मृणाल पाण्डे का लेख: आकर्षक कैंपेन की घोषणा से नहीं बदलेगी तस्वीर, धरातल पर काम करना होगा

प्रधानमंत्री में हिंदी के आकर्षक शब्द खोजने और उनको अपने उद्बोधनों में पिरोने की विलक्षण क्षमता है। उसके बावजूद उन्होने अंग्रेज़ी के कैच दि रेन जैसे शीर्षक का इस्तेमाल क्यों किया होगा, यह सवाल सहज मन में उठता है।

फोटो: सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

चुनावों की तमाम गहमा गहमी और कोविड के दूसरे उभार की चिंताओं के बीच 22 मार्च को हमने भी विश्व जल संरक्षण दिवस मनाया। प्रधानमंत्री जी ने इस अवसर पर जल शक्ति अभियान की तहत राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र और उत्तराखंड के कुछेक पंचों, सरपंचों, वार्ड प्रमुखों से वर्चुअल सम्मेलन के दौरान ‘कैच दि रेन’ (बारिश को पकड़ो) नामक एक और आकर्षक कैंपेन की घोषणा की। उन्होंने अटल जी के शासन काल (2005) में घोषित केन और बेतवा नदी को लिंक कनाल से जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजना को भी फिर से गतिशील बनाने पर ज़ोर दिया, जो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के सबसे सूखे इलाकों को पर्याप्त जल संसाधन दिलवायेगी। उनका कहना था कि भारत में विकास या आत्मनिर्भरता जन जन तक तभी आ सकेंगे जबकि उनकी पानी जैसी बुनियादी ज़रूरत पूरी हो।

प्रधानमंत्री में हिंदी के आकर्षक शब्द खोजने और उनको अपने उद्बोधनों में पिरोने की विलक्षण क्षमता है। उसके बावजूद उन्होने अंग्रेज़ी के कैच दि रेन जैसे शीर्षक का इस्तेमाल क्यों किया होगा, यह सवाल सहज मन में उठता है। भाषा सिर्फ जीभ से नहीं निकलती, वह मन और मस्तिष्क से उपजती है। वह मन, जो मन की बात में आस पास के सामान्य जन जीवन का इतना कुछ सहज समेट कर हर सप्ताह देशवासियों के सामने लाता है। और उनसे कई बार राज समाज भी काफी कुछ नया सीखता सोचता है। यह नारा सुन कर इस लेखिका को लगा की शब्दों के धनी नेता के ‘बारिश का जल बचाओ’ या ‘वर्षा को थामो’ की बजाय ‘कैच दि रेन’ के अंग्रेज़ी नारे वाला भाषाई बदलाव क्या उनके मन मस्तिष्क के किसी महीन बदलाव का सूचक मानें ?


दिवंगत मित्र और पर्यावरणवेत्ता अनुपम मिश्र याद आये जिन्होंने कभी समझाया था कि हिंदी भाषा में ‘विकास’ शब्द की अवधारणा जो है, वह विश्व बैंक और यू एन के विद्वानों की निर्मिति है। जीवन भर पानी के पारंपरिक संरक्षण पर ज़ोर देते और देश भर में घूम घूम कर तमाम स्थानीय नदी, तालाबों, झीलों और कुंओं-बावडियों को बचाने के लिये निरंतर संघर्षरत अनुपम जी आज नहीं रहे। लेकिन आज जब एक तरफ भोजपुर अंचल से बुंदेलखंड तक नदियाँ जोड़ कर पानी के लिये मचा हाहाकार कम करने की और बारिश का पानी सहेजने की चर्चा हो रही है, तो विकास परियोजनाओं की भाषा की गाँठ आम जन की भाषा और पारंपरिक सोच से कस कर जोडने पर अनुपम जी की बुद्धिमत्तापूर्ण सलाहें स्मरणीय हैं। सबसे ऊपर उनकी यह सलाह है, कि जल का सही तरह से बचाव न तो सरकारी किलेबंदी से होगा न ही मैं, मेरा मुहल्लावादी स्वांत: सुखाय दृष्टि अपनाने से। यह काम परंपरा और आधुनिकता के मेल से बहुजन हिताय नज़रिये से ही संभव है।

खुद को, समाज के सदियों से चले आ रहे जल संचयन के सोच को समझे बिना विकास की विचित्र उतावली और अंग्रेज़ी में जारी विदेशी सलाहों के नखत पर नखत तारे पर तारा लगाने की अभ्यस्त बाबूशाही ने कई दशकों से गड़बड़ मचा रखी है। नदी जोड़ो अभियान इसका उदाहरण है। यह 2005 में बड़ी धूमधाम से घोषित हुआ। लेकिन तीन बरस तक विभिन्न विभागों ने इसकी बाबत विशद् परियोजना रपटें आपस में साझी ही नहीं कीं। काफी उह आह के बाद 2008 में इसका बुनियादी खाका बना। फिर कुछ पर्यावरण कुछ राज्यों के बीच जल बंटवारे से जुड़ी आपत्तियों की वजह से यह मामला सुप्रीम कोर्ट चला गया। 2012 में इसे हरी झंडी मिल भी गई तो फिर इस योजना से पन्ना जिले के वन्य जीव संरक्षण अभियान पर दुष्प्रभाव की बात उठ खड़ी हुई। इस बीच इस योजना की लागत लगातार बहुत बढ़ती गई है।


अब आते हैं अन्य बड़ी जल संरक्षण योजना नमामि गंगे पर। 2014 में जल जीवन मिशन की तहत घोषित गंगा सफाई की पुरानी योजना का बजट पूरी तरह से केंद्र के हाथों में लाई गई योजना के ‘नमामि गंगे’ बनते ही चार गुना कर दिया गया। लक्ष्य था 18 बरसों में गंगा की पूरी सफाई। यह होते ही पर्यावरण संरक्षण और विकास की बाबत तरह तरह के नवनिर्मित (अंग्रेज़ी से अविकल अनूदित) सामाजिक वानिकी (सोशल फारेस्ट्री), लाभार्थी (बेनिफिशियरी), जलागम क्षेत्र विकास (वॉटरशेड डेवलपमेंट) सरीखे चकरा देनेवाले शब्दों का सरकारी अमले द्वारा धड़ल्ले से प्रयोग शुरू हो गया। इसकी तहत सबसे महत्वपूर्ण राज्य था उत्तराखंड जहाँ स्थित गंगोत्री ग्लेशियर से गंगा निकलती है। वहाँ के लिये 6 सफाई परियोजनायें घोषित हुईं। लेकिन साथ ही धार्मिक पर्यटन के विकास की तहत सड़क चौडीकरण (वाइडनिंग दि रोड्स) के भीमकाय बुलदोज़रों का प्रवेश हुआ। भूगर्भ विज्ञानी कहते रह गये कि यह नाज़ुक इलाका है। यहाँ अधिकाधिक पर्यटक आवाजाही तय कराने से पहले ग्लेशियरों पर ग्लोबल वार्मिंग की मार से उपजे संकट का निदान कीजिये। पर विदेश में बनी पर्यावरण की शब्दावली से सजी मूल परियोजना अपनी जगन्नाथ रथ जैसी चाल चलती रही। भारी भरकम सड़क निर्माण, महत्वाकांक्षी पावर योजनायें ‘विकास’ नाम के आयातित इंजन से चलाई जाती रहीं। 7 बरस बाद रैणी गाँव के भूस्खलन ने दिखाया है कि ग्लोबल वार्मिंग से पिघलते ग्लेशियरों की उपेक्षा करते हुए जलधारा के बीच ऊर्जा दोहन और पर्यटन के लिये हो रहे ताबड़तोड़ विकास से गंगा की जलधारा ही कितने गंभीर खतरे में पड़ गई है।

जनभागीदारी (पबलिक पार्टिसिपेशन) सेमिनारों प्रपत्रों में बो कर हिंदी में आया शब्द आज हर कहीं खर पतवार की तरह उपजा हुआ दिख रहा है। जिन सजल सरल शब्दों की धारा से नदियों के नाम बने थे, बादलों के मिट्टी के प्रकारों, सरोवरों के जल का नामकरण हुआ था , वे जलस्रोतों की ही तरह सूख चले हैं। जल के असली स्रोतों से कट चुके हमारे नीति निर्माता भाग्यविधाता और उनका ताबेदार प्रशासन तथा मीडिया सबके सब जल संरक्षण और घर घर जल पहुंचाने के काम को एक नीरस खर्चीला व्यवसाय बना रहे हैं। सरकारी बाबू कहते हैं कि शौचालय भवन निर्माण की ही तरह जल संचयन तो तब भी आसान है, पर उसे पाइप लगा कर घर घर और सरकारी शौचालयों तक पहुंचाना बेहद मंहगा। अब तक 20 हज़ार करोड डकार चुकी परियोजना के बीच अगर आज भी गांव के गांव एक चट्टान के खिसकने से हमेशा के लिये मिट रहे हैं, जंगली पशु वन्य संरक्षण का दायरा ‘विकास’ के फैलाव से लगातार कम होने के कारण गाँवों में घुस कर तबाही मचाने को बाध्य हों, तो लगता है जो गाद भर गई है, वह सरकारी माथे के भीतर है, गलेशियर नहीं, वह पारंपरिक सोच ही पीछे खिसकता चला गया है जिसकी तहत सारा स्थानीय समाज सदियों से अपने हिसाब से जल जंगल मिट्टी का बचाव करता रहा।


दरअसल भाषा में सबसे पहले राज समाज के भीतर उसके मन में आ रहा बदलाव झलकता है। इसीलिये भाषा का बदलाव बारिश पकड़ने से भी पहले वह वर्ग पकड़ लेता है जो शब्दजीवी है। उदारता या निजत्व सरीखे शब्द जो कभी समाज के लिये आश्वस्तिकारक थे, आज अर्थव्यवस्था, खेती कानूनों के उदारीकरण या बैंकों के निजीकरण से जुड़ कर जनता को क्यों भयभीत कर रहे हैं ? क्योंकि उनके पीछे सरकारी बाबूशाही की बढ़ती डरावनी लाल फीताशाही है, जो उदारीकरण, चौड़ीकरण, वन विकास, नदी सफाई अभियान के नाम पर सरकारी संस्थानों की मार्फत विकास कम त्रास अधिक उपजाती है |

जल बहुत धीरज और समझदारी से अपने इलाके की तरफ बहता है। नदियाँ समुद्र में विलीन हों तो भी बहुत शायस्तगी से होती हैं, प्रलय मचा कर नहीं । विकास के नाम पर नदियों के कुदरती बहाव को बदलना उनको जोड़ना घटाना सयानापन नहीं। कुदरत के अपने वैज्ञानिक नियम हैं। हमारे पुरखों की भाषा उनको प्रतिबिंबित करती थी। आज के विकास की भाषा नहीं करती।इसपर विनयशील हो कर सोचना ज़रूरी है।

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