मृणाल पाण्डे का लेख: 8 अगस्त, 1942 से कितना अलग है 8 अगस्त, 2021?

अगस्त आया नहीं कि आजादी और आजादी दिवस के जश्न पर अनेक मंचों पर भारी भरकम बहस छिड़ जाती है।

फोटो: सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

अगस्त आया नहीं कि आजादी और आजादी दिवस के जश्न पर अनेक मंचों पर भारी भरकम बहस छिड़ जाती है। होर्डिंग हों या फिर संसद में हो-हल्ले के बीच जारी सत्तापक्ष के बयान, सबसे लगता है भाजपा तथा उसके साथी दलों को पक्का भरोसा है कि बहुसंख्यक भारतीय मतदाता पारंपरिक रूप से सहिष्णु, परंपरावादी सनातनी जीव हैं। और नोटबंदी, तालाबंदी के बाद भी सत्तापक्ष पर उनका भरपूर भरोसा आज भी कायम है। उनकी सरकार पर अपारदर्शिता और असहिष्णुता का आरोप लगाने वाले राजनीतिक दुर्भावना से प्रेरित तथा/अथवा वामपंथी रुझान के लोग हैं। संविधान के आमुख में रखे गए ‘सेकुलर’ शब्द की निहित स्वार्थवश गलत-सलत व्याख्या की जा रही है ताकि विपक्षी धड़ा विशुद्ध राजनीतिक वजहों से केंद्र सरकार, खासकर भाजपा पर लगातार निशाना साधते हुए उसे कमजोर बना दे। क्या उनका राजधर्म कभी सनातन धर्म से बाहर हो सकता है? उनके आदर्श राजा राम ने तो एक ‘निचली सीढ़ी’ (निचली जाति) के व्यक्ति के सवाल उठाने पर खुद अपनी गर्भवती पत्नी को वन भेज कर राजधर्म का पालन किया था। सवाल उठता है, कि पति धर्म भी तो उतना ही महत्व रखता था। राजधर्म के आगे उसे क्यों भुलाया गया? रही बात निचली सीढ़ी के व्यक्ति के महत्व की, तो फिर शंबूक को उसी राज्य में तपस्या करने पर मार क्यों डाला गया? फटेहाल किसानों की नए कृषि काननूों की बाबत अपील महीनों से क्यों अनुत्तरित है। पर 2021 के अगस्त तक इस तरह के सवाल पूछना देशद्रोह जैसा संगीन आरोप भी न्योत सकता है। इसलिए, साफगोई का खतरा उठाने वाले वीर या वीरांगनाएं अगस्त,2021 के भारत में दुर्लभ हैं।

महाभारत में लोमड़ी कहती है कि वाणी और खुली बात कहने की क्षमता मनुष्य को पशु से उच्चतर बनाती है। हमारे समय में खुली वाणी के वाहक मीडिया का मुंह बंद रखने को सत्तापक्ष के वरिष्ठ लोग धृष्ट मीडिया को ‘प्रेस्टीट्ट’ सरीखे अभद्र यू विशेषण से नवाज देते हैं। और बेचारे सेक्युलर शब्द को तो सीधे ‘सिकुलर’ बना कर सवाल पूछने वालों को एक बीमार मानसिकता से जोड़ दिया जाता है। राम ते अधिक रामकर दासा।


जब जिम्मेदार सांसद, केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य और यहां तक कि सरकार के भगवाधारी समर्थक भी, इस तरह की बातें करें, तब तो गली-कूचों में मौजूद समर्थकों के जत्थे न केवल भद्दे निजी आरोपों पर उतरेंगे बल्कि मीडिया के लोगों, दफ्तरों और बुद्धिजीवियों पर शारीरिक हमले करने में भी संकोच नहीं करेंगे। मिनटों में ट्विटर तथा यूट्यूब पर वायरल होते ऐसे कई कर्कश प्रदर्शन, हमले और नारेबाजियां दुनिया को हमारे मुल्क में सत्ता से असहमति के खिलाफ असहिष्णुता बढ़ने का साफ प्रमाण दे रहे हैं। हमारे नेता अपने चित्ताकर्षक उत्तरीय को बांकी अदा से कांधे पर डालते हुए वर्चुअल मीडिया पर भारत को बुद्ध और गांधी के हवाले से सहिष्णुता का आदर्श बना कर पेश करते रहें, विदेशी मीडिया से जमीनी रपटें उत्कट असहिष्णुता के नित नए नमूने सामने ला रही हैं। पेगासस नाम्ना जासूसी उपकरण से सरकार से असहमति जता चुके मीडिया, सामाजिक कार्यकर्ता, सांसदों, विपक्षी नेताओं और खुद चंद काबीना सदस्यों पर सरकार द्वारा जासूसी के ताजा आरोप संगीन हैं और खुली जांच की मांग करते हैं। यह मांग सिर्फ विपक्ष तक ही सीमित नहीं है। अब तो इसमें नीतीश कुमार सरीखे वजनी नेताओं की आवाज भी जुड़ गई है।

ऐसे नाजुक क्षणों में सरकारी अक्षमता और राजनीतिक हितस्वार्थ के तकाजों पर पर्दा डालने के लिए झगड़ते राज्यों या नशेड़ी बॉलीवुड कलाकारों के किस्से पुरानी सुविधा मूलक परंपरा के तहत कई बार (शादी के सिक्कों की तरह) हवा में उछाल दिए जाते हैं, ताकि लोग-बाग उनको बटोरने में व्यस्त होकर सही सवाल पूछना भूल जाएं। लगभग सभी सरकारों ने आजादी से लेकर अब तक यह नुस्खा लगातार अपनाया है। चीन और पाकिस्तान ने आंखें दिखाईं तो सरकार अपनी विदेश नीति की निष्क्रियता और अपनी सामरिक सामर्थ्यहीनता पर परदा डालने को गुट निरपेक्षता या धड़े विशेष की सदस्यता की ओट में तटस्थ बन जाती है। धार्मिक भेदभाव के मामलों की बढ़त की जांच की मांग हो तो चारधाम मार्ग से हो रहे पर्यावरण क्षरण और राम मंदिर पर हो रहे खर्चे में अनियमितता की जांच मांगने वाले मीडिया को हंकाला जाता है कि वे नास्तिक छिद्रान्वेशी हैं। पर क्या मंदिर बनने से राम राज्य आ जाएगा? क्या छ: लेन के राजमार्गों से पहाड़ टूटें, तब भी पहाड़ों में सोना बरसने लगेगा?


हम हिंदुस्तानियों को यदि अपने इतिहास और लोकतांत्रिक सहिष्णुता से सचमुच ही सरोकार है, तो पहले हमको यह नकली अभिमान त्यागना होगा कि हम सदा से दुनिया की सबसे अधिक सहनशील प्रजाति हैं। इतिहास के क्रम में हम कमोबेश उतने ही सहिष्णु साबित होते हैं, जितने कि दुनिया के शेष देश। हमने बाहर से आई शक, सिथियन, पारसी, यहूदी और मुसलमान जातियों के साथ सहअस्तित्व कायम किया, तो बौद्धों तथा दलितों का उत्पीड़न भी अपने यहां कम नहीं हुआ। शैवों ने दक्षिण में वैष्णवों से काफी खूनी संघर्ष किया और वेदबाह्य सिद्धों- गोरखपंथियों का उपहास और उनके मठों की तोड़-फोड़ का काम भी सनातनियों ने कम नहीं किया। बेतुके किस्म के जाति, धर्म, लिंगगत मूल्यों के तहत नाना श्रेणियां रचने और नागरिकों के बीच भाषा से लेकर खान-पान तक में भेदभाव करने वाले जिस समाज को हम आज आदर्श बता रहे हैं, उसे गौर से देखिए। वह दरअसल हमारे पतनशील युग में बना ऐसा समाज है, जिसके प्रतिगामी मूल्यों को आज के भारत पर लाद कर हम लोकतांत्रिक नहीं बन सकते हैं।

बेहतर हो कि हम फिजूल की शाब्दिक तलवार भंजाई में समय न गंवाएं और न ही बेवजह संविधान से छेड़छाड़ होने दें। भारतीय सहिष्णुता का कोई अकाट्य वैज्ञानिक प्रमाण हमारे इतिहास में नहीं मिलता। महाभारत तो हमारे ही यहां लड़ा गया था न? और लंका दहन भी रामायण में वर्णित है ही। दुर्योधन, मंथरा, कैकेयी ये सब पात्र कहां के हैं? कैसे गहरे विद्वेष कृष्ण या राम या कि वैराग्यशतक लिखने वाले भर्तृहरि के अपने परिवारों में पैठे हुए थे? शत-प्रतिशत सहिष्णु तो सिर्फ एक लाश ही हो सकती है। जिंदा इंसान शत-प्रतिशत सहिष्णु किस तरह बन सकते हैं? सहनशीलता का पर्याय एक मां भी कभी-न-कभी चिड़चिड़ा कर अपने बच्चे पर बरस ही तो पड़ती है। हम सब अनेकता के बीच ही जनमते हैं और शेष जीवन कभी सहनशील, तो कभी दबंग बन कर यथासंभव शेष समाज से तालमेल करते रहते हैं। हां, यह तालमेल बिठाना कभी कमजोर के खिलाफ विध्वंसक न बने इसकी जिम्मेदारी हमारी चुनी हुई सरकार की होती है। अगर नागरिकों के साथ और उनके बीच सरकार को एकता की बात ईमानदारी से छेड़नी है, तो वह किसी सीमित और सरकारी समझ के तहत संभव नहीं।


यही समझ कर 1936 तक बिना शर्त अंग्रेजों को विश्वयुद्ध में समर्थन देने वाले गांधी जी ने 8 अगस्त,1942 को जनता के लिए कुशासन के जिम्मेदार शासकों को, ‘भारत छोड़ो’ कह कर बाहर की राह दिखाने वाला नारा दिया था। क्रिप्स कमीशन ने जब दिखाया कि अंग्रेजों के शिष्ट खाने के दांतों से उनके अशिष्ट विभेदकारी दांत कितने भिन्न हैं, तो गांधी को लगने लगा फासीवाद तो ब्रिटिश लोकतांत्रिकता के लिए नया खतरा नहीं, औपनिवेशिक यूरोप के सदियों के पापों का फल है। इसलिए फासीवाद को हराने के बाद ही स्वराज्य मांगने की बजाय बापू ने सीधे ‘करो या मरो’ का नारा बुलंद कर दिया। अब तक उन्हें पूरा भरोसा हो गया था, कि एक आत्मसम्मानी देश जिंदा लाश बने रहने की बजाय अपनी चिता खुद जलाने को लुआठी लेकर उनके साथ खड़ा हो जाएगा। गांधी की गिरफ्तारी ने जनता का उनकी थीसिस पर विश्वास पुख्ता ही किया और विदेशी मीडिया में भी ब्रिटिश औपनिवेशिक दमनकारिता की भारी भर्त्सना करा दी। पांच साल बाद भारत आजाद था।

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Published: 08 Aug 2021, 8:07 PM