मृणाल पाण्डे का लेख: कोई आज के भारत की पीड़ा को साकार करने के लिए दिल्ली का ‘शह्र आशोब’ लिखने बैठे तो उसे क्या दिखेगा?

अगर कोई आज के भारत की पीड़ा को साकार करने के लिए राजधानी दिल्ली का ‘शह्र आशोब’ लिखने बैठे तो उसे क्या दिखेगा? इन पंक्तियों के लिखे जाने तक शहर की तालाबंदी की मीयाद एक सप्ताह और बढ़ाही नहीं दी गई, सख्त भी कर दी गई है।

फोटो: सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

इधर यह सोचा जाने लगा है कि किसी समय का जो बीता इतिहास है, वह एक समाप्त किताब है। उसमें नई जानकारियों और सवालों के साथ दोबारा प्रवेश असंभव है। पर यह गलत है। इतिहास की सच्ची समझ समय के साथ उसके अलग- अलग पाठों और जातीय स्मृतियों से लगातार बनती रहती है। और बीते दिनों की बाबत कई जरूरी जानकारियां विभिन्न भाषाओं में ऐसे स्रोतों से भी मिलने लगती हैं जो अपने वक्त में खामोश-प्रतिबंधित कर दिए गए थे। इसलिए 2021 में देश का आज का भीषण कष्ट और राजनीतिक अफरातफरी को महज गोदी मीडिया की शाब्दिक फिरकियों से लैस ताजा खबरों, सरकारी विज्ञप्तियों या पार्टी प्रवक्ताओं की चीख पुकार से नहीं समझा जा सकता। यह आज अचानक जो जातीय अस्मिता या मां भारती को समर्पित देश प्रेमी लेखकीय जमात कुकुरमुत्तों की तरह उपज गई है, यह पहले नहीं दिखाई देती थी। ऐसा नहीं कि पहले देश पर भारी आफतें नहीं आती थीं और उनपर लिखा नहीं जाता था। महामारियां, बाढ़, सुखाड़, बाहरी हमलावरों के दस्तों के कत्लेआम और लूटपाट हमारे यहां बार-बार हुए हैं। पर उनके चश्मदीद गवाह रहे लेखक- जायसी और तुलसीदास से लेकर घनानंद, मीर या नजीर-जैसे बड़े शायर या कवियों ने बहुत संयम और संवेदना से आम आबादी और बड़े शहरों की बदहाली पर लिखा है। नाम विशेष को कोस या सराह कर नहीं, देश की राजधानी या बड़े शहर को देश के हालात का आईना बना कर।

आज की त्रासदी 1857 के गदर और उसके बाद गोरों की मार से उजड़ा दयार बन चुकी दिल्ली पर दर-बदर हुए महाकवि मीर ने और फिर गालिब ने जो लिखा, वह अधिक मौजूं है। उनका बयान उनकी निजी पीड़ा नहीं, उनके वक्त के सारे भारत की तकलीफों का मुजाहिरा है। इसी तरह आगरे पर मुगलिया सल्तनत के पतनशील काल में जब जाट रोहिल्ले और तमाम छोटे-मोटे लुटेरों के गिरोह कभी मुगलों की राजधानी रही आगरा की दौलतमंद नगरी में घुस कर लूट- मार करके उसे उजाड़ रहे थे, तो आगरे पर जनकवि नजीर ने ‘शह्र आशोब’ नाम से आगरे की बदहाली के बहाने तब के उत्तर भारत की दुर्दशा का जो सच्चा विवरण लिखा है, उस पर दरबारी भाट-चारणों के चाटुकारिता भरे कई रासो कुर्बान किए जा सकते हैं: ‘दीवार ओ दर के बीच समाई है मुफलिसी, हर घर में इस तरह से फिर आई है मुफलिसी, पानी का टूट जावे है ज्यूं एक बार बंद...’


अगर कोई आज के भारत की पीड़ा को साकार करने के लिए राजधानी दिल्ली का ‘शह्र आशोब’ लिखने बैठे तो उसे क्या दिखेगा? इन पंक्तियों के लिखे जाने तक शहर की तालाबंदी की मीयाद एक सप्ताह और बढ़ाही नहीं दी गई, सख्त भी कर दी गई है। इसका कोई विरोध नहीं हुआ क्योंकि बेहाथ बन चुकी महामारी और सरकारी स्वास्थ्य संस्थाओं के जर्जर ढांचे की दिनोंदिन उजागर होती दुर्दशा के चलते जनता के लिए इस पर आह या सरकार के लिए और कोई राह बची नहीं थी। अधिकार प्रिय केंद्र सरकार ने अखिल भारतीय नीतियां और प्रशासकीय फैसले लगातार केंद्रमुखी बना डाले हैं। फरवरी से मार्च के बीच जब कोरोना की पहली लहर शिथिल पड़ी तो केंद्र ने कोविड की रोकथाम के लिए नीति- निर्धारण के सारे अधिकार और वैक्सीन आवंटन अपने पास रख लिए और चुनावी सभाओं में प्रचार शुरू हो गया कि भारत ने विकसित देशों से पहले रोग पर फतह पा ली है। हम दुनिया के सबसे बड़े वैक्सीन निर्माता हैं और हमको कोई खतरा नहीं, आदि।

विदेश नीति में सुयश बटोरने के लिए छोटे-छोटे बाहरी देशों को भारत में बनी वैक्सीन इफरात से बांटी जाने लगी जैसे हमारे यहां कारूं का खजाना गड़ा हो। अप्रैल में जब दूसरी लहर ने विराट रूप दिखाया तो उजागर हुआ कि हमारे पास कोरोना-2 से निबटने लायक न तो हस्पताल थे, नही जीवनरक्षक उपकरण या पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन। देश भर से बेहाल रोगियों, उनके रोते-बिलखते तीमारदारों, थकान से पस्त चिकित्सकों और शवदाह गृहों के देश में भरसक रोक लगाने के बावजूद विदेशी मीडिया में हृदय विदारक विजुअल इतनी तादाद में आ रहे हैं कि शक की गुंजाइश भी नहीं रही। कभी यह हाल था कि अमुक प्रियजन सघन चिकित्सा कक्ष (आईसीयू) में है सुनकर दिल दहल जाता था, आज यह सुनकर कि उखड़ती सांसों के बावजूद उनको आईसीयू में बेड तो क्या, ऑक्सीजन का सिलिंडर तक नहीं मिल पा रहा, मन छटपटा उठता है। शवों को इतनी बड़ी तादाद में बिना परिवारों की मौजूदगी के, बिना अंतिम समय की सहज गरिमा के जैसे-तैसे अनाथों की तरह जलाए या दफनाए जाते देख कर जनता के गुस्से बांध टूट चला है। वह सरकारी संस्थानों या हॉटलाइनों की बजाय अब सोशल मीडिया पर उमड़ पड़े करुणामय उन जन सेवियों की सदाशयता पर आश्रित है जो किसी तरह जरूरी सामान जुटाने में उनकी मदद को आगे आए हैं।


सब जानते हैं कि मौत का एक दिन तय है। महामारी भी शायद एक दिन कम होती हुई थम जाएगी। लेकिन महामारी से उजड़ा और सरकार से मोहभंग का शिकार बन चुका यह देश अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के आगरे या दिल्ली की ही तरह एक अदृश्य तरह से बदल रहा है। नजीर की पंक्तियां इतिहास के इन कालातीत मोड़ों की साक्षी बनकर नई तरह से लौ दे रही हैं: ‘यां आदमी को तेग मारे वो भी है आदमी, औ’ जो जा के उसको उठाए है वो भी है आदमी।’ तालाबंदी के इस एक साल में दिल्ली के हर परिवार ने एक या एकाधिक परिजनों को खोया है, और अकेलेपन में अलग-थलग पड़े हुए मानवीय रिश्तों पर नई तरह से सोचना शुरू किया है। 2019 के चुनावी नतीजे गवाह हैं कि महामारी से पहले का भारत दिल्लीवालों की ही तरह अच्छे दिनों के, टीवी के जोशीले भाषणों के अफीमी नशे में डूब कर मानने लगा था कि देश का सर्वशक्तिमान मुखिया सर पर है, तो सब मुमकिन है। हर रोज घोषणा होती थी कि अमुक जगह नया एम्स या आईआईटी बन रहा है; कि लाखों नौकरियों का सृजन करने वाले पर अकुशल सार्वजनिक उपक्रम अब कुशल निजी क्षेत्र को दिए जाएंगे; कि संरक्षित अभयारण्य काट कर, नदियों को जोड़कर निर्माण क्षेत्र और टूरिज्म में बढ़त होगी; भरपूर पर्यटक आएंगे तो पर्यटन उद्योग गरीब राज्यों के लिए एक कामधेनु बनेगा। इसीलिए जब खबर आई थी कि राजधानी के रायसीना हिल का पुनर्निर्माण होगा और माननीय प्रधानमंत्री के लिए वहां एक भव्य राजकीय आवास बनेगा, तो कुछेक को छोड़ शेष जनता की प्रतिक्रिया ‘कोउ नृप होय हमें का हानी’, की ही दिखती थी। आज, कभी थाली और ताली बजा कर कोरोना भगाने के नुस्खों से छली गई, टीकाकरण उत्सव के सुहाने सपने देखती जनता पा रही है कि उपकरणों, ऑक्सीजन और टीकों की घोर तंगी है। इससे राजधानी के बड़े निजी हस्पताल भी फिल वक्त जरूरी जीवन रक्षक उपकरणों से लगभग महरूम हैं। लगातार केंद्रीकरण से लाल फीताशाही इतनी बढ़ गई है कि बिना स्मार्ट फोन और तमाम तरह के ओटीपी बार-बार बुलवा कर भी आसानी से टीका लगवाना या सांघातिक रूप से बीमार मरीज को भर्ती कराना लगभग असंभव है। गरीबों ही नहीं, दिल्ली के तू जानता नहीं मैं कौन हूं, की धमकी देने के अभ्यासी खाते-पीते मध्यवर्ग के लिए भी।

सोशल मीडिया देश की सोच का काफी बड़ा आईना है। आज उस पर छिपाए नहीं छिपता कि जनता सरकार की बदहवासी ही नहीं, जनता की अमानत और कभी राजधानी में सैर-सपाटे का नायाब स्थल रहे दिल्ली के भव्य राजपथ पर खुदी खाई-खंदक और इस राजकीय शाही निर्माण पर हो रहे बेहिसाब खर्च तक पर आग बबूला हो रही है। पुराने ‘शह्र आशोब’ की स्मृतियों में वापिस जाना उन्हें वापिस लाना नहीं है। आज को नई तरह से पहचानना है। आज भी भीषण मुसीबत की घड़ियों में (जब गालिब के शब्दों में ‘चली सिम्तेगैब से वो हवा, कि चमन का सुरूर जल गया’) हमको युद्ध जैसी स्थिति सामने होने पर इंसानी जमात की बुनियादी प्रतिक्रियाओं, आचरण, जिजीविषा और भाषा को समझने की दृष्टि देती हैं। गालिब की ही तरह हम देखते हैं कि जीवन कहीं बचा रहता है, तो कवि के हृदय में, ‘बस एक शाखे निहाले गम कि जिसे दिल कहें वो हरी रही।’ चमन उजड़ जाते हैं, पर संवेदना की शाख का नन्हा हिस्सा हरा बना रहता है। फिलवक्त नौ बार बनी और उजाड़ी गई दिल्ली का यह ताजा ‘शह्र आशोब’ मीडिया या राजनेताओं के बड़बोले बयानों से नहीं, उसी बचे-खुचे हरेपन की ओट से लिखा जा सकता है।

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