इस शीर्ष पर आप एकदम अकेले खड़े हैं मोदी जी

कैसी विडंबना है कि बीते दस सालों में ‘सर्व-शक्तिमान’, ‘अजेय-अपराजेय’ और ‘देश के लिए एक दैवीय उपहार’ की स्वयंभू उपमाओं वाले मोदी असहाय से दिख रहे हैं।

फोटो सौजन्य : दूरदर्शन स्क्रीन ग्रैब
फोटो सौजन्य : दूरदर्शन स्क्रीन ग्रैब
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रश्मि सहगल

कभी गठबंधन को ‘कमजोरों’ का कुनबा कहकर मजाक उड़ाने वाले नरेंद्र मोदी आज खुद को अपनी फेंकी उसी कटिया में फंसा देख रहे होंगे। भगवान राम और गंगा मैया- दोनों के द्वारा परित्याग के बाद खुद को घिरा हुआ पा रहे होंगे। मतदाताओं के बड़े वर्ग ने मुनादी करते हुए कि उन्हें प्रधानमंत्री मोदी पर कोई भरोसा नहीं रहा, उन्हें दो ऐसे ‘अप्राकृतिक’ सहयोगियों पर ‘भरोसा’ करने के लिए एक कोने में धकेल दिया जो अतीत में उनके कटु आलोचक रहे हैं।

मोदी खुद भी चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार के प्रति अपनी कटुता कभी छिपा नहीं सके जिन्हें बीती जनवरी में एक बार फिर गले लगाने को मजबूर हुए थे। कोई नहीं जानता कि सुविधा का उनका यह ‘असहज विवाह’ कब तक चलेगा।

‘मोदी की गारंटी’ पर लड़े गए इस चुनाव ने दिखा दिया कि राजनीति में कोई ‘स्थायी गारंटी’ नहीं होती। मोदी की ‘गारंटी’, यानी बीजेपी का घोषणा पत्र और जिसमें 57 बार उनका नाम लिया गया था, जल्द ही कागज के घिसे-पिटे टुकड़ों के रूप में खारिज हो गया। मोदी ने पार्टी घोषणापत्र का तो शायद ही कभी उल्लेख किया हो, कांग्रेस के घोषणापत्र के बारे में झूठ बोलने पर उन्होंने ज्यादा ध्यान दिया।

एक के बाद एक आए करीब 80 इंटरव्यू और ‘बोयलॉजिकल रूप से पैदा नहीं होने’, ‘देश के लिए एक दैवीय उपहार’ होने वाले आत्ममुग्ध, बेतुके जुमलों के बावजूद उनका ‘चमत्कार’ कहीं लुप्त हो गया। उनका अपना जादू तो नहीं ही रहा, अजेय-अपराजेय होने वाली आभा भी खो गई। आत्मसम्मान का कुछ अंश अगर बचा भी होगा, तो जल्द ही नष्ट होने से कोई इनकार नहीं कर सकता है। तीसरी बार प्रधानमंत्री बन भी गए, तो उन्हें गठबंधन सहयोगियों टीडीपी नेता चंद्रबाबू नायडू, जेडीयू प्रमुख नीतीश कुमार और उन तक पहुंच की अपेक्षा रखने वाले अन्य छोटे-छोटे सहयोगियों की उठापटक से भी निपटना होगा जो अपना ‘हिस्सा’ मांगेंगे। बीजेपी सांसदों का एक वर्ग भी मुखर होकर उन पर और अमित शाह पर सवाल उठाना शुरू कर सकता है।

उन्हें देखने वाले कुछ पर्यवेक्षक मानते हैं ​​कि वह हालात के अनुरूप लचीले हो सकते हैं- मसलन, लाइव टीवी पर माफी मांगते हुए कृषि बिल वापस लेना, भूमि अधिग्रहण अधिनियम बदलने की कोशिश छोड़ उसके प्रावधान शिथिल करने का विकल्प चुनना। लेकिन ज्यादातर पर्यवेक्षक उन्हें गठबंधन धर्म की मौलिक शर्तों के विपरीत अत्यधिक आत्मकेंद्रित और जिद्दी मानते हैं।


नायडू और कुमार से उनके रिश्ते भी बहुत अच्छे नहीं रहे हैं। 2018 में नायडू ने आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा न देने पर मोदी से नाता तोड़ लिया था। किसी को भी ‘अर्बन नक्सल’ या कुछ भी अपमानजनक कहने के लिए ख्यात मोदी सकते में आ गए थे, जब नायडू ने उन पर ‘कट्टर आतंकवादी’ होने का आरोप लगाते हुए मीडिया के सामने यह तक कह दिया कि कोई भी राष्ट्रीय नेता मोदी से बेहतर है।

स्वयं प्रधानमंत्री पद के आकांक्षी  नीतीश ने भी 2014 में मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में नामित करने के विरोध में बीजेपी से नाता तोड़ लिया, हालांकि वह 2017 में फिर से एनडीए में शामिल हो गए और 2022 में एक बार फिर नाता तोड़ आरजेडी और कांग्रेस के साथ राज्य में सरकार बनाई। बीती जनवरी में फिर से उनका एनडीए में स्वागत हुआ क्योंकि मोदी और शाह को लगता था कि उनके बिना काम नहीं चलने वाला।

जेडीयू के भीतर पहले से ही हलचल है और उसके नेता मानते हैं कि मोदी की तुलना में नीतीश ज्यादा ‘संतुलित और अनुभवी प्रधानमंत्री’ साबित हो सकते हैं। कहा जा रहा है कि नायडू ने स्पीकर सहित नौ बड़े पद मांग लिए हैं। जेडीयू के बारे में भी यही बात है कि उसने तीन मंत्री पद मांगे हैं। एलजेपी और शिवसेना- शिंदे की अपनी सूची है। इतने लोगों का समायोजन देखने की बात है!

मौके की नजाकत देखते हुए बीजेपी नेताओं की ओर से भी मोदी और शाह की कमजोरियां भुनाने के लिए दबाव पड़ना तय है। कोई कब तक अपने घाव दबाकर रखेगा!

वह सहयोगियों-विरोधियों को समान रूप से तोड़ने की योजना में होंगे और तय है कि पहला अवसर मिलते ही केंद्रीय एजेंसियों का फिर से इस्तेमाल करना नहीं चूकेंगे। तो क्या नायडू और नीतीश उन्हें बांधकर रख पाएंगे? समय ही बताएगा।

असुरक्षाबोध ही था कि मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने की ऐसी जल्दी में दिखे। उन्होंने एनडीए नेताओं की एक बैठक में अपना समर्थन हासिल किया, समर्थन पत्र सुरक्षित किए और नायडू-नीतीश को साथ लेकर राष्ट्रपति से मुलाकात भी कर ली। तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने को इतना उत्सुक दिखे कि नतीजों की आधिकारिक घोषणा के इंतजार बगैर ही पार्टी मुख्यालय में जीत का जश्न मनाया। यह जश्न पार्टी के भीतर या नागपुर से शीर्ष पद के लिए आने वाली चुनौतियां खत्म करने के लिए भी मनाया गया था।


माना ही जाने लगा है कि मोदी चुनाव नतीजों पर संघ की प्रतिक्रिया की चिंता या इंतजार क्यों करने लगे जब अपने बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के जरिये वह पैतृक संगठन के हितों की बात करते हुए संदेश दे ही चुके हैं कि बीजेपी को अब संघ की जरूरत नहीं रही। कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना ​​है कि चुनावों के अंत में की गई यह घोषणा बेहद गलत समय पर थी और इससे बीजेपी को नुकसान हुआ क्योंकि पिछले तीन दशकों में पार्टी की सफलता काफी हद तक आरएसएस कार्यकर्ताओं की कड़ी मेहनत के कारण रही है।

मोदी अटल बिहारी वाजपेयी और बीजेपी नेताओं की पिछली पीढ़ी से बहुत अलग किस्म के राजनीतिक प्राणी हैं। 2001 में गुजरात में उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही बीजेपी उनके नेतृत्व में प्रचंड बहुमत पाने में सफल रही है। लेकिन इस चुनाव ने परिदृश्य बदल दिया है। संसद में 10 साल में पहली बार मजबूत विपक्ष होगा और इस बार बीजेपी खेमे से दोनों सदनों में ‘मोदी-मोदी’ के नारे लगने की संभावना भी कम है। बीजेपी के खुद भी ‘दो नेताओं की पार्टी’ बने रहने की संभावना नहीं है। ऐसे में वह खींचतान कैसे संभालते हैं, देखने की बात है।

क्या मोदी अपने तीसरे अवतार में वैसे विनाशकारी फैसलों को  कागज पर उतार पाएंगे जो उनके पिछले दो कार्यकालों में हुए? पहले कार्यकाल में उन्होंने नोटबंदी जैसा बेतुका कदम उठाया जो आतंकी फंडिंग, नकली नोट और काले धन से निपटने जैसे अपने घोषित उद्देश्यों में विफल रहा। बड़ी संख्या में रसूखदार बकायेदार देश छोड़ भाग गए। सीबीआई-ईडी भी उन्हें नहीं रोक सकी। दूसरे कार्यकाल में कश्मीर पर उनकी नाकामी दिखी। फिर उनका कोविड कुप्रबंधन और इससे उपजी भयावहता सामने आई। किसान संकट से निपटने में गरीबों और कमजोरों के प्रति उदासीनता सामने आई। वही क्रूर उदासीनता मणिपुरी लोगों की दुर्दशा के प्रति भी दिखी।

ग्रामीण संकट के प्रति यही उदासीनता किसानों को बीजेपी के खिलाफ कर गई। एनडीए को ग्रामीण भारत में 44 सीटों का नुकसान हुआ जबकि ‘इंडिया’ को 77 सीटों का फायदा। मोदी की अमीरपरस्त आर्थिक नीतियां गरीबों के लिए विनाशकारी साबित हुईं। 

मोदी को अपनी 56 इंच वाली छाती के दावे से कोई गुरेज न हो, 1800 वर्ग किलोमीटर भारतीय क्षेत्र हथियाने देने में चीनियों के सामने उनका समर्पण अक्षम्य है। कैलाश रेंज की पहाड़ियों और त्रिशूल रेंज का मामला जगजाहिर है। अग्निवीर योजना ने तो भारतीय सेना की रीढ़ रही रेजिमेंटल प्रणाली को ही आघात पहुंचाया।


मोदी ने मुस्लिम विरोधी बयानबाजी से देश का सामाजिक ताना-बाना नष्ट करने में गुरेज नहीं किया। पार्टियां तोड़ी गईं, नेता गिरफ्तार हुए, केस थोपे गए और जांच एजेंसियों द्वारा उन्हें परेशान किया गया। इनकम टैक्स के तुच्छ आरोपों पर कांग्रेस के खाते फ्रीज कर दिए गए। पिछले दशक के दौरान देश को उनके अहंकार की भारी कीमत चुकानी पड़ी है। एक करिश्माई नेता के खोल में उनकी एकदलीय प्रभुत्व प्रणाली में बीजेपी को संसाधनों और मीडिया पर पूर्ण नियंत्रण दे दिया जिसका काम बस सरकार की बातें दोहराना रह गया।

विपक्ष ने यह चुनाव बिना संसाधनों या मीडिया समर्थन के लड़ा। वैकल्पिक नजरिया दिखाने के लिए महज साहसी यूट्यूबर्स साथ थे। अब नतीजों के लिए इससे बेहतर समय क्या हो सकता था क्योंकि मोदी-शाह की जोड़ी ‘मोदी 03’ में सोशल मीडिया का गला घोटने की खुली धमकी दे रही थी। आलोचना को लेकर मोदी इतने निर्मम थे कि तमिलनाडु के एक स्कूल में नोटबंदी का उपहास करने वाले बच्चों का शो तक बंद कर दिया गया था।

उसके पास जो भी थोड़ी-सी गरिमा और स्वाभिमान शेष है, उसे बनाए रखने के लिए अब उन्हें झोला उठाकर शेष जीवन प्रार्थना और तपस्या को समर्पित करने के लिए केदारनाथ की गुफा में चला जाना चाहिए। उन्होंने दोनों में अपनी क्षमता का बखान भले किया हो, अपने राजनीतिक जीवन में इसे लागू करने में असफल रहे हैं।

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