मृणाल पाण्डे का लेख: क्या अपनी ही जनता से सहज समझौता इतना नामुमकिन है?

लोहिया हमारे हीरो थे जो कहते थे कि परिवर्तन लोकतंत्र की बुनियाद है और जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं। समय का मिजाज ही कुछ ऐसा मिलाजुला था कि यह सारे विचार गांधीवादी और मार्क्सवादी- दोनों ही खेमों में गूंजते थे।

फोटो: नवजीवन
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मृणाल पाण्डे

वह बीसवीं सदी का छठा दशक था जब आजादी की भोर में जनमी हमारी पीढ़ी ने साहित्यिक होश संभाला। आजादी के साथ हुई भयावह हिंसा और गांधी जी की नृशंस हत्या के घाव तब तक हरे थे। उस समय को याद करने पर उच्च शिक्षा कैंपसों में कुछ लोकप्रिय शब्द थे- ‘भारत छोड़ो आंदोलन’, आधुनिक, नया, प्रयोगशीलता, जनसंघर्ष, जनचेतना आदि। लोहिया हमारे हीरो थे जो कहते थे कि परिवर्तन लोकतंत्र की बुनियाद है और जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं। समय का मिजाज ही कुछ ऐसा मिलाजुला था कि यह सारे विचार गांधीवादी और मार्क्सवादी- दोनों ही खेमों में गूंजते थे। पक्ष-विपक्ष के नेताओं की निजी जीवन में सहज दोस्ती की मार्फत आजाद भारत की राजनीति अपने को परिभाषित करती थी। कैंपस तब भी आंदोलित होते थे। नेहरूवियन सपने में निराला से लेकर शंकर-जैसे तीखे कार्टूनिस्ट मनमाने प्रहार करते हुए भी कभी देशद्रोह के कानून की तहत जेल नहीं भेजे जाते थे। उल्टे खुद नेहरू शंकर से कहते ‘डोंट स्पेयर मी!’, मेरा लिहाज मत करना।

साठ के दशक में कैंपसों से बाहर निकलने पर भी हमको विचारों का आज से कहीं बड़ा इलाका सामने दिखाई देता था। समाज शास्त्र और इतिहास तब ठोस और वैज्ञानिक शोध से लिखे जा रहे थे और वासुदेव शरण अग्रवाल, डॉ. गोविंद चंद्र पाण्डे अथवा डॉ. मोतीचंद्र-जैसे विद्वानों को पढ़ते हुए हमारा आधुनिक और नयेपन का गर्वजल्द ही विसर्जित हो जाता था। तब नेहरू की अगुआई में जो लोकतांत्रिक संघर्ष शुरू हुआ, वह सिर्फ रूढ़िवादी धार्मिक-सामाजिक परंपराओं को ही नहीं, खुद धर्म को भी उसके सार्वभौम सिंहासन से हटा कर उसकी जगह क्रमश: तटस्थ तर्कसंगत वैज्ञानिक सोच को बिठाने और अपने भविष्य का खाका बनाने का था। देश के सभी बड़े संस्थानों ने हमारे लिए ठोस तर्क, अनेक दिशाओं से बहकर मिल रहे बौद्धिक अनुभवों और जमीनी सामाजिक जरूरतों को कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण बनाया था। इसने एक स्त्री होने के नाते लेखिकाओं से सामान्य गृहिणी तक को नया सोच और आत्मविश्वास दिया। इसी सोच की असीम संभावनाएं थीं जिनसे कालांतर में हमसे अगली पीढ़ी के छात्र जेपी के नेतृत्व में आशा और उत्साह से आंदोलित हुए। पर जल्द ही राज- समाज और साहित्य में खुलेपन का माहौल गठजोड़ राजनीति की गुटबंदियों, अहंवादी टकराहटों और समाज के प्रतिगामी तत्वों के प्रहारों का शिकार बनचला।


गठबंधन से सत्ता में आए जनसंघ को जब अन्य सहयोगी दलों से वैचारिक चुनौती मिली तो उन्होंने अपनी मातृ संस्था संघ परिवार को एक राजनीतिक कार्यक्रम मानने से इनकार किया और संघ की शाखाओं को वे सांस्कृतिक संस्थाएं और प्रचारकों को लगातार सांस्कृतिक आंदोलनकारी ही बताते रहे। बताया गया कि आंदोलन तो पुराने भारत की तर्जपर एक नए सांस्कृतिक पुनरुत्थान को रचने तथा आगे बढ़ाने का साधन मात्र था। पर जब-तब मध्यकालीन ईसाई चर्च की तरह अपने पक्ष पर अखंड विश्वास और तनिक भी विरोध न बरदाश्त करने की भावना संघ परिवार के बयानों में कई बार झलक जाती थी जो नब्बे में बाबरी ध्वंस के साथ सतह पर आ गई। आज जब संसद से सड़क तक और कैंपसों से कारोबारी तबकों तक में हम अभिव्यक्ति की आजादी और धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी संवैधानिक हकों पर खुला टकराव देख और भुगत रहे हैं, नेतृत्व के आधुनिक तेवर या कलेवर उनका विदेशी लीडरान से मिलना-जुलना और राजनयिकों से संवाद मीडिया में बार-बार दिखाए जाने के बाद भी अनुभवी मनों को बहुत दूर तक आश्वस्त नहीं कर पाता। कहने को भारत का चोला आधुनिक जरूर बन गया है और हिंदी भाषणों में अंग्रेजी का छौंक काफी लगाया जाता है, पर आधुनिकता का यह ब्रांड व्यावहारिक धरातल पर वैचारिक रूप से कट्टर हिंदुत्ववादी और राजनय में तानाशाह विदेशी शासकों को लेकर घुलनशील भी दिखता रहा है। भारत अमेरिकी जनता का मन दो फाड़ करने वाले ट्रंप के ईसाइयत पोषक नस्लवादी अलग्योझे के बावजूद गहरी मित्रता करता है और पाताली धन से चल रही पुतिन की वामनामी सरकार से भी। चीन में वीगर लोगों के दमनकारी शी को वह हिंडोले में झुलाता है तो ब्राजील के जंगल कटवाने वाले अलोकप्रिय बोल्सानेरो को भी मित्र बताता है।

सघन छवि निर्माण से पैदा किया गया आधुनिक भारत का भ्रम तब टूटता है जब घरेलू स्तर पर उसी नई डिजिटल सूचना तकनीकी के लोकतांत्रिक खुलेपन पर सवालिया निशान लगाए जाने लगते हैं जिसके पुरोधा होने और उसके तमाम बड़े प्रतिष्ठानों में भारतवंशियों को बैठा देखकर हम भारत की बौद्धिक समृद्धि का सगर्व हवाला देते रहे। दरअसल आज हम एक हड़बड़ी भरे बेहद उतावले वक्त में जी रहे हैं। 24x7 डिजिटल खबरों के बीच लघु खबरिया पोर्टलों के युवा उपभोक्ता लगातार तुरत खबर लपक कर दूसरों से अधिक जानकार पांडे साबित होने को लालायित रहते हैं। उनकी इस हड़बड़ी ने देश के भीतर सत्तासीन नेताओं से लेकर विपक्ष और मतदाताओं की रोजाना की खबरों को स्वस्थ सामाजिक दायित्व बोध और नैतिक मूल्यों से जोड़ सकने की सहज क्षमता को काफी हद तक बाधित भी कर दिया है। पर अगर हमारे लीडरान चाहते हैं कि आंदोलनकारी और उनके समर्थक शांत होकर वापिस जाएं जो हम सब भी चाहते हैं, तो पहली शर्त यह है कि आंदोलनकारियों से पहले वक्त की नजाकत भांप कर विनम्र समझौता करने लायक बातचीत की जाए। कोविड से सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक हर दृष्टि से क्षत-विक्षत देश में नेतृत्व के लिए यह बड़ी चुनौती है। दमनकारी तौर-तरीके अपना कर टकराव को हिंसा की तरफ खदेड़ने से सबका अहित ही होगा। समझौता आज व्यवस्था के ऊंचे हलकों में लोकप्रिय शब्द नहीं रहा क्योंकि यह लड़ाई का शब्द नहीं। यह विचार-विमर्श और सर्वजन हिताय विकास से जुड़ा शब्दहै। पर यही हमको देखने देता है कि खेती या उद्योगों या सूचना संचार तकनीकी के विकास का जो स्वीकृत अंतरराष्ट्रीय मॉडल हमने अंगीकार किया, उसने हमको अमीर-गरीब के बीच की गहराती खाई दी, भयावह पर्यावरण प्रदूषण दिया जिसका नतीजा है जामिया से शांति निकेतन तक आंदोलित कैंपस, किसानों की आत्महत्याएं और उनका लगातार फैलता आंदोलन। असली विकास वह नहीं, जिसमें बाहरी धनका निवेश आने से शेयर मार्केट उछले लेकिन छोटे और हाशिये के किसान कारोबारी बेदखल होते जाएं और देश की नब्बे फीसदी संपदा एक फीसदी लोगों के हाथों में सिमट जाए। सूचना संचार तकनीकी की, उसके उपकरणों की नवीनतम खेप हमको उपलब्ध हो, इससे हम सही मायनों में आधुनिक नहीं बन सकते जबकि अधिकतर स्कूली बच्चे डिजिटल शिक्षा का लाभ नपा सकें, गांव-कस्बों तक पहुंच रखने वाले छोटे स्थानीय अखबार, चैनल और डिजिटल पोर्टल धड़ाधड़ बंद होते जाएं। अथर्व वेद कहता है कि देवताओं से संवाद करने वाले ॠषि तो गए। आगे जब कठिन समय हो, भविष्य में समान बौद्धिक क्षमता वाले लोगों के बीच समानस्तर पर जमा होकर विचार-विमर्श हो, उसी से राह निकलेगी। दिक्कत यह है, कि सरकार समर्थकों से इतर बुद्धिजीवियों को लिबरांडु, प्रेस्टिट्यूट, परजीवी या आंदोलनजीवी सरीखे अपमानजनक विशेषणों से नवाजने के बाद समझौता निकालने की राह कैसे बने? हमारे सामने कई विकल्प हैं। यहां दो पद गौरतलब हैं: जीवनदृष्टि और विश्वदृष्टि। हमारे यहां उनके बीच फांक पड़ गई है। आज विदेशों में बनी और तराशी गई एक स्थूल व्यावसायिक दृष्टि ही हमारी राजनीति और वैश्विक कूटनीति को भी संचालित कर रही है। यह पर्यावरण से लेकर किसानी तक में हमको दगा दे रही है क्योंकि इसमें हमारी अपनी जीवनदृष्टि स्थानीय समझ शामिल नहीं है। पर्यटन का मॉडल हो या कि ऑनलाइन बनिज व्यापार का- हर जगह बेस्ट की बजाय हम बेस्ट सेलर का पीछा कर रहे हैं, भले ही वह खुद हमारी जरूरतों और संसाधनों के हिसाब से न हो।


आज हमारी बाहरी देशों में हो रही आलोचना को छोड़ भी दें, तो भी बाजार संस्कृति की चकाचौंध के बीच विश्व मंच पर खड़ा भारत विचारवान सच और एक मीडिया निर्मित वर्चुअल छवि के बीच दब गया दिखता है। राजनीति एक बहुत बड़ी जमीनी ताकत का स्रोत है। पर जिस तरह भाषा में शामिल होकर शब्द की ताकत हजार गुनी हो जाती है, उसी तरह अपनी जनता से सचमुच ईमानदार वाद, विवाद, संवाद का रिश्ता बनाकर नेतृत्व की लोकतांत्रिक ताकत भी घटती नहीं कई गुना बढ़ जाती है। अपने विचार या मन की बात बिना तकनीकी मध्यस्थों के, सीधे जनता के बीच रखना और उस पर उसकी बेबाक प्रतिक्रिया को बिना जामे से बाहर हुए सुनना और उस पर पीड़ा जनक तरीके से आत्ममंथन कर सकना यथार्थ से पलायन नहीं, नेता के आत्मविश्वास और लोकतांत्रिक आस्था का ही परिचायक है। आज भी यदि किसान नेताओं द्वारा केंद्रीय नेतृत्व तथा सरकार की आलोचना कड़वी लगते हुए भी नेतृत्व उसे ठंडे मन से सुने और परखे, तो उसके मूल में उसे राजनीतिक नेतृत्व के प्रति अनादर नहीं, किसानी जीवन और उसे जिलाये रखने वाली प्रकृति के प्रति असीम करुणा और आस्था दिखेगी। उसी की कानूनन पुष्टि वे आंदोलनकारी और उनके करीबी (जिनको परजीवी कह कर इतना उपहास किया गया) भी चाहते हैं। क्या अपनों से सहज समझौता इतना नामुमकिन है?

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