मृणाल पाण्डे का लेख: आम पर बवाल और मंशा पर सवाल

हाल ही में राहुल गांधी ने सहज-सामान्य बातचीत के दौरान कहा, ‘मुझे यूपी के आम पसंद नहीं। आंध्र का अच्छा लगता है।’ इसमें ऐसी कोई बात नहीं थी कि यूपी के मुख्यमंत्री हत्थे से उखड़ जाते और राहुल की निजी पसंद को ‘विभाजनकारी’ करार दे देते।

फोटो: सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

हाल ही में राहुल गांधी ने सहज-सामान्य बातचीत के दौरान कहा, ‘मुझे यूपी के आम पसंद नहीं। आंध्र का अच्छा लगता है।’ इसमें ऐसी कोई बात नहीं थी कि यूपी के मुख्यमंत्री हत्थे से उखड़ जाते और राहुल की निजी पसंद को ‘विभाजनकारी’ करार दे देते। उन्होंने हिंदी में ट्वीट करते हुए कहा कि अपने विभाजनकारी संस्कार से उन्हें एक फल के स्वाद में भी क्षेत्रवाद दिखता है। उन्हें ‘याद रखना’ चाहिए कि ‘कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत का स्वाद एक है।’

आज के भारत में बैंक नोट पर भी उसका मूल्य एक दर्जन से अधिक भारतीय भाषाओं में लिखा जाता है, ऐसे में इस तरह की खीज का औचित्य और इसका टीवी बहस का विषय बन जाना अफसोसनाक है। यहां क्या-कुछ चल रहा है, उसे समझने के लिए रॉकेट साइंटिस्ट होना जरूरी नहीं। आम के किसी खास किस्म के बारे में निजी पसंद-नापसंद की छोटी-सी बात को इस तरह घुमा दिया गया कि इससे वोट बैंक को एकजुट किया जा सके। आखिर यूपी में विधानसभा के चुनाव जो होने हैं! इससे तो वह बात बरबस याद आती है जो महिलावादी अरसे से कहते रहे हैं- जो कुछ भी निजी है, वह अंततः सियासी ही हो जाता है!

यूपी के पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को जबर्दस्त बहुमत मिला और उसने ऐलानिया तौर पर एकता और सुधार का लक्ष्य रखा। लेकिन उसने व्यवहार में राष्ट्रवाद और हिंदी भाषा के मुद्दों को केंद्र में रखा जो विकास और बहुसंख्यवाद के उनके असली एजेंडे को सामने लाता है। मौजूदा मुख्यमंत्री बार-बार हिंदी और हिंदू संस्कृति की बात करते हैं और वह खुद भी अपने तमाम सार्वजनिक संबोधनों या संदेशों में संस्कृतनिष्ठ हिंदी का प्रयोग करते हैं। उन्हें देखकर सरकारी महकमों ने भी उनकी नकल करने में कोई देरी नहीं की। अगर इस तरह की रूपांतरित हिंदी की लहर पर सवार होकर कथित विशुद्ध हिंदुत्व आ जाता है तो निश्चित रूप से यह सनातन धर्म की मध्ययुगीन परंपराओं और राम मंदिर निर्माण जैसे सार्वजनिक विमर्श की ओर ही ले जाएगा।

किताबों में हम लोकतंत्र हैं जहां संविधान भारत को एक बहुसांस्कृतिक, धर्मनिरपेक्ष राज्य के तौर पर परिभाषित करता है जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हर नागरिक का अभिन्न अधिकार है। हमारी पीढ़ी ने स्वाभाविक ही यह समझा कि संवैधानिकता और गैर-संवैधानिकता से दो सर्वथा भिन्न तरह की राजनीति प्रतिबंबित होती है। लेकिन आज के भारत में सत्तासीन दल को छोड़कर बाकी सियासी दलों से लेकर मतदाताओं तक में अपने शक्ति-संपन्न होने के अहसास का सर्वथा ह्रास हो गया है। यही वजह है कि जब केंद्र सरकार अंग्रेजी को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के लिए इस्तेमाल करती है और क्षेत्रीय क्षत्रपों को भाषाओं को विभाजक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की अनुमति देती है तो हम गुरेज नहीं करते।


सच कहा जाए तो हिंदी पट्टी और अन्य सभी भाषाई रूप से परिभाषित राज्यों में, कम-से-कम राजनीतिक कार्यकर्ताओं में बहुभाषावाद को अकल्पनीय तरीके से खारिज कर दिया गया है। सभी प्रकार के व्यक्तिगत मामलों- हम जो पढ़ते-लिखते हैं या जिस पर सार्वजनिक रूप से खुलकर चर्चा कर सकते हैं, हम जो भोजन करते हैं, जो कपड़े हमें (विशेषकर महिलाओं को) पहनने चाहिए, उन्हें एक अलिखित लेकिन आधिकारिक स्वीकृति से संकुचित किया जा रहा है। केवल भारत का सिकुड़ता भाषा आधार ही चिंताजनक नहीं है बल्कि व्यापक चिंता का विषय यह है कि सभी समुदायों-वर्गों के लिए एक ही तरह के दर्शन का सामाजीकरण किया जा रहा है और यह हजारों किस्म के फूलों के साथ-साथ खिलने की अवधारणा को खत्म करने वाला है। हमारे सामने एक ऐसी सांस्कृतिक आत्ममगु्धावस्था का खतरा आ खड़ा हुआ है जहां कोई राहुल गांधी अगर कह दे कि उसे यूपी के दशहरी से अच्छा आंध्र का बैंगनपल्ली आम लगता है, तो आसमान फट पड़े!

आम (संस्कृत में ‘आम्र’) का अंग्रेजी शब्द ‘मैंगो’ कोई उत्तर से नहीं आया बल्कि प्राचीन तमिल से आता है जिसमें इसका उल्लेख ‘मंगा’ के रूप में होता है। सच तो यह है कि यह फल सच्चे और मूलतः मिश्रित भारतीयता को बड़ी खूबसूरती से परिभाषित करता है। कम ही लोगों को पता होगा कि आम वास्तव में एक अत्यधिक विषमयुग्मजी पौधा है। इसकी उत्पत्ति न तो उत्तर में हुई और न ही दक्षिण में बल्कि उत्तर-पूर्वी राज्यों के जंगलों में हुई। उसके बाद इसे पूरे भारत में बीजों से उगाया जाने लगा। लेकिन ठहरिए! आम के बीज से तैयार किया गया हर पौधा एक नई ही किस्म का होता है क्योंकि बीज अंततः केवल पार परागण से ही बनता है। इसे अक्सर उत्साही किसानों द्वारा, एक विदेशी प्रकार को दूसरे पर ग्राफ्ट करके तैयार किया जाता है। किंवदंती है कि ‘लंगड़ा’ आम को एक लंगड़े साधु ने किसी से दान में मिली कलम को अपने आंगन में दूसरे पेड़ के साथ ग्राफ्टिंग करके तैयार किया था। उत्तर में आम की लंगड़ा और दशहरी की आधुनिक किस्मों और दक्षिण की बैंगनपल्ली, बेनिशान, सवुर्णरेखा से लेकर अल्फांसो तक सभी किस्में उत्तर-दक्षिण के मेल से बनी हैं। आम्रपल्ली आम की हाल की किस्म, दक्षिण के नीलम और यूपी के दशहरी के मेल से बनी है।

भाषाई और सांस्कृतिक रूप से दो चीजें हैं जो आज भारत में निरंतर संकरण चला रही हैं- प्रवास और इंटरनेट। अपनी नवीनतम पुस्तक (वांडरर्स, किंग्स एंड मर्चेंट्स) में भाषा विज्ञान की प्रसिद्ध प्रोफेसर पैगी मोहन ने विस्तार से वर्णन किया है कि भारतीय भाषाओं की परस्पर टकराहट के बीच तमाम तरह की पृष्ठभूमि के लोगों द्वारा अपनाए जाने से अंग्रेजी की पकड़ और व्यापकता लगातार मजबूत होती जा रही है। अंग्रेजी इस तरह बढ़ती जा रही है कि कई देशी भाषाओं के विलुप्त होने का गंभीर खतरा पैदा हो गया है। एक समय था जब हमारा ब्राह्मणवादी अभिजात वर्ग एक ऐसी भाषा चाहता था जो उसे आम आदमी से अलग करता हो। इसलिए आर्य घुसपैठियों की भाषा संस्कृत बड़ी आसानी से शासक वर्ग की भाषा बन गई। आजादी के बाद अंग्रेजी ने धीरे-धीरे इसकी जगह लेना शुरू किया। तभी से, खास तौर पर पूरी हिंदी पट्टी में गरीबों की पहुंच धन-संकट में रहने वाले उन सरकारी स्कूलों तक ही रही जहां पढ़ाई हिंदी में होती है। पिछले दशक में स्कूलों के बढ़ते निजीकरण के साथ, निम्न मध्य वर्ग की नई पीढ़ी ने अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भेजना शुरू किया और इस तरह हम कड़वे और मीठे के बीच सामंजस्य की ओर बढ़ने लगे। आज किसी भी छोटे शहर में जाएं, ‘केश कर्तनालय’ या ‘किराना स्टोर’ की जगह आपको ‘हेयर कटिंग सैलून’ और ‘ग्रॉसरी शॉप’ के होर्डिंग दिखाई देंगे। यहां तक कि ‘पूजा की दुकान’ को भी अब ‘पूजा स्टोर’ कहा जाने लगा है।


इसलिए आज हमारे नेता भाषा के सवाल को जैसे भी हमारे सामने पेश करते हों, यह अब राष्ट्रवाद या क्षेत्रीय गौरव से जुड़ा नहीं है। भारत में युवा पीढ़ी की वास्तविक भाषा-निष्ठा उनके बहुभाषी माता-पिता से उल्लेखनीय रूप से भिन्न है, जैसा कि नरेंद्र मोदी भी महसूस करते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी के उलट मोदी एक ऐसी हिंदी का प्रयोग करते हैं जिसमें अंग्रेजी के शब्द भी होते हैं और यही आज के युवा महत्वाकांक्षी भारतीयों की भाषा है।

लेकिन कोई गलती न करें। जैसा कि पैगी मोहन की तुलनात्मक स्थापना है, भाषाएं खदान में मजदूरों के दल के साथ ले जाई जाने वाली उस नन्ही चिड़िया की तरह है जिसका बेहोश हो जाना खतरे की पूर्व चेतावनी होता था। आज लोकल भाषा वही खदान की चिड़िया है। वह मंद हो चली तो मान लें कि संस्कृति खतरे की कगार पर है। ‘चीयर इंडिया’ के साथ, ‘मेक इन इंडिया’-जैसे चारों ओर गूंज रहे नारों के साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और आने-जाने की स्वतंत्रता को तेजी से सेंसर किया जा रहा है और इन सब पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीके से नजर रखी जा रही है। हमारे नेता भाषा का जो खेल खेल रहे हैं, वह बताता है कि हम एक बड़े खतरे की ओर बढ़ रहे हैं। स्थिति यह है कि जातीयता, नस्ल और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता पर असहज प्रश्न उठाए जा रहे हैं। खाने से लेकर टीकों तक के नागरिक अधिकारों के लिए एक नैतिक ढांचा क्या हो? महिलाओं समेत हाशिये पर रहे समुदायों के प्रति सदियों पुराने पूर्वाग्रहों और घावों को ताजा करने वाले शब्दों को हटाने के लिए हम क्या कर रहे हैं? हम यही कर सकते हैं कि जहां इंसानियत नहीं है, इंसान बनने का प्रयास करें।

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