सरकारी अफसरों से लेकर सैनिक तक को प्रचार में झोंकने का फरमान, सरकार की कथित उपलब्धियों का किया जाएगा बखान

केंद्र की मोदी सरकार ने अपनी कथित उपलब्धियों के बखान के लिए न सिर्फ सरकारी अफसरों बल्कि सैनिकों तक को प्रचार में झोंकने की तैयारी कर ली है। सरकार के इस फरमान का सेवानिवृत्त अधिकारी तक विरोध कर रहे हैं।

आईएएस अफसरों को संबोधित करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोद (फाइल फोटो)
आईएएस अफसरों को संबोधित करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोद (फाइल फोटो)
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रश्मि सहगल

नरेंद्र मोदी सरकार ने नौकरशाही को चीयरलीडर्स बनाने का फैसला किया है: सैकड़ों सरकारी कर्मियों - संयुक्त सचिव से लेकर ग्राम पंचायत अधिकारी तक- को 20 नवंबर, 2023 से 24 जनवरी, 2024 के बीच ‘रथ प्रभारी’ बनने को कहा गया है। इन लोगों का काम होगा- मोदी सरकार के नौ साल की ‘उपलब्धियों’ का बखान करना। (चुनाव वाले राज्यों में यह काम नतीजे आने के बाद शुरु होगा)

सरकार के पक्ष में ढोल पीटने के इस काम में सेवारत रक्षाकर्मियों को भी शामिल किया गया है, हालांकि वे ऐसा कैसे करेंगे, इसका खुलासा नहीं किया गया है। भारतीय सेना के पूर्व उप-प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल विजय ओबेरॉय (सेवानिवृत्त) कहते हैं, ‘यह आदेश अवैध है और अनुचित भी। मुझे नहीं पता कि सशस्त्र बल इस तरह के आदेश पर सहमत हुआ है या नहीं; अगर वे सहमत हो गए हैं, तो यह शर्मनाक है। ऐसा नहीं होने देना चाहिए था।’

वह बताते हैं कि यह नया फरमान सरकार द्वारा पारित दो पूर्व आदेशों की तर्ज पर है। पहला एक तरह से ‘छुट्टियों का होमवर्क’ है जिसमें रक्षा कर्मियों को अपनी वार्षिक छुट्टी का उपयोग ‘लोगों के साथ बातचीत में मोदी सरकार की 5-6 उपलब्धियों को प्रचारित करने’ में करना है।

ओबेरॉय का कहना है कि अपनी संबंधित इकाइयों में लौटने पर, रक्षाकर्मियों से उनके व्यक्तिगत आउटरीच प्रयासों पर एक रिपोर्ट देने की भी उम्मीद की जाती है। उनका कहना है कि दूसरा आदेश रक्षाकर्मियों को कहता है कि वे सरकारी कियोस्क या ‘सेल्फी प्वाइंट’ पर जाकर फोटो खींचें और उसे पोस्ट करें। हर ‘सेल्फी प्वाइंट' में प्रधानमंत्री मोदी की बड़ी तस्वीर होती है। ये ‘निर्देश’ न केवल शोषणकारी बल्कि अपमानजनक भी हैं। सशस्त्र बल तत्कालीन सरकार से आदेश ले सकते हैं, लेकिन वे राष्ट्र की सेवा करते हैं; उनका इस तरह के प्रचार से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए।

कई सेवानिवृत्त सिविल अफसरों ने भारत के चुनाव आयोग को पत्र लिखकर नवीनतम आदेश को रद्द करने के लिए कहा है। पूर्व सचिव ई ए एस सरमा ने 21 अक्टूबर को चुनाव आयोग को पत्र लिखकर कहा कि यह आदेश आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद जारी किया गया था और इसलिए यह चुनावी उद्देश्यों के लिए सरकारी मशीनरी का खुलेआम दुरुपयोग है।

पूर्व कैबिनेट सचिव बी.के. चतुर्वेदी ने कहा कि केंद्र और राज्य- दोनों सरकारों के पास विशाल प्रचार विभाग है जिनमें पर्याप्त कर्मचारी हैं जिन्हें इस तरह के अभियानों में लगाया जा सकता है लेकिन इसके लिए सिविल सेवकों और रक्षाकर्मियों का उपयोग करना बेहद अनुचित है।


जंगलों का आक्रामक खात्मा

जुलाई 2023 में, संवैधानिक आचरण समूह के सौ से अधिक सदस्यों ने जिसमें बिना किसी पार्टी से जुड़े सेवानिवृत्त नौकरशाह शामिल थे, संसद सदस्यों को खुला पत्र भेजा जिसमें संसद के मानसून सत्र में पारित वन संरक्षण अधिनियम (एफसीए) में संशोधन पर चिंता जताई गई। साथ ही उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका दायर करके संशोधन विधेयक 2023 को चुनौती दी जिसमें मांग की गई कि इसे ‘अमान्य’ घोषित किया जाए क्योंकि यह संविधान के कई मौलिक अधिकारों के साथ-साथ पर्यावरणीय न्यायशास्त्र के स्थापित सिद्धांतों का उल्लंघन करता है।

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में इस याचिका पर सुनवाई की और पर्यावरण एवं वन मंत्रालय और कानून एवं न्याय मंत्रालय को नोटिस भेजकर उनका जवाब मांगा। कुछ ही समय पहले भारतीय वन सेवा से सेवानिवृत्त हुईं प्रकृति श्रीवास्तव विधेयक के पारित होने पर गुस्सा और दुख जताते हुए कहती हैं, ‘यह हमारे जंगलों को खत्म कर देगा… इस विधेयक को पास कराने के पीछे सभी मंत्रालयों में मौजूद खास ताकतों की मिलीभगत रही। मेरा सवाल यह है कि संयुक्त संसदीय समिति ने ऐसे संशोधन की इजाजत कैसे दे दी?’

जैसा कि खुले पत्र में कहा गया है, ‘प्रक्रिया की दृष्टि से विधेयक को प्रवर समिति को भेजने के बजाय विज्ञान, प्रौद्योगिकी, पर्यावरण और वनों से संबद्ध संसदीय समिति को भेजा जाना चाहिए था। एक सदस्य को छोड़कर प्रवर समिति के सभी सदस्य सत्तारूढ़ दल से संबंधित हैं जिसके कारण इसकी राय पक्षपातपूर्ण और असंतोषजनक हो जाती है।’

एफसीए मुख्य रूप से वनों की सुरक्षा के लिए 1980 में इंदिरा गांधी सरकार द्वारा पारित किया गया था। 1980 से पहले के 30 सालों में भारत ने 42 लाख हेक्टेयर वन भूमि खो दी। एफसीए बनने के बाद के 43 वर्षों में केवल लगभग 15 लाख हेक्टेयर भूमि का डायवर्जन किया गया। हालांकि पिछले तीन सालों के दौरान लगभग 90,000 हेक्टेयर वन भूमि को गैर-वन उपयोग के लिए उपलब्ध कराया गया। यह ऐसे समय हुआ जब जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव के कारण पूरे उत्तर भारत और उत्तर-पूर्वी राज्यों में व्यापक आपदाएं देखी जा रही हैं। केन्द्र और राज्य स्तर पर वन सलाहकार समिति द्वारा वन भूमि के डायवर्जन के शायद ही किसी प्रस्ताव को खारिज किया जा रहा है। पत्र में कहा गया है: ‘अकेले 2020 में 14,855 हेक्टेयर भूमि के डायवर्जन के लिए प्राप्त 367 प्रस्तावों में से केवल तीन को खारिज किया गया जिसमें लगभग 11 हेक्टेयर भूमि का सवाल था।’

एफसीए संशोधन विधेयक स्थिति को और खराब करेगा। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय सुरक्षा परियोजनाओं के लिए सीमाई इलाकों की भूमि (‘सीमाओं के 100 किलोमीटर के दायरे में’) को छूट का प्रावधान अनिवार्य रूप से उत्तर-पूर्वी राज्यों में वन क्षेत्र और वन्य जीवन को प्रभावित करेगा। 100 किलोमीटर का खंड जो प्रभावी रूप से सभी उत्तर-पूर्वी राज्यों, सिक्किम और उत्तराखंड को कवर करता है, जानबूझकर इस तथ्य को नजरअंदाज कर देता है कि इन राज्यों में देश में सबसे अधिक वन क्षेत्र हैं। चिड़ियाघरों, पर्यावरण-पर्यटन सुविधाओं और टोही सर्वेक्षणों जैसी परियोजनाओं के लिए व्यापक छूट भी जंगलों और वन्यजीवों के लिए आपदा का कारण बनती है। घने जंगलों में सर्वेक्षण किया जाएगा और वे हिस्से जहां खनिज मिलते हैं, उन्हें खनन के लिए खोले जाने की संभावना है।


यह संशोधन गोदावर्मन मामले (1996) में सुप्रीम कोर्ट के उस सराहनीय फैसले को पलटने का भी प्रयास करता है जिसने वन भूमि की परिभाषा बदलकर उन सभी इलाकों को इसमें शामिल किया जो किसी भी सरकारी रिकॉर्ड में वन के रूप में दर्ज हों और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका स्वामित्व किसके पास है, उसे किस रूप में मान्यता मिली हुई है या वह किस वर्ग में श्रेणीबद्ध है।

यह सत्ता प्रतिपूरक वनरोपण पर बहुत अधिक जोर देती है, यह प्रचारित करने के लिए कि इससे काटे गए वन क्षेत्रों को फिर से उगाने में मदद मिलेगी और ‘2030 तक अतिरिक्त 2.5-3 अरब टन सीओ2 के समकक्ष का कार्बन सिंक तैयार हो सकेगा।’ विभिन्न अध्ययन पुष्टि करते हैं कि प्राकृतिक वन नए लगाए गए वनों की तुलना में कार्बन सोखने में चालीस गुना ज्यादा सक्षम होते हैं। सीसीजी का कहना है कि, ‘2008 और 2019 के बीच, परिवर्तित वन क्षेत्र के केवल 72 फीसद के बराबर क्षेत्र को प्रतिपूरक वनीकरण के तहत लाया गया... जिसमें से 24 फीसद मौजूदा लेकिन खराब वन भूमि पर है।’ सीसीजी का कहना है कि यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘भारत दुनिया के केवल उन 17 समृद्ध विविधता वाले देशों में से एक है जहां पौधों और जानवरों की 5,000 से अधिक स्थानिक प्रजातियां हैं। यह अदूरदर्शी विधेयक इस संपूर्ण जैव विविधता के लिए ख़तरा है।’

जबकि संशोधन इस बात पर जोर देता है कि यह वन-निर्भर समुदायों की आजीविका को बेहतर बनाने में मदद करेगा, इसका कोई उल्लेख नहीं है कि यह वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) 2006 के तहत इन समुदायों के अधिकारों की रक्षा कैसे करेगा। उदाहरण के लिए, क्या होगा अगर वैसी वन भूमि जिस पर एक या एक से अधिक वन समुदाय निर्भर हैं, उसे इको-टूरिज्म या सफारी पार्क के लिए पट्टे पर दिया जाता है या रक्षा प्रतिष्ठानों के उपयोग के लिए दिया जाता है? इसी वजह से राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष हर्ष चौहान ने अनुरोध किया कि संशोधन को स्थगित कर दिया जाए क्योंकि ‘वन-निर्भर समुदायों की रक्षा करना तो दूर, यह विधेयक उनकी आजीविका और उनके जीवन को खतरे में ही डाल रहा है।’ कथित तौर पर सरकार द्वारा उनके अनुरोध पर ध्यान न देने के कारण 26 जून, 2023 को चौहान को इस्तीफा देना पड़ा।

सीसीजी के दोनों पत्रों पर दस्तखत करने वाले योजना आयोग के पूर्व सदस्य एन.सी. सक्सेना कहते हैं, ‘हमें जो करना है, वह हम करते हैं। सरकार हमारी बात नहीं सुनती लेकिन जिस तरह हमारी नौकरशाही के राजनीतिकरण की कोशिश की जा रही है, हम उसे नजरअंदाज नहीं कर सकते।’

सेवारत सरकारी कर्मचारियों के उस विधेयक पर हस्ताक्षरकर्ता बनने की क्या वजह हो सकती है जो उन जंगलों को खत्म करने में मदद करेगा जिनकी उन्हें देखभाल करनी चाहिए? प्रकृति श्रीवास्तव का जवाब जितना स्पष्ट था उतना ही गंभीर भी। वह कहती हैं, ‘जब भी कोई अधिकारी विरोध में उठता है तो उसे फौरन प्रताड़ित किया जाता है। जब मैं डीआईजी वाइल्डलाइफ थी और मैंने इस कानून को कमजोर करने का विरोध किया था तो उसी दिन मुझे वहां से चलता कर दिया गया। आपको समस्या खड़ी करने वाले के तौर पर देखा जाता है और संगठन में कोई भी आपके साथ खड़ा नहीं होता।’

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