता की प्राचीन परंपरा है। पाकिस्तान में यदि धर्म के आधार पर उत्पीड़न होता है तो भारत में भी क्यों होना चाहिए? मुसलमानों से भेदभाव वाला कानून बनाकर उनके साथ उत्पीड़न ही तो किया जा रहा है! नागरिकता कानून में संशोधन से बहुत बड़ी आबादी प्रभावित नहीं होती, लेकिन जो सबसे ज्यादा प्रभावित होता है, वह है भारत की बहुलता और संविधान की मूल भावना जिसे सबसे बड़ा खतरा एनआरसी से है।


बीजेपी और संघ के नेता डंके की चोट पर कह रहे हैं कि एनआरसी पूरे देश में लागू होगा। इसकी तयैारियां भी होने लगी हैं। बड़ी मुसलमान आबादी भय और संशय में जी रही है। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में हाल ही में प्रकाशित एक समाचार बताता है कि कई राज्यों में मुसलमान अपनी भारतीय विरासत के प्रमाण जुटाने में लगे हैं। कई संगठन इसमें उनकी सहायता कर रहे हैं कि दस्तावेज पुख्ता हों, जन्म-तिथि, नाम और वल्दियत सही दर्ज हो, हिज्जों की भी गलतियां न हों। महाराष्ट्र, कोलकाता, बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना सहित कई राज्यों में शिविर लगाकर मुसलमानों को आवश्यक दस्तावेजों के बारे में बताया जा रहा है, उन्हें जांचा जा रहा है ताकि एनआरसी के वक्त किसी कमी या विसंगति के कारण उन्हें घुसपैठिया घोषित न कर दिया जाए।

औरंगाबाद के डॉ. भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय के शोध-छात्र अता-उर-रहमान नूरी ने इस बारे में एक किताब ही लिख डाली है। ‘एनआरसीः अंदेशे, मसले और हल’ नाम की इस पुस्तक के अब तक दो संस्करण बिक चुके हैं। हर संस्करण 1100 प्रतियों का है। तीसरा संस्करण छप रहा है। इससे साबित होता है कि मुसलमानों में कितनी चिंता है और वे किस कदर परेशान हैं। भारत में जन्म होने का प्रमाण ही मुसलमानों के लिए नागरिकता के लिए पर्याप्त नहीं है। उन्हें बाप-दादों के और जमीन आदि के मालिकाना हक के पुख्ता प्रमाण पेश करने होंगे, अन्यथा वे ‘घुसपैठिया’ करार दिए जाएंगे।

अगर कोई गैर-मुसलमान अपने दस्तावेज नहीं दे पाता तो वह ‘घुसपैठिया’ नहीं, शरणार्थी माना जाएगा और नागरिकता का हकदार होगा। इसमें शक नहीं कि यह मुसलमान-विरोधी अभियान है। एकमात्र मुस्लिम-बहुल राज्य की पहचान खत्म की ही जा चुकी की है। यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं होगा। समान नागरिक संहिता की चर्चा भी शुरू हो चुकी है। ‘हिंदू-राष्ट्र’ के एजेंडे पर जोर-शोर से काम चल रहा है, जिसमें मुसलमानों के लिए सम्मान की कोई जगह नहीं होगी। बढ़ता विरोध और उसकी आक्रामकता बताती है कि इन मंसूबों का सशक्त और व्यापक प्रतिकार होगा।

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