महिला दिवस विशेष : स्वतंत्रा स्त्री और पुरुषार्थ की कल्पना, पढ़ें मृणाल पाण्डे का लेख

यह सवाल जब हम ज़ोर शोर से 8 मार्च से पखवाडे तक महिला दिवस मना रहे हैं, और दूसरी तरफ असली जीवन में औरत को ले कर बडे़ बडे़ राजनेताओं और समाज के कई शिक्षित परिवारों के बीच भी महिला स्वतंत्रता पर सदियों पुराना कूढमगज़ी और फतवेबाज़ी देख सुन रहे हैं।

फोटो: BBC
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मृणाल पाण्डे

जयशंकर प्रसाद की जानी मानी, ‘प्रबुद्ध शुद्ध भारती, स्वयंप्रभा समुज्वला स्वतंत्रता पुकारती’, पंक्तियां पढ़ कर अपने छात्रकाल में यह लेखिका अक्सर सोचती थी, कि स्वतंत्रता शब्द तो स्त्री लिंगी है। यही नहीं, भारती यानी वाणी को भी हमारी पुरानी परंपरा में व्याकरणाचार्य एक स्त्री के रूप में ही देखते थे। उससे भी पीछे मुड़ कर देखें तो ॠग्वेद का वाक्सूक्त, जिसकी रचनाकार अंभृण ॠषि की बेटी वाक् मानी जाती हैं, स्त्री शक्ति के उस विराट स्वरूप को खोलता है जिसमें वह हाथ में धनुष लिये राष्ट्रों को, समाजों जोड़ती हुई रुद्र तथा वसुओं के बीच खुल कर विचरण करती हैं। तब फिर भी क्या वजह है कि जब बाद में हमारे मनु या नारद सरीखे स्मृतिकार और शास्त्रकार सामाजिक नियमानुशासन गढने बैठे तो उन्होने वाक् के जोडे राज समाज को चार जातियों में बांट दिया। और स्त्री को पुरुष की तरह स्वतंत्र और अभिव्यक्ति (वाणी) की आज़ादी का हकदार मानने की बजाय जन्म से परतंत्र रहने का विधान बना दिया, जो कमोबेश आज भी लागू है ?

यह सवाल जब हम ज़ोर शोर से 8 मार्च से पखवाडे तक महिला दिवस मना रहे हैं, और दूसरी तरफ असली जीवन में (घर के भीतर या बाहर कार्यक्षेत्र में) औरत को ले कर बडे़ बडे़ राजनेताओं और समाज के कई शिक्षित परिवारों के बीच भी महिला स्वतंत्रता पर सदियों पुराना कूढमगज़ी और फतवेबाज़ी देख सुन रहे हैं, विचारणीय है। क्योंकि यह आज फेस बुक या वॉट्स एप पर ‘हैप्पी वीमेंस डे’ के अर्थहीन संदेश भेजने से कहीं ज़्यादा अहम है। औरत क्यों पुरुष की तरह धर्म अर्थ काम मोक्ष के चार पुरुषार्थों से बाहर कर दी गई है ? इसका अशिक्षा, परनिर्भर कातरता और हिंसा के रूप में उसने कितना मोल चुकाया है, यह क्या धर्मध्वजा के नीचे सबको मनुवादी वर्ग, वर्ण लिंगगत विभाजन मानने को बाध्य करनेवाले नहीं देखते ? उनके लिये मनुवाद हमारी पुरानी परंपरा है। और कोई विचार परंपरा से जुडा नहीं, कि वह गोमाता की तरह अवध्य बन जाता है जिस पर सवाल उठानेवाला राष्ट्रद्रोही है।


मनु महाराज ने चार वर्ण बनाये और हर वर्ण में औरत को पुरुष के आधीन माना, यही सही है, यह बात आज हमारे लोकतंत्र के चारों पायों : विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया में जगह जगह कई ज़िम्मेदार लोग गंभीरता से दोहराने लगे हैं। इतिहास में उपलब्ध साक्ष्य हमको औरतों की कमज़ोरी या परनिर्भर रहने की ज़रूरत के साफ स्रोत या उदाहरण नहीं दिखा पाते जबकि वाक् ॠषि के वक्त से आज तक हज़ारों विदुषियों और शक्तिशालिनी महिलाओं की मौजूदगी के ठोस साक्ष्य सामने हैं। इसलिये बात इतिहास के पुनर्लेखन की होने लगती है। फिर भी जब कोई ठोस तर्क न मिला तो कह दिया जाता है, कि भई धर्म, अर्थ, काम मोक्ष के बने पुरुषार्थ के खांचे में वही जीव फिट होगा जिसकी बुद्धि अपने बस में हो और जिसका विवेक जागा हुआ हो। ऐसा जीव पुरुष ही होता है स्त्री नहीं।

इस तरह की जल्बाज़ फतवेबाज़ी को मीमांसा शास्त्र में न्याय का एक दूषित प्रकार ‘चक्रिक न्याय’ बताया गया है। यानी किसी के खिलाफ सबूत जमा कर के उनसे केस बनाने की बजाय अपने हित स्वार्थ के माफिक एक केस बना लो, और फिर बैठ कर प्रतिपक्षी में हर तरह के अवगुण दिखा कर उसे अयोग्य-गलत ठहराओ। चक्रिक न्याय की महिमा से ही यह अजीब तर्क दिया जाता है कि काम, यानी शारीरिक वासना का आवेग औरत में अधिक होता है। और यह स्त्री कामोपहता यानी काम वासना से अधिक भरी रहती है, यह उसकी भला बुरा सोचने की ताकत को काफी कुंठित कर देता है। इसलिये उसे निरंतर पुरुष के अनुशासन में रहने की ज़रूरत है। उसे पूरी (यानी पुरुष सरीखी) स्वतंत्रता मिल गई तो स्त्री स्वैराचारिणी और उच्छृंखल बन कर सारे समाज को तहस नहस कर देगी। लो कल्लो बात ! मज़ेदार बात यह, कि औरत को अपना भला बुरा खुद तय करने में असमर्थ बतानेवाले मनु ने (मनुसंहिता में) पुरुषों तक सीधी पहुंच बनानेवाली औरत को स्वैरिणी बता कर पुरुषों को विवाहेतर रिश्ते बनाने की छूट दी है। विवाह की लक्ष्मण रेखा त्याग कर अपनी इच्छा से जो स्त्री किसी अन्य पुरुष का आसरा ले ले, उसे शास्त्रकार नारद भी गणिका की की कोटि में ‘गम्या’ कह देते हैं।


इस बिंदु पर साक्ष्य राजा भोज की लिखी कथा शृंगार मंजरी कथा है। उसका कुछ खंडित रूप ही हमको मिलता है, पर इस कथा में हम एक नई कोटि, ‘स्वतंत्रा’ स्त्री का पहला ज़िक्र सुनते हैं। वह मनु के नियमों में बंधी कुलवधू से अलग वर्ग में गिनी गई है। काबिलेगौर है कि कथावाचक की नज़र में ऐसी स्त्री स्वतंत्रा है, उसे वह कुलटा या स्वैरिणी का निंदनीय विशषण नहीं देता । याज्ञवल्क्य स्मृति की दसवीं सदी की जानी मानी (ज्ञानेश्वर की मिताक्षरा) टीका में स्वतंत्रा स्त्री को ‘गम्या’ यानी (अंग्रेज़ी में कहें तो) अप्रोचेबल बताया गया है। यह गम्या महिलायें कलंक रहित ‘स्वतंत्रा’ थीं, और जहाँ चाहे घूमने फिरने, कमाई करने और अपने जीवन की बाबत पुरुषों की ही तरह आत्मनिर्भर और खुद फैसला लेने के काबिल मानी जाती थीं। बिना विवाह किये, बिना ज़ोर ज़बर्दस्ती के वे किसी भी ऐसे पुरुष को चुन कर उसके साथ रह सकती थीं, जो खुद उनकी पसंद हो। यही नहीं वे पुरुष से संबंध के एवज में पैसा वसूल कर सकती थीं। वे फिर भी दासी या भुजिष्या (चाकरी) नहीं मानी गईं। कोई भी पुरुष अपनी मर्ज़ी से जब एक दासी या अन्य भोगनीय (भुजिष्या) से जबरन सहवास करे तो अपराध साबित होने पर पुरुषों को आर्थिक राजदंड दिया जाता था। पर वहीं गम्या में मामले में कोई दंड नहीं दिया जाता था। यह मान कर चला जाता था कि दोनो ने संबंध आपसी सहमति और स्वेच्छा से ही बनाया होगा।

याज्ञवल्क्य स्मृति की मिताक्षरा टीका के लेखक विज्ञानेश्वर बडे विचारकर्ता थे। जो उन्होंने बिना विधिवत विवाह के पुरुष के साथ रहने और कमानेवाली ऐसी स्वतंत्रा स्त्रियों को वेश्या की कोटि से ऊपर रखा है। हां वे अपने युग के मनु के बनायेचातुर्वण्य समाज के परे नहीं थे , फिर भी सीमित स्वतंत्रता की मदद से उनने रूलिंग दी है, कि मनु शास्त्र के चार जाने माने वर्णों के परे एक पांचवा वर्ण है। यह वर्ण स्त्री प्रधान है और स्वतंत्र आचरण इसकी सदस्या स्त्री का स्वधर्म है। वैसे ही जैसे पुरुषार्थ मनुवादी समाज में पुरुष का। परपुरुष के साथ रिश्ते बनाने का उसे न पाप लगता है, न प्रायश्चित की ज़रूरत पड़ती है। पुरुषार्थ पुरुष का स्वधर्म है, तो खुल कर जीना, स्वतंत्र रहना स्वतंत्रा औरत का। इसके सबूत में विज्ञानेश्वर स्कंदपुराण से कथा खोज लाये हैं, जिसके अनुसार गणिकायें पंचचूड़ा नामक अप्सराओं की संतति हैं लिहाज़ा वे मनुवादी समाज के बाहर चार जातियों से अलग एक पांचवीं कोटि में गिनी जायें। यह मानना होगा कि इस कोटि को बनाने में परस्त्री गमन की ललक रखनेवालों का भी स्वार्थ रहा होगा। हमारे पुरखों के पास समस्यायें उपजाने और फिर उनके हल खोजने की अद्वितीय प्रतिभा थी। जिनसे नित्य संपर्क हो, उन निषादों और रथकारों को भी उन्होने पंचम वर्ण में गिन लिया ताकि छुआछूत का पचड़ा ही न रहे। यही बात दसवीं सदी में औरतों के लिये स्वतंत्रता की सीमित लेकिन स्पष्ट फाँक छोड़ती है।


इस सारे ब्योरे से अलबत्ता इतना तो साफ है कि हमारी परंपरा में स्त्री की स्वतंत्रता का विधान मनु महाराज का ही नहीं चलता था। 10 वीं सदी तक हाशिये में स्त्री सत्ताक परिवारों और कमाने खाने को आज़ाद महिलाओं के लिये राज-समाज में एक आदरणीय जगह छूटी हुई थी। और यह तरीका लोकसम्मत, यानी आम लोगों को भी मान्य था। दरअसल शास्त्रों को तमीज़ से पढ़ा जाये तो साफ होता है कि भारतीय समाज और संस्कृति में इकहरा सोच कभी स्वीकार्य नहीं रहा। जाति हो या धर्म, या लिंगगत विविधता, बहुलता का हमेशा आदर होता था। आज की तरह परंपरा के नाम पर जबरन विविधता पर रंदा चला कर एक निशान, एक विधान वाला हिंसक दुराग्रह राज या समाज कहीं भी नहीं था। 11वीं सदी में जनमा शाक्त तंत्र जो स्त्री को विश्वशक्ति का आधार और उसके बिना शिव को शव मानता है, इसी विविधतामय खुले दिमाग वाले समाज की उपज था, जिसने नाथ, सिद्ध, वानप्रस्थी, सूफी और जाने कितने वेदबाह्य संप्रदाय पैदा किये। यह एक संक्रमण का समय था जब इस्लाम की चुनौती सामने खड़ी थी। फिर भी एक रूपता और बहुरूपता के बीच संतुलन किस तरह कायम रहे इसके लिये ज़िंदादिल समाज और उसका नेतृत्व हमेशा सोच विचार विमर्श करते नये से तालमेल बनाते रहते हैं। जिस सोच से गणिका, निषाद राज और रथचालक का वर्ण बनाया, उसी सोच ने चार सदी बाद चातुर्वर्ण्य बंधन में बंधे समाज के बीच वर्णों की, धार्मिक परंपराओं की बहुलता के लिये भी एक ठोस आधार भी बना दिया ।

राजनीति के साथ युग की बनावट में फर्क होता है। और उसीके साथ स्त्री-पुरुष, राज-समाज, रचनाकार और भाषा के रिश्तों में बदलाव आते हैं। एक स्वस्थ समाज तमाम राजनीति के बीच भी इस बदलाव को पहचानता है और उनको सही मतलब और बैठने की जगह अपने भीतर देता रहता है। जब यह बंद हो जाये तो हम हिटलरी नात्सी युग की अंधेरी खोह में घुसते हैं, जहाँ से तबाह हो कर ही निकला जाता है।

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