मृणाल पाण्डे का लेख: अमृत महोत्सव वर्ष में मंथन

आम तौर से माना जाता है कि क्षीर सागर का मंथन अमृत का घड़ा निकलने के बाद जल्द ही समाप्त हो गया होगा। लेकिन उस घड़े का क्या हुआ? उसके साथ जो हलाहल निकला था, वह किसने पिया और क्यों?

फोटो: नवजीवन
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मृणाल पाण्डे

आम तौर से माना जाता है कि क्षीर सागर का मंथन अमृत का घड़ा निकलने के बाद जल्द ही समाप्त हो गया होगा। लेकिन उस घड़े का क्या हुआ? उसके साथ जो हलाहल निकला था, वह किसने पिया और क्यों? इस बाबत पौराणिक कथाएं हमको बड़ी दूर ले जाती हैं। इसलिए 1947 में मिली आजादी के अमृत वर्ष की रंगारंग छवियों, हर्षमय जय-जयकार के बीच जो जहरीले विचार फिजां में आजादी की लड़ाई लड़ने वालों पर लगातार छोड़े जा रहे हैं और बापू के हत्यारों की फोटुओं का जैसा सम्मान किया जाने लगा है, उन पर ईमानदारी से विचार-मंथन किए बिना हम सही तरह यह अमृत महोत्सव मनाने के अधिकारी नहीं होंगे।

इन 75 सालों का सिंहावलोकन करते हुए पहली चीज जो दिखती है, वह यह कि जिस अहिंसक समन्वयवादिता के बुते आजादी की लड़ाई गांधी जी के नेतृत्व में भारत ने जीती थी, उसके विपरीत अंग्रेजों के समय खाद-पानी से विकसित की गई धार्मिक विभेदकारी खेमेबंदी दोबारा बड़ी मजबूती से वापस लाई जा रही है। उस राजनीतिक मंथन से उपजे सांप्रदायिक और जातिवादी नफरत के घड़े का जहर अपनी जान की कीमत पर बापू ने पिया। उनके आदर्शों के अनुरूप नेहरू जी ने भारत की विदेश नीति के लिए मध्यमार्गी गुटनिरपेक्षता की राह चुनी। पर वह संतुलित नजरिया गुजिश्ता दशक में लगभग अलोप हो चुका है। आज का भारत दुनिया की दो महाशक्तियों- चीन और अमेरिका, के बीच भारत अमेरिका और उसके धड़े का खुला पक्षधर बन कर उभर रहा है। पाकिस्तान और कभी मित्र रहे अफगानिस्तान को लेकर सत्तारूढ़ धड़े और उसके सहयोगियों का कट्टर इस्लाम विरोधी तेवर दीवार बन कर खड़ा हो रहा है। और आसन्न विधानसभा चुनावों में हिन्दू वोट बैंक का सबसे आत्यंतिक ध्रुवीकरण उसी के आधार पर होगा, यह कई हालिया कदमों से साफ हो चुका है।


सवाल है कि ओरिजिनल मंथन से लक्ष्मी जी भी प्रकट हुई थीं। इस मंथन से उनका कैसा प्रकटीकरण हुआ है? इसमें शक नहीं कि मनमोहन सिंह सरकार को मौजूदा सरकार चाहे जितना पानी पी-पी कर कोसे लेकिन आर्थिक तौर से आंकड़े गवाह हैं कि उनके वक्त में प्रगति की रफ्तार ही नहीं बढ़ी बल्कि उसके सफलों का गरीबी से उबरते नव मध्यवर्ग और खेतिहर ग्रामीणों के बीच वितरण भी कहीं अधिक व्यापक रहा है। वक्तृता के क्षेत्र में मनमोहन सिंह को पीछे छोड़ते हुए परवर्ती सरकार ने गरीबों को स्वाश्रयी और गरिमामय बनाने का सपना बड़ी सफलता से बेचा और चुनाव जीते। लेकिन अब तक यह साफ हो गया है कि स्वच्छ भारत, स्किल अपग्रेडेशन मिशन, नमामि गंगे से उज्ज्वला योजना तक सभी अग्रगामी कदम कभी पेट्रो कीमतों में उछाल, कभी कोविड और सबसे ज्यादा संस्थागत ढांचे की कमजोरियों का शिकार होकर गरीबों के लिए निराशाजनक ही निकले हैं। बेहद महंगे बन गए कुकिंग गैस के सिलेंडर खाली हैं, मनरेगा में हुई कटौतियों से गांवों में बेरोजगारी बढ़ी है, खासकर औरतों में, उधर साफ पानी, जल-मल व्ययन की कमजोरी से शौचालय खस्ताहाल हैं। इस सबके प्रमाण खोजने दूर नहीं जाना पड़ता। अच्छे दिनों के अमृत घट की छीना-झपट में जो कुछ बूंदें धरती पर टपकीं, उनको चाट कर बैंकों के अरबों में अनचुकाए लोन झपटमार भगोड़े, कालेधन और ड्रग तस्करी के सांप अलबत्ता नया जीवन पा गए। सोशल मीडिया पर वैश्विक व्हिसिल ब्लोअर्स की रपटें रोज उनकी नई भारतीय प्रजातियां सामने ला रही हैं। शेयर बाजार की उछाल से अमीर और अधिक अमीर हुए हैं, और उनके और गरीबों के बीच की खाई बढ़ी है। लुटियन की दिल्ली के वरदहस्त पाए लोगों के लिए अच्छे दिन किसान-मजदूरों की झोंपड़ियों के लिए आत्महत्या का सम्मन बन चले हैं!

ऐसा भी नहीं कि मंहगाई हम तक ही सीमित है, पर दुनिया विश्व बाजारों के प्रताप से इस कदर अंतर्गफिुंत हो गई है कि न्यूयार्क-लंदन छींकें तो सारी दुनिया को नजला हो जाता है। चूंकि सारी दुनिया में 12.5 फीसदी तक महंगाई दर बढ़ी है, चीन को छोड़कर सभी देश ‘शेख अपनी अपनी देख’ वाली स्वार्थी मानसिकता में कैद हैं। और दुनिया को बचाने की एक पर्यावरण, एक विश्व, एक ग्रिड वाली नेक सलाहें उनके चिकने घड़ों पर पानी की बूंद की तरह नहीं ठहरतीं। जब अंतरराष्ट्रीयता की मौत हो रही है, तब चीन लड़ाकू सफल साम्यवाद का नया अधिनायकवादी संस्करण बन कर उभर रहा है। उत्तर मार्क्सवादी युग में रूस और अमेरिका ने चौधरियों की पगड़ियां उतार दी हैं और साफ कर दिया है कि उस चीन से वे सीधी मुठभेड़ नहीं करेंगे जहां उनका अरबों का निवेश फंसा हुआ है।


इस माहौल में पहले जैसे अंतरराष्ट्रीय युग पुरुष नहीं दिखते क्योंकि उस तरह के रंगमंच बचे ही नहीं हैं। सबकी नाक मास्क से ढकी हुई है। हाथ मिलाने की बजाय यह कुहनी मार कर सद्भाव जताने का युग है जहां पंजाबी स्टाइल जफ्फियां- झप्पियां मारने की तस्वीरें नेताओं को तुरंत विश्व कार्टूनिस्टों के निशाने पर ला देती हैं। इसमें नई संचार तकनीकी और डिजिटल खबरों ने भी मदद की है। रावण यदि बार-बार टीवी पर आए तो एक दिन दुनिया देख ही लेती है कि उसके नौ सिर नकली हैं। चीन की तरफ अमेरिकी खूंटे के बल पर हम जितने भी सींग दिखाएं, उसकी तरह आत्मसंपूर्ण हम भी नहीं हैं। उसने दुनिया की नाक तले हमारी सीमा से सटकर तरह-तरह के अतिक्रमण किए, सौ घरों का गांव बसा डाला और हम गांधारी की तरह आंखों पर पट्टी लगाए कहते रहे कि न कोई आया, न गया। आज का मुख्य संघर्ष अब हर देश में जवान और बुढ़ाती पीढ़ी के बीच है। बुढ़ाते नेता रेत पर पड़ी लहर हैं, तो जवान पीढ़ी भी अपने महासागर को तलाशती त्रिशंकु लहर नजर आती है।

चाई कई बार नाटक से ज्यादा असरदार बन जाती है। हाल में दो घटनाएं ऐसी घटीं, उन्होंने मानो दुनिया को किसी ग्रीक त्रासदी को उस चरम बिंदु पर लाकर छोड़ दिया जहां देशों की सारी भव्यता और कमजोरी एक साथ उजागर हो जाती है। पहली घटना थी अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी। जिस अफरातफरी में और जिस तरह सर झुकाए अमेरिका की अक्षौहिणी लौटी तो उसने इलाके को तालिबानी ताकतों और पाक खुफिया सरगनाओं के हवाले छोड़ दिया। अभी भले भारत में नादान लोगों को खैबर पार के खोखलेपन से सांत्वना मिल रही हो और वे इंतजार कर रहे हों कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान लगातार और विखंडित होंगे और कश्मीर को भारत में पूरी तरह मिलाने का सुखद क्षण पास है। लेकिन वे भूल रहे हैं कि हमारे इतिहास में जब भी मुस्लिम पड़ोस में फूट पड़ती है तो वह भारत के हिंदू-मुस्लिम समीकरणों को भी चुंबक की तरह मध्यकाल की तरफ खींचता है और हमारे चारों तरफ के पड़ोसी देशों और बंदरगाहों को गोद में बिठा चुके चीन की खुर्राट नजर उसी ऐतिहासिक क्षण की प्रतीक्षा में है जब पाकिस्तान उससे मदद मांगेगा और वह उसका त्राता बन कर पलक झपकते इस उपमहाद्वीप के रणांगन में अपना चक्रव्यूह रच देगा।


दूसरी घटना थी इस मानसून में हिमाचल से लेकर केरल तक ऐतिहासिक जलप्रलय, भूस्खलन और ओडिशा से मुंबई तक आए चक्रवाती तूफान। मौसम विज्ञानियों की नजर में यह सब आने वाले कल का पूर्वाभास है। अगर जैविक ईंधन कोयले का इस्तेमाल तथा कार्बन उत्सर्जन कम नहीं हुआ और तापमान तीन डिग्री से और बढ़ा, तो भारत ही नहीं सारी दुनिया तबाही की खाई में अपना गिरना नहीं रोक सकेगी। तुम्हारे महल चौबारे धरे रह जाएंगे सारे। रूस, चीन तो खैर इस बातचीत में शामिल ही नहीं हुए और भारत ने भी अंतत: कॉप-26 की विश्व बैठक में चुपचाप कोयले का इस्तेमाल बंद करने की बजाय उसे क्रमश: कम करने के मसौदे पर हस्ताक्षर कर दिए। अगर हमारे माननीय नेतृत्व को अब देश, पार्टी और जनता को बचाना है तो उनको कांग्रेस मुक्त भारत की बजाय सबसे पहले चिरंतन हिन्दू-मुस्लिम, सवर्ण-अवर्ण कलह और अमेरिकी सरपरस्ती पर निर्भरता से मुक्त होना होगा। जब तक हम अपने पुराने कलहों से, सामंती व्यक्तिपरक राजनीति से मुक्त नहीं होंगे, तब तक इस पर बहसियाने का कोई मतलब नहीं कि भारत में राष्ट्रीयता और उप-राष्ट्रीयता की शक्लें और रिश्ते किस तरह तय हो।

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Published: 21 Nov 2021, 8:00 PM
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