चुनाव विश्लेषण: अजेय नहीं रहे मोदी, उन्हें हराया जा सकता है

गुजरात चुनाव ने साबित कर दिया है कि मोदी का करिश्मा कम हो रहा है। हिंदू हृदय सम्राट की उनकी छवि टूट रही है। एक सोशल इंजीनियरिंग और प्रेम की राजनीति से मोदी को हराया जा सकता है।

फोटो : सोशल मीडिया
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ज़फ़र आग़ा

आपको अच्छा लगे या न लगे, लेकिन हकीकत यही है कि बीजेपी और कांग्रेस के बीच हिमाचल प्रदेश और गुजरात की चुनावी जंग में नरेंद्र मोदी एक विजेता की तरह उभर कर सामने आए हैं। हिमालच प्रदेश में परंपरागत रूप से एक बार कांग्रेस और एक बार बीजेपी की सरकारें बनती रही हैं, और इस बार बीजेपी की बारी थी। बीजेपी जीती, इसलिए वहां के बारे में ज्यादा कहने-सुनने को कुछ खास है नहीं।

लेकिन, गुजरात का चुनाव नरेंद्र मोदी के तीन साल के शासन पर जनमत जरूर कहा जाएगा। कांग्रेस की अगुवाई में विपक्ष ने नोटबंदी और जीएसटी का एकदम सही मुद्दा उठाकर गुजरात में मोदी पर हमला बोला। कांग्रेस ने पूरे गुजरात में एक सामाजिक सामंजस्य बनाते हुए पाटीदार-पटेलों, ओबीसी और दलितों के साथ अल्पसंख्यकों को अपने साथ जोड़कर के सतरंगी मोर्चा बनाया और हवा अपने पक्ष में कर ली। गुजरात के तीन युवाओं, हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी और अल्पेश ठाकुर की तिकड़ी ने खुलकर कांग्रेस का समर्थन किया।

लेकिन, नरेंद्र मोदी अपने पुराने ही रंग में रहे। लोगों को बांटने और बेशर्मी की हद तक झूठ बोलने का रवैया उन्होंने जारी रखा। मोदी का यह रूप 2002 के गोधरा दंगों के बाद सबके सामने रहा है। लेकिन, इस बार मोदी घबराए हुए नजर आए। रैलियों में लोगों का आना और गुजरात के कई इलाकों में बीजेपी कार्यकर्ताओँ की पिटाई से मोदी की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी। ऐसे में मोदी ने फिर से वही हथकंडा अपनाया, सांप्रदायिक और क्षेत्रीय एजेंडा को चुनावों का मुख्य बना दिया। मोदी के इस एजेंडे के कारण 2017 के गुजरात चुनाव को इसलिए भी याद किया जाएगा कि कैसे एक प्रधानमंत्री ने एक पूर्व प्रधानमंत्री पर पाकिस्तान के साथ मिलकर गुजरात में चुनाव जीतने की साजिश रचने का आरोप लगाया। चुनाव जीतने के लिए मोदी ने सारी हदें पार कर लीं, और वह चुनाव जीत भी गए।

लेकिन क्या अजेय रह पाए मोदी? क्या 2017 के गुजरात चुनाव के बाद भी कहा जाएगा कि मोदी को कोई नहीं हरा सकता?

लोगों को बांटने की रणनीति बनाने में मोदी को महारत हासिल रही है। वह बहुसंख्यक हिंदुओं को मुसलमानों का खौफ दिखाते हैं। वे भावनाएं भड़काते हैं, वे बहुसंख्यकों में भय का माहौल पैदा करते हैं, जो भड़ककर ध्रुवीकरण की तरफ बढ़ जाता है। और, इस सबके नतीजे में मोदी को मिलता है बीजेपी की हिमायत करने वाला एक ठोस हिंदू वोट बैंक। दरअसल हर चुनाव में आरएसएस इस तरह के हथकंडे अपनाता रहा है। लेकिन कोई अन्य नेता इस हथकंडे का इस्तेमाल लंबे समय तक उतना नहीं कर पाया, जितना मोदी कर रहे हैं। पिछले करीब एक-डेढ़ दशक से वे इसी हथकंडे के दम पर जीत रहे हैं।

उन्होंने गोधरा के बाद हुए गुजरात चुनावों में एक्शन-रिएक्शन का फार्मूला अपनाया और खुद को एक गुजराती हिंदू रक्षक के तौर पर पेश किया। ऐसा रक्षक जो मुस्लिम हत्यारों से हिंदुओं की रक्षा करेगा। फार्मूला काम कर गया, और मोदी पहला चुनाव जीत गए। दूसरी बार उन्होंने हिंदुओं को उस आतंकवाद का खौफ दिखाया, जो कथित तौर पर मुस्लिम फैलाते हैं। इसके लिए उन्होंने मियां मुशर्रफ और हमारे पांच, उनके पच्चीस का फार्मूला अपनाया। हिंदू झांसे में आ गए और मोदी फिर जीत गए। तीसरी बार उन्होंने गुजरात मॉडल की बात तो की, लेकिन मुसलमानों को दुश्मन के तौर पर भी पेश किया। यही रणनीति मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में भी अपनाई।

इस सबसे साबित होता है कि एक काल्पनिक मुस्लिम शत्रु बनाकर हिंदुओं में खौफ पैदा करना और उन्हें अपने वोट बैंक में बदलना ही मोदी की असली रणनीति रही है। लेकिन अब मोदी इसी रणनीति को थोड़ी चालाकी या कहें कि धूर्तता के साथ अपनाते हैं। इस बार उनके सामने चुनौती कठिन थी। मोदी को हार सामने दिखने लगी थी। कम से कम पहले दौर के गुजरात मतदान के बाद तो ऐसा ही हुआ था। रैलियों में भीड़ का न आना और बीजेपी कार्यकर्ताओँ के ढीले पड़े मनोबल ने मोदी की नींद उड़ा दी। मोदी को अच्छी तरह पता था कि अगर अहमदाबाद हाथ से फिसला, तो दिल्ली की गद्दी जाने में वक्त नहीं लगेगा। ऐसे में मोदी ने गुजरात चुनाव को जीवन-मरण का प्रश्न बना लिया। और इसके लिए मोदी ने सांप्रदायिकता का वह रंग अपनाया कि लोग देखते रह गए।

रोचक तथ्य यह है कि आरएसएस भी मोदी की ही नाव में सवार है। अगर मोदी कमजोर होते हैं, तो भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का उसका सपना चूर-चूर हो जाएगा। ऐसे में मोदी-भागवत की जोड़ी ने गुजरात चुनाव में हार से बचने के लिए अपने तरकश के हर तीर को इस्तेमाल किया। दोनों ने बंटवारे का कार्ड खेला और इसे बेहद बेशर्मी के साथ दूसरे दौर के मतदान के लिए इस्तेमाल किया। मोदी ने पाकिस्तान को नए सिरे से ऐसे दुश्मन के तौर पर पेश किया जो एक गुजराती प्रधानमंत्री की सरकार गिराना चाहता है। इस बहाने उन्होंने खुद को गुजरात के ऐसे धरती पुत्र के रूप में पेश किया जो गुजराती अस्मिता के लिए जी-जान लगाने को तैयार है। आपको याद होगा कि कैसे मोदी ने एक अनजान से किसी सलमान निजामी की फेसबुक पोस्ट का हवाला देते हुए पाकिस्तान को गुजरात चुनावों में शामिल किया, इसके बाद मोदी ने मणिशंकर के उस बयान को मुद्दा बनाया जिसमें नीच शब्द का इस्तेमाल हुआ था। ये दोनों बातें उन्होंने इस तरह पेश कीं कि यह एक गुजराती प्रधानमंत्री का अपमान हो रहा है।

बात यहीं नहीं रुकी। राजनीतिक विमर्श को और निम्न स्तर पर ले जाते हुए, मोदी ने मणिशंकर अय्यर के घर पर हुई एक पूर्व पाकिस्तानी मंत्री की बैठक का मुद्दा बना दिया। अपने भाषणों में प्रधानमंत्री पद की गरिमा को किनारे कर मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर आरोप लगा दिया कि वे उनके खिलाफ साजिश रच रहे हैं। मोदी के इस इशारे पर संघ की मशीनरी मानो मैदान में नए सिरे से टूट पड़ी। उसने घर-घर जाकर यह प्रचार फैलाया कि अगर मोदी हार गए तो गुजरात में मुस्लिम राज हो जाएगा।

कांग्रेस को इस तरह पेश किया गया मानो वह 21वीं सदी की मुस्लिम लीग हो, लोगों को कांग्रेस के शासन के दौरान गुजरात में हुए दंगों की याद दिलाई गई। यह वही पुराना फार्मूला था जिसमें हिंदुओं को मुसलमानों का खौफ दिखाया गया, और ध्रुवीकरण किया गया। मोदी को नए सिरे से हिंदु रक्षक के तौर पर पेश किया गया। इस तरह एक बार फिर बीजेपी ने गुजरात जीत लिया।

सांप्रदायिक और क्षेत्रीय कार्ड का इस्तेमाल करते हुए मोदी ने बेशक गुजरात चुनाव जीत लिया। लेकिन, यह भी हकीकत है कि पटेलों, दलितों और ओबीसी का बड़ा हिस्सा बीजेपी के हाथ से निकल चुका है। इस तरह बीते 15 सालों से देश के हिंदू ह्दय सम्राट की मोदी की छवि और हिंदु वोटों पर मोदी का एकछत्र अधिकार टूट चुका है।

लेकिन, इसी बात में थोड़ा सा पेंच है। गुजरात ने दिखाया है कि किस तरह कांग्रेस ने जो सामाजिक गठबंधन या सोशल इंजीनियरिंग की, उससे मोदी के ठोस हिंदू वोट बैंक में सेंध लगी है। राजनीतिक तौर पर बहुत से उदारवादी लोगों को यह बात भले ही अजीब सी लगे, लेकिन यह सच्चाई सामने आई है कि अगर सोशल इंजीनियरिंग कर आरक्षण आदि मामलों और बेरोजगारी और किसानों की समस्याएं उठाकर हिंदू सांप्रदायिकता से निपटा जा सकता है।

एक और दिलचस्प बात है। वह यह कि, राहुल को लेकर लोगों का उत्साह और कांग्रेस की सीटों में अच्छी खासी बढ़ोत्तरी संकेत देती है कि उदारवादी भारतीय परंपराएं पुनर्जीवित हो रही हैं। जरूरत है तो बस सामाजिक मुद्दों को सामने लाने की और बिना नर्म हिंदुत्व के उदारवादी हिंदू परंपराओँ की याद दिलाने की।

राहुल गांधी ने ये प्रयोग गुजरात में करके दिखा दिया, जिसकी नतीजा है कि लंबे समय बाद कांग्रेस सीटों की संख्या सम्मानजनक स्थिति में पहुंची है। यही रणनीति 2019 में भी काम कर सकती है। इसके लिए यूपीए की तरह का एक गैर बीजेपी मोर्चा और उम्मीदवार सामने लाना होगा। लेकिन बिना सांगठनिक ताकत के गैर-बीजेपी माहौल बनाना थोड़ा टेढ़ा काम है, लेकिन असंभव नहीं।

संगठन बनाना और उसे जीतने लायक बनाना, एक लंबी प्रक्रिया है। सोनिया गांधी ने 2004 में सिविल सोसायटी को इसमें शामिल किया, और यह काम कर गया। कांग्रेस को सोनिया गांधी की इस रणनीति पर फिर से गौर करना होगा। क्योंकि, खालिस सांप्रदायिक आधार पर जीते गए गुजरात के बाद बीजेपी-आरएसएस की जोड़ी इसे 2019 के आम चुनावों में जरूर अपनाएगी। वह राम मंदिर निर्माण का रास्ता भी हो सकता है, जिससे हिंदू भावनाएं चरम पर पहुंच जाएं।

ऐसे में, दूसरे दलों की मदद से कांग्रेस को गुजरात से सीख लेते हुए 2019 की रणनीति पर अभी से काम शुरु करना होगा। कांग्रेस की कमान अब युवा और जोशीले राहुल के हाथों में है, जो जाति, धर्म की बाधाएं तोड़कर सबके साथ घुलमिल सकते हैं। इस तरह देश में दिनों दिन बढ़ रही नफरत की राजनीति को दफ्न किया जा सकता है।

मोदी बाज नहीं आएंगे। वह राष्ट्रीय स्तर पर ध्रुवीकरण करेंगे। क्योंकि उन्हें यही करना आता है। राहुल को अपने उस बयान पर कायम रहना होगा, जिसमें वह प्यार और भाईचारे की राजनीति की बात करते हैं। सोशल इंजीनियरिंग करते हुए रोजगार, गिरती आर्थिक स्थिति जैसे मुद्दों को जिंदा रखना होगा।

फिर कोई नहीं कह पाएगा कि मोदी को हराया नहीं जा सकता है। भारतीय लोकतंत्र अपनी जड़ों में मजबूत है और फिर से जिंदा हो रहा है।

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