मोदी सरकार सैन्य छावनियों और जंगलों में बेकार पड़ी जमीन से कमाई करने के लिए बेचैन, आखिर इससे किसका होगा फायदा ?

पर्यावरण के क्षेत्र में मोदी सरकार की नीयत शुरू से ही संदिग्ध रही है। बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव को मंत्रालय की वेबसाइट ‘परिवेश’ पर दिखाया जाता रहा था लेकिन पिछले साल के अंत में केंद्र सरकार ने ऐसा करने से रोक दिया।

फोटो: सोशल मीडिया
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रश्मि सहगल

मोदी सरकार को जमीन कब्जाने का इतना जुनून क्यों है? अप्रैल के अंत में सरकार ने सभी 62 सैन्य छावनियों को भंग करने की अधिसूचना जारी की जिससे हजारों लाख रुपये की 1.61 लाख एकड़ भूमि मुक्त हो जाएगी। इससे एक महीने पहले 29 मार्च, 2023 को सरकार ने वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023 पेश किया जो लाखों हेक्टेयर हरे-भरे क्षेत्रों को तमाम तरह के नियम-कानूनों की जंजीरों से आजाद कर देगा।

यह विधेयक ऐसे समय पेश किया गया जब यूके स्थित यूटिलिटी बिडर ने खुलासा किया कि कैसे बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई के कारण भारत ने छह लाख हेक्टेयर जंगल को खो दिया और यह सब 2015 और 2020 के बीच तो बड़ी तेजी से हुआ।

न सिर्फ पर्यावरणविद, बल्कि सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों ने भी छावनियों को ‘डी-रिजर्व’ किए जाने के खिलाफ आगाह किया है कि ये हमारे शहरों में आखिरी बचे हरित क्षेत्र हैं। वे न केवल कार्बन और अन्य प्रदूषकों को अवशोषित करते हैं बल्कि हमारे खराब नियोजित शहरों के अत्यधिक बोझ वाले बुनियादी ढांचे को भी राहत पहुंचाते हैं।

पूर्व वाइस आर्मी चीफ लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) विजय ओबेरॉय ने कहा, ‘छावनी को डी-रिजर्व करने की असली वजह यह है कि वहां विकसित बुनियादी ढांचा है जिससे इसकी भूमि पर प्रीमियम बहुत अधिक हो गया है। उन्हें सेना के नियंत्रण से बाहर करने से उन्हें आसानी से निपटाया जा सकेगा, खासकर तब जब भू-माफिया इसका बेसब्री से इंतजार कर रहे हों।’ मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) राजेंद्र प्रकाश भी कहते हैं, ‘नेताओं की नजर हमेशा से रक्षा भूमि पर रही है और यह कदम उन्हें ऐसी जमीन डेवलपर्स और भू-माफिया को बेचने का मौका दे देगा।’

वन संरक्षण संशोधन विधेयक (एफएसी) में कहा गया है कि यह केवल उन भूमि पर लागू होगा जो 25 अक्तूबर, 1980 को या उसके बाद जंगलों के रूप में दर्ज किए गए हैं। इसका मतलब अरावली के बड़े इलाके, तराई क्षेत्र के जंगलों के साथ-साथ उत्तर पूर्व और पश्चिमी घाट के वर्षा वनों को अब ‘जंगल’ नहीं माना जाएगा। इन्हें बेचा या काटा जा सकेगा। जाहिर है, वनों के रूप में दर्ज नहीं किए गए लाखों हेक्टेयर वन क्षेत्र को ज्यादा बोली लगाने वाले को बेचा जा सकेगा क्योंकि उनकी बिक्री अब किसी नियामक निरीक्षण के अधीन नहीं होगी।


आजादी के 75 वर्षों में, पर्यावरण और वन मंत्रालय ‘वन’ की कोई कानूनी परिभाषा नहीं बना पाया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस कमी को टी.एन. गोडावर्मन थिरुमुलपाद, 1996 के फैसले से पूरा करने की कोशिश की और उन वनों को कानूनी सुरक्षा दी जिन्हें अधिसूचित नहीं किया गया था। फैसले के बाद किसी भी सरकारी मंजूरी में उल्लिखित वन भूमि को पर्यावरण और वन मंत्रालय की मंजूरी चाहिए थी।

विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के सीनियर रेजिडेंट फेलो देबदित्य सिन्हा आगाह करते हैं कि यह बिल टी.एन. गोदावर्मन फैसले में ‘डीम्ड फॉरेस्ट’ के प्रावधानों को कमजोर करता है जहां सरकारी रिकॉर्ड में वन के रूप में दर्ज किसी भी भूमि को ‘फॉरेस्ट क्लीयरेंस’ की जरूरत होती है। संशोधन में सिर्फ उसी भूमि को शामिल करने का प्रस्ताव है जो 25 अक्तूबर, 1980 को या उसके बाद वन के रूप में दर्ज हैं।

राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ में यह संशोधन वन भूमि के बड़े हिस्से को मुक्त कर देगा जो निर्विवाद रूप से संबंधित अधिकारियों को सौंप दिया जाएगा। रेल पटरियों के साथ की भूमि; अंतरराष्ट्रीय सीमा, नियंत्रण रेखा और वास्तविक नियंत्रण रेखा से लगती जमीन, रक्षा परियोजनाएं, अर्धसैनिक शिविर और सुरक्षा से संबंधित बुनियादी ढांचे के निर्माण जैसे कारणों से भूमि का अधिग्रहण किया जाएगा।

स्थानीय पर्यावरण या इन क्षेत्रों में रहने वाले जनजातीय समुदायों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, इस पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। उत्तर पूर्व में सरकार रणनीतिक उद्देश्यों के लिए 100 किलोमीटर से अधिक वन भूमि ले सकेगी। हालांकि विशेषज्ञों ने आगाह किया है कि इसके दायरे में पूरा उत्तर पूर्व हिमालयीन क्षेत्र आ जाएगा।

जंगल की जमीन का ‘सिल्विकल्चर’ यानी जंगल बढ़ाने वाले फॉर्म, चिड़ियाघर, सफारी समेत अन्य इको टूरिज्म सुविधाओं के निर्माण और ‘किसी भी अन्य उद्देश्यों’ के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। सारा खेल ‘किसी भी अन्य उद्देश्य’ में ही दिखता है क्योंकि यह इतना अस्पष्ट और इतना व्यापक है कि इसके तहत कुछ भी हो सकता है। जाहिर है, नतीजा वही होगा, हमारे वनों के इलाकों का बेचा जाना।


सिल्विकल्चर और वृक्षारोपण वनों के लिए बड़े खतरे हैं। वे आरक्षित वनों के व्यावसायीकरण को बढ़ावा देते हैं। यह एक गलत धारणा है कि वन्य जीवन केवल संरक्षित क्षेत्रों के अंदर ही होते हैं। वास्तव में ऐसा नहीं है क्योंकि जानवर एक रहवास से दूसरे में आते-जाते रहते हैं। अगर विधेयक पास हो जाता है, तो वन्यजीवों पर इसका प्रभाव विनाशकारी होगा। पर्यावरणविद प्रेरणा बिंद्रा का मानना है कि अरावली में प्रस्तावित सफारी पार्क से वनस्पति और वन्यजीव रहवास को नुकसान होगा। कॉर्बेट और नीलगिरी बायोस्फीयर रिजर्व में पर्यटन बुनियादी ढांचे के निर्माण का नतीजा सामने है जिससे जंगली रहवास और गलियारे प्रभावित हुए।

ऐसा नहीं है कि वन संरक्षण अधिनियम, 1980 के तहत भूमि का गलत इस्तेमाल नहीं हो रहा था। मंत्री अश्विनी चौबे ने 6 अप्रैल, 2023 को राज्यसभा को बताया कि पिछले पांच सालों में 88.9 हेक्टेयर वन भूमि को गैर-अधिनियमित कार्यों के लिए उपलब्ध कराया गया। सबसे ज्यादा, 18,424 हेक्टेयर वन क्षेत्र सड़क निर्माण के लिए दिया गया। इसके बाद खनन के लिए 18,847 हेक्टेयर, सिंचाई परियोजनाओं के लिए 13,344 हेक्टेयर, ट्रांसमिशन लाइनों के लिए 9,469 हेक्टेयर और रक्षा परियोजनाओं के लिए 7,630 हेक्टेयर का नंबर आता है।

ऐसा लगता है कि इस संशोधन का उद्देश्य बुनियादी ढांचा परियोजना ही नहीं हैं जिसपर हाल के समय में ऐसे खतरनाक तरीके से काम हो रहा है कि न तो खेती की जमीन की परवाह की जा रही है और न ही जंगल की जमीन की, बल्कि नेता, अफसर और डेवलपर्स के गठजोड़ को फायदा पहुंचाना भी है।

ज्यादातर राज्य सरकारें इस संशोधन से खुश होंगी क्योंकि जंगलों की लूट-खसोट में वे भी हिस्सेदारी पा सकेंगी। उत्तराखंड की भाजपा सरकार वनों की परिभाषा बदलकर वन भूमि को मुक्त करने की फिराक में है। तीन साल पहले, राज्य सरकार ‘डीम्ड वन’ की परिभाषा बदलकर बिल्डर लॉबी को फायदा पहुंचाना चाहती थी। जब देहरादून की रीनू पॉल के नेतृत्व में कई पर्यावरणविद सरकार को अदालत में ले गए तब जाकर यह परियोजना रुक सकी।

पर्यावरण के क्षेत्र में मोदी सरकार की नीयत शुरू से ही संदिग्ध रही है। बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव को पर्यावरण मंत्रालय की वेबसाइट ‘परिवेश’ पर दिखाया जाता रहा था लेकिन पिछले साल के अंत में केंद्र सरकार ने ऐसा करने से रोक दिया। इसकी वजह यह है कि पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को अतीत में लिए गए कई पर्यावरण-विरोधी फैसलों के कारण आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा था। इनमें ग्रेट निकोबार द्वीप के समग्र विकास को आगे बढ़ाने का उनका निर्णय भी शामिल था जिसमें 130 वर्ग किलोमीटर के वर्षा वनों का नुकसान अनुमानित है और प्रमुख जनजातीय रिजर्व को गैर-अधिसूचित किया गया। इसके साथ ही कई खनन परियोजनाएं भी हैं जिसके कारण मध्य भारत में प्राथमिक वनों को नुकसान हुआ।


सरकार अब इस संशोधन को आगे बढ़ाने के मूड में है और अपने फैसले को सही साबित करने के लिए बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण को बढ़ावा देने की बात कर रही है। सरकार का कहना है कि इससे कार्बन को अवशोषित किया जा सकेगा और यह एक तरह से पर्यावरण को हुए नुकसान की भरपाई होगी। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि इस काम में प्राकृतिक वन ही सबसे प्रभावी होते हैं।

दुनिया भर में वृक्षारोपण जैव विविधता को बनाए रखने या पारिस्थितिकी तंत्र के कार्यों को करने में विफल साबित हुए हैं। लेकिन सरकार को यह कौन समझाए?

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