मृणाल पाण्डे का लेख: मीडिया के अर्णब गोस्वामीकरण का विद्रूप चेहरा आया सबके सामने, एक न एक दिन ये तो होना ही था

‘दि नेशन वॉन्ट्स टु नो!’ (देश जानना चाहता है!) की दैनिक गर्जना के साथ तमाम बड़े-बड़े विपक्षी दलों के नेताओं को हर रोज तीखे स्वर से बींध कर कठघरे में खड़े करने वाले ‘रिपब्लिक टीवी’ के प्रधान संपादक अर्णब गोस्वामी खुद अदालत के कठघरे में हैं।

फोटो : सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

मीडिया से जिन लोगों का लंबा अनुभव समृद्ध नाता रहा है, उनको लगता था कि एक-न-एक दिन यह तो होना ही था। ‘दि नेशन वॉन्ट्स टु नो!’ (देश जानना चाहता है!) की दैनिक गर्जना के साथ तमाम बड़े-बड़े विपक्षी दलों के नेताओं को हर रोज तीखे स्वर से बींध कर कठघरे में खड़े करने वाले ‘रिपब्लिक टीवी’ के प्रधान संपादक अर्णब गोस्वामी खुद अदालत के कठघरे में हैं। उनके खिलाफ महाराष्ट्र पुलिस ने कुछ बहुत गंभीर आरोप लगाए हैं। टीआरपी रेटिंग्स घोटाले में अर्णब और बार्क (ब्रॉडकास्टर्स ऑडियेंस रिसर्च काउंसिल) के प्रमुख के बीच की मिलीभगत के सुबूत की बतौर उनके वाट्सएप बातचीत के 500 पन्नों में दर्ज ब्योरे भी पेश किए हैं।

जैसे-जैसे सूचना संचार क्रांति गहराई, लोकतांत्रिक देशों में उसकी लोकप्रियता और जन-जन तक पहुंच तेजी से बढ़े हैं। डिजिटल प्लेटफॉर्मों की आमद और स्मार्ट फोन के सस्ते होते जाने से भारत में भी टीवी का पर्दा और सोशल मीडिया के मंच के आकार और खबरों के स्रोतों में बड़ी तब्दीली आ चुकी है। आज सूचना के डिजिटल पोर्टल और खबरिया निजी चैनल जनता तक राजनीति पर बतकही का एक भारी राजपथ बन गए हैं। पर मीडिया में छाए इन दस्तावेजों के तथ्य भले ही पड़ताल के बाद ही पूरी तरह खुलें, फिलहाल वे आज के टीवी चैनलों की भीतरी दोस्तियों, दुश्मनियों और उनकी लोकप्रियता का पैमाना बनी रही ‘बार्क’ की रेटिंग्स के तरीकों की बाबत हैरतअंगेज बातें उजागर करते हैं। यह भी कि1995 से 2010 तक के निजी मीडिया के संपादकों-पत्रकारों में अनुभव और तकनीकी कौशल भले आज से कम रहा हो, लेकिन अपने उपभोक्ताओं तक पूरी छानबीन के बाद सही ठोस सचाई पहुंचाने का आग्रह मीडिया में तब कहीं ज्यादा था।


21वीं सदी के दूसरे दशक में दुनिया भर में निजी खबरिया चैनलों के अलावा ट्विटर, फेसबुक तथा वाट्सएप सरीखे मंच राजनेताओं से लेकर अभिनेताओं और व्यवसायियों के लिए भी अपनी तरफ जनता का रुझान खींचने वाली खबरों के प्रभावकारी स्रोत बनते गए। लेकिन पहले की तरह अनुभवी संपादकीय टोलियों द्वारा खबरों की कई तरह की पड़ताल, उनकी प्रस्तुति के साथ ठोस साक्ष्य देना और राजनीति का तटस्थ विवेचन विदा किए गए हैं। चौके में इतनी तरह के अनुभवी और अनाड़ी बावर्ची एक साथ खटर-पटर करने लगें, तो खाना खराब होगा ही। सो पिछले छः बरसों में न्यस्तस्वार्थ जनता को यह विश्वास दिलाने में सफल हो गए कि उनकी आलोचना कर रहे सभी मीडियाकर्मी कुजात और बिके हुए जीव हैं।

इसके बाद क्रमश: कुछ नई तरह के पत्रकारों का तेजी से ग्राफ बढ़ता गया जो धंधई तटस्थता ताक पर धरकर सीधे सत्तापक्ष के पैरोकार बन रातोंरात नाना प्रकार के मंचों को हथियाने में सफल हुए। कभी उपक्रमी मालिकान और उनके पोसे पत्रकारों की मार्फत लोकप्रिय अखबारों में ‘पेड’ खबरों पर वरिष्ठ लोग बेतरह खफा हुए थे। पर 2014 के बाद से जिस नई सूक्ष्म तकनीकी की आमद हुई, उसने स्टिंग ऑपरेशन, फेक खबरों और अपुष्ट विजुअल्स की बाढ़ लाकर अपुष्ट खबरों से किसी को भी फंसाने के लिए प्राइवेसी में सेंध लगाना आसान और नियमित बनाया। इस किसम की खोजी पत्रकारिता का गठजोड़ जब चुनावी राजनीति के साम-दाम-दंड-भेद में निपुण चाणक्यों से हो गया तो खबरें देना जनहित में सूचनाएं जारी करने की बजाय एक तरह से अपनी छवि को विराट विश्व रूप में दिखाने और प्रतिपक्षी की छवि पर का लिख मलने वाला एक छापामार चुनावी युद्ध बन गया। जितना ऊंचा शिकार उतना बड़ा दाम और भेद, और उससे कई खबर देने वालों का अहं आसमान छूने लगा! छिछोरी और गैरकानूनी तलवारबाजी के ऐसे खेल पर सयाणे कह गए हैं कि जो तलवार से खेलेगा, उसी से खेत हो रहेगा। वाशिंगटन से मुंबई तलक पत्रकारिता को धंधई तलवार बनाकर खेलने वाले मीडिया के युग का अंत अब उसी से हो रहा है।


इस कांड ने तीन खौफनाक बातें भी उजागर की हैं: एक, कि अब सत्ता पक्ष के करीबी मीडिया के कुछ लोगों को घटना से बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक सरीखी सैन्य कार्रवाइयों की बाबत बहुत नाजुक और महत्वपूर्ण गोपनीय जानकारियां सहज उपलब्ध हैं जिनका वह अपने चैनल की रेटिंग बढ़वाने के लिए उपयोग करने से संकोच नहीं करते। दो, कि सरकार के करीबी स्वघोषित राष्ट्रवादी पत्रकारों की देशभक्ति की असलियत यह है कि वे पुलवामा की दर्दनाक घटना में हमारे 40 जवानों के मारे जाने पर शोक जताने की बजाय चटखारे लेकर कह सकते हैं कि इससे चुनावों में उनकी पसंदीदा पार्टी को पगला देने वाली जीत मिलेगी। और तीन, कि चैनलों की लोकप्रियता का सर्वमान्य पैमाना, बार्क की साप्ताहिक टीआरपी रेटिंग्स जिनके बूते ‘रिपब्लिक टीवी’ का अकूत दर्शक बटोर कर नंबर वन होने का दावा बना, वह सिरे से संदिग्ध था। अगर दस्तावेज सही साबित होते हैं तो अर्णब ने अपने साथ के कुछ अन्य सरकार के करीबी माने जाने वाले पत्रकारों, खासकर महिलाओं को जिस तरह मुटल्लीया कचरा जैसे विशेषणों से नवाजा, उससे एक और चौथा और अप्रिय तथ्य यह भी उभरता है कि खुद गोदी मीडिया में भी मित्रता नहीं, भीषण भितरघात है।

सवाल कई उठ रहे हैं, उठने भी जरूरी हैं: बालाकोट की जवाबी सैन्य कार्रवाई क्या आम जनता को दी गई जानकारी के विपरीत राष्ट्रीय सुरक्षा का कदम नहीं, महज एक चुनावी हथकंडा थी? क्या खुद को पूर्वर्ती सरकारों से कहीं अधिक कार्यकुशल बताने वाली सरकार का सुरक्षा कवच इतना पोला है कि बड़ी सैन्य कार्रवाई के घटित होने की पूर्वजानकारी कुछ गैर सरकारी पत्रकारों को हो जाती है? ‘बार्क’ जैसी संस्था बनाई गई थी कि निजी चैनलों के दर्शक उपभोक्ता या कोई भी दुष्प्रभावित पार्टी, उसके आगे अपनी शिकायत दर्ज करा न्याय पा सकें। कहा जाता रहा कि प्रेस काउंसिल की ही तरह इस संस्था को भी सजा के मामले में सख्त और पर्याप्त दांत नहीं दिए गए। लेकिन यह तो उम्मीद थी ही कि किसी भी साख वाले चैनल की बार्क द्वारा टोका-टाकी का असर होगा। आखिर हयादार को डूब मरने को चुल्लू भर पानी काफी होता है। उपभोक्ता अगर संतुष्टन हों तो अदालत जा मानहानि कानूनों, अभिव्यक्ति की आजादी के कानूनों का हवाला देकर अपराधी को सजा दिलवाने की पहल कर सकते हैं।


पर आज इस बात का एक दर्दनाक अहसास मीडिया के हर रूप के उपभोक्ता को है कि विवादित सरकारी अथवा कॉरपोरेट योजनाओं पर सत्ता से कड़े सवाल पूछने वाले मीडिया को तो तरह-तरह से अपमानजनक बातें कह-कह कर उसकी साख धूमिल कर दी गई। अब संविधान की तहत मिली अभिव्यक्ति की आजादी को भी जो मीडिया की ताकत का मूल स्रोत है, कभी मानहानि कानून को दंडविधान के अंतर्गत गैर जमानती बनाकर दबाया गया। कभी सरकार या बड़े उद्योगपतियों के खिलाफ लिखने वालों, यहां तक कि कार्टून बनाने या धंधई मसखरों (स्टैंडअप कॉमिक्स) तक को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून की तहत आरोपी बनाकर अनियत अवधि तक जेल भेज कर। असहज भय के माहौल में जब अर्णब सरीखे चंद वरदहस्त प्राप्त पत्रकार हर रोज राजनीतिक विपक्षियों के खिलाफ अपुष्ट दावे करें, बड़े विपक्षी नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं पर अभद्र छींटाकशी करें और उदारवादी विचारों का लगातार मजाक उड़ाएं, तो सवाल बनता है कि इस तरह की पत्रकारिता क्या लोकतंत्र में मत भिन्नता के सहज हक को नहीं कमजोर बना रही? क्या अल्पसंख्यक विरोधी तेवरों से वह देश के भीतर सदैव से मौजूद बंटवारे की ताकतों को खतरनाक शह नहीं दे रही?

यह सही है कि टीवी तथा सोशल मीडिया के हमाम में कई और भी हैं। तमाम अज्ञात कुल गोत्र बंदे पत्रकार बने हमाम के बीच दूर की हांकते दिख रहे हैं। लेकिन यह गौरतलब है कि इस मसौदे में जो बातचीत दर्ज है वह खुद बातचीत करने वाले के अनुसार, राजनय और सैन्य नीति के शिखरों से उसे सीधे मिली प्रामाणिक सूचनाओं पर आधारित है। इसकी गंभीर जांच होनी ही चाहिए। उल्लेखनीय है कि पुलिस के दिए बातचीत के इसी मसौदे में आगे जाकर अर्णब अपने मित्र बार्क के प्रमुख को यह भी बताते हैं कि कश्मीर में भी कुछ बड़ासा होने जा रहा है। इसके ठीक 5 महीने बाद अनुच्छेद 370 हटा दिया जाता है, राज्य तीन फाड़ किया जाता है और फिर वहां राष्ट्रपति शासन लग जाता है। पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा यदि इन सब तथ्यों के हवाले से यह मांग कर रहे हैं कि लोकतंत्र की सुरक्षा की बाबत इन जानकारियों का इस तरह शीर्ष से लीक होना गंभीर जांच की मांग करता है, तो वह सही कह रहे हैं। राष्ट्रहित में खुद राष्ट्र को भी तो पता चले कि ‘नेशन वांट्स टु नो’ का नारा बुलंद करने वाले अर्णब जैसे मीडियाकार सत्ता के शिखरों तक सीमित ऐसी गोपनीय सूचनाओं को किस तरह हथिया और भुना पा रहे हैं?

राज्य पुलिस द्वारा यह जानकारियां मान्य अदालत के सामने लाने से यह भी लगता है कि अमेरिका की ट्रंप सरकार की ही तरह अपने यहां भी सरकारों और उसके भरोसेमंद मीडिया को, बिना यह जाने कि वह उनका क्या करेंगे, रंगबिरंगे कंचों की तरह गोपनीय तथ्य और अधिकार जमा करने का शौक होता जा रहा है। क्या वे इन खुफिया जानकारियों को बंदूक की रिजर्व गोली की तरह जेब में डाले रखेंगे और जब राजनीतिक या कॉरपोरेट लाभ-लोभ सामने हो, तब-तब चलाएंगे?

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Published: 24 Jan 2021, 8:00 PM
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