विदेश नीति के मोर्चे पर भ्रम में मोदी सरकार, नतीजा सारे पड़ोसी देशों से रिश्तों पर लग गया है ग्रहण!

क्या हम यह मान सकते हैं कि बालाकोट और उरी ने पाकिस्तान को होश में ला दिया है और सीमा पार आतंकवाद अब गुजरे दिनों की बात हो गई है? अगर ऐसा ही है तो जम्मू-कश्मीर के लोगों को 4-जी कनेक्टिविटी से इंकार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में लगातार आतंकवादी हमलों की दलील क्यों दी गई?

फोटो: सोशल मीडिया
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सलमान खुर्शीद

विदेश मंत्री की एक विशिष्ट वंशावली है (जो कि नामदार के रूप में उनके मामले में अयोग्यता नहीं हो सकती ) और उन्होंने पूरी क्षमता और उत्साह के साथ भारत की सेवा की है। मुझे उनका मंत्री बनने का सौभाग्य मिला जब वह चीन और अमेरिका में हमारे राजदूत थे और जब हमने उनकी वरिष्ठ सहयोगी सुजाता राव को विदेश सचिव बनाया था। मुझे उनकी महती सेवाओं को स्वीकार करने के साथ इस तथ्य को भी मानना होगा कि उनके आईएफएस सहयोगी उनकी काफी इज्जत करते थे। लेकिन उनके पास एक ऐसा काम है जो शायद उनके जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति के लिए भी बहुत मुश्किल है और मेरा खुद का भीअनुभव ऐसा ही रहा। एक पूर्व विदेश मंत्री और उनके पहले इस पद को संभालने के कारण मेरा मानना है कि ऐसे समय जब भारत के सामने पाकिस्तान और चीन के रूप में पहले से ही दो मोर्चे हैं, सत्तारूढ़ बीजेपी और कांग्रेस के बीच तीसरा मोर्चा नहीं खोला जाना चाहिए। इसके अलावा हमारे बारे में जो कुछ भी कहा जाएगा, उस पर दुनिया भर में हमारे दोस्तों के अलावा दुश्मनों की भी पैनी नजर होगी जो हमारी राजनीतिक व्यवस्था में दरार के किसी संकेत का इंतजार कर रहे हैं। लगता है, विदेश नीति के मामले में राष्ट्रीय सहमति तो अब जैसे बीते दिनों की बात हो गई है।

राजनयिक और कूटनीतिक रहे एक जन प्रतिनिधि के बीच आसमान जमीन का अंतर होता है। मैं जानता हूं कि परंपरागत रूप से विदेश नीति, विशेष रूप से पांच बड़े देशों, के मामले में प्रधानमंत्री खुद ड्राइविंग सीट पर होते हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार कार्यालय के बनने के बाद यह स्थिति और भी मजबूत हुई है। इसलिए यह और भी जरूरी हो जाता है कि वह व्यक्ति जिसके पैर राजनीति की जमीन पर हों, वह हमारे बेहतरीन राजनयिकों के सुझावों और दृष्टिकोण को ही आगे बढ़ाए। शायद यह भारत और हमारी राजनीति के लिए एक अजीब-सी बात है क्योंकि यूरोप के कई देश राजनयिकों को ही प्रोन्नति देकर उन्हें विदेश मंत्री बनाते हैं लेकिन ब्रिटेन जहां की कैबिनेट प्रणाली का हम हमेशा से पालन करते रहे हैं, में विदेश मंत्री एक राजनीतिक व्यक्ति रहा है। हो सकता है कि हमारी यह परंपरा काफी कारगर रही हो या फिर शायद मौजूदा हालात हमें उस स्थिति पर गौर करने को प्रेरित कर रहे हैं। जो भी हो, मैं यह बात स्वीकार करता हूं कि मौजूदा स्थितियों में यह दलील दोनों तरीके से रखी जा सकती है।


एनडीए के पहले कार्यकाल के दौरान दिलचस्प बात यह रही कि कई वर्षों तक घोषणा पत्र में किए वादों से पीछे हटने के मुद्दे पर सरकार से लगातार सवाल किए जाते रहे और सरकारी डफली बजाने वालों ने तब विदेशों में मिल रही शानदार सफलता को ढाल बनाया। यह बात माननी होगी कि प्रधानमंत्री ने जिस तरह बिना थके विदेशों की यात्राएं कीं, वह प्रभावशाली थीं और उनका लपक कर नेताओं से गले मिलना एकदम खास और व्यापक रहा। लेकिन इससे हासिल क्या हुआ, यह राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के मामले को छोड़कर, अब तक स्पष्ट नहीं है। अमेरिकी राष्ट्रपति की इस यात्रा के कारण ही संभवतः गुजरात में कोविड-19 के फैलने के रूप में हमें बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ी।

हमें बार-बार बताया गया कि प्रधानमंत्री की अथक यात्राओं से हमारे यहां निवेश में भारी वृद्धि होगी और दुनिया भर के नेताओं ने इसके लिए हमें भरोसा दिलाया है। हम अब तक वैसा कुछ होने का इंतजार ही कर रहे हैं और उल्टे भारत की पूंजी ही संयुक्तअरब अमीरात समेत अन्य सुरक्षित जगहों पर जाने लगी है। राष्ट्रपति ट्रंप के साथ बहुप्रचारित दोस्ती एच1बी1 वीजा मामले में काम नहीं आई और न ही व्यापार से जुड़े मामलों में जिनके कारण भारतीय व्यापार और उद्योग जगत को परेशानी उठानी पड़ रही है। ट्रंप की ओर से भारत और चीन के बीच ‘ईमानदार मध्यस्थता’ का प्रस्ताव जरूर आया और राहत की बात है कि कांग्रेस सरकारों द्वारा वर्षों से अपनाई जा रही नीति को बरकरार रखते हुए हमने उसे ठुकरा दिया।

सरकार ने पाकिस्तान और चीन के साथ विभिन्न मसलों पर निपटने में जिस तरह का गंभीर भेदभाव दिखाया है, उसे लेकर राहुल गांधी ने गंभीर शंका जाहिर की है। लेकिन दुख की बात है कि उनकी ईमानदार शंकाओं का जवाब देने के बजाय सत्तापक्ष ने इसे सशस्त्र बलों के सम्मान और देश भक्ति के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर सवाल खड़े करने का रंग दे दिया। हम जानते हैं कि सरकारें गलतियां कर सकती हैं, जैसा कि वास्तव में कारगिल के मामले में हुआ और यह भी कि सर्वोत्तम सैन्य रणनीतिक फैसले भी गलत हो सकते हैं। समय अच्छा हो या बुरा, हमें अपने बहादुर सैनिकों का समर्थन करना ही चाहिए लेकिन सरकार की लोकतांत्रिक जवाबदेही को राष्ट्रीय सुरक्षा कीआड़ में दरकिनार नहीं किया जा सकता। कभी-कभी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए इस तरह के सवाल जरूरी हो जाते हैं। यही वजह है कि विदेश नीति और सुरक्षा के बारे में राहुल गांधी तमाम सवाल उठा रहे हैं।


क्या हम यह मान सकते हैं कि बालाकोट और उरी ने पाकिस्तान को होश में ला दिया है और सीमा पार आतंकवाद अब गुजरे दिनों की बात हो गई है? अगर ऐसा ही है तो जम्मू-कश्मीर के लोगों को 4-जी कनेक्टिविटी से इंकार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में लगातार आतंकवादी हमलों की दलील क्यों दी गई?

भारत बीआरआई, दक्षिण चीन सागर पर अपने मन की बात कहता है जैसा कि हमने भी किया होता। 1988 में अपने चीनी समकक्ष के साथ प्रधानमंत्री राजीव गांधी का एक मिनट लंबा हाथ मिलाना और प्रधानमंत्री मोदी के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ झूला झूलने में बड़ा फर्क है क्योंकि जब ये दोनों झूला झूल रहे थे, पीएलए सैनिक भारत की धरती पर जमे हुए थे। जब मैं विदेश मंत्री था तो गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुझे सलाह दी थी कि ड्रैगन को लाल आंखें दिखाएं लेकिन गलवान में चीनी घुसपैठ होने पर वह अपनी आंखें मूंद लेते हैं जिसकी कीमत 20 भारतीय सैनिकों की जान से चुकानी पड़ी। कहा जाता है कि चीनी सैनिक एलएसी को पार कर हमारी जमीन में नहीं घुसे, फिर जाहिर है कि हम भी उनकी जमीन में नहीं घुसे थे। फिर भी बिहार रेजिमेंट के कमांडिंग ऑफिसर समेत बीस जवान शहीद हो गए। चीनी सैनिक अब वहां से पीछे हटेंगे जहां वे कभी आए ही नहीं और इसके बदले हम उस स्थान से पीछे होकर उन्हें सहयोग करेंगे जहां से हमें नहीं हटना चाहिए था। हम चीन और अपने देश के लोगों के साथ विश्वास के साथ बात कर सकते हैं, लेकिन जमीन पर हम जो करते हैं, वह आत्मविश्वास की नहीं, बल्कि भ्रम की स्थिति पैदा करता है।

कुछ इससे कमजोर मुद्दे भी हैं: मालदीव के साथ मुश्किल संबंधों में बदलाव आ रहा है। लेकिन निश्चित रूप से यह काम तो मालदीव के मतदाताओं ने किया जिन्होंने पूर्व राष्ट्रपति नशीद की पार्टी को चतुराई से सत्ता में लाने का काम किया। लेकिन विदेश मंत्री नेपाल की भारत के साथ अपने संबंधों को दोबारा तय करने की कोशिशों, स्कूलों में मंदारिन की पढ़ाई शुरू करने और भगवान राम पर दावा करने; श्रीलंका के लगातार चीन के करीब जाने; भूटान के ड्रैगन की ओर झुकाव; ईरान का चाबहार समझौते से किनारा कर लेने-जैसे मामलों पर तो कुछ बोल सकते थे। क्या यह भारत के लिए कुछ ऐसा मामला नहीं कि सज-संवर कर बैठे हैं लेकिन जाना कहीं नहीं है? हमसे कहा जाता है कि विश्लेषकों से पूछें लेकिन वे तो हाल तक हमें चीन के साथ सीमित युद्ध में जाने के लिए कह रहे थे। शुक्र है कि ये लोग सर्जिकल स्ट्राइक की बात नहीं कर रहे हैं, वर्ना कह देते कि वह तो हमने टिक टॉक पर प्रतिबंध लगाकर पहले ही कर दिया है। अब अगर आपने दुनिया को गंभीरता से न लेने का ही विकल्प चुन लिया है तो जाहिर सी बात है कि आपको यही लगेगा कि राहुल गांधी आपको गंभीरता से लेने में असमर्थ हैं।

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Published: 24 Jul 2020, 3:39 PM