मृणाल पाण्डे का लेख: विपक्ष पर हमले और गोदी मीडिया में गुणगान से नहीं बनती छवि, ऐसा होता तो ट्रंप की थू-थू न होती

पुरानी कहावत है कि जो तलवार से जीतता है, अंत में तलवार से ही मारा जाएगा। अमेरिका के इतिहास में आज ट्रंप पहले ऐसे घटिया नेता बन गए हैं जिनपर संसद में दूसरी बार महाभियोग लाया जा रहा है।

फोटो: सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

पिछले एक साल में हम हांकों और भेड़चाल के इतने अभयस्त हो चले हैं कि भीड़ की बेतुकी हा हा हूती ने हमको चौंकाना बंद कर दिया है। फिर भी सात समंदर पार दिनांक 6 जनवरी को अमेरिका की राजधानी में राष्ट्रपति के सत्ता हस्तांतरण को लेकर जो कुछ जिस तरह घटा, वह साधारण शब्दों या टीवी छवियों के परे जाता है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के तत्वावधान में रिपब्लिकन दल की सरकार और बड़े उद्योगपतियों का दस्ता एक सर्वभक्षी सफेद शार्क मछलियों का गिरोह बन गया था। शीर्ष पर ताकत की हनक और धन की भूख से भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार और गरीबों की भूख का सीधा रिश्ता होता है। फिर भी नस्ली दंगों और बेरोजगारों के बीच हलचलों की उपेक्षा करते हुए ट्रंप, उनके खानदान तथा उद्योपति दोस्त, फेक खबरों की मदद से गरीब श्वेत अमेरिकियों को यह भरम बेचने में कामयाब रहे कि उनके बासी भात में खुदा का साझा मांगने वाले अमीर नहीं, बल्कि अश्वेत प्रवासी, और गरीब अफ्रीकी मूल के अमेरिकी हैं। सवाल उठाने वालों को बेवकूफ, उदारवादिता के पक्षधर और वाम रुझान के देश विरोधी करार दिया गया। क्या हमको भी यह सब परिचित नहीं लगता?

पुरानी कहावत है कि जो तलवार से जीतता है, अंत में तलवार से ही मारा जाएगा। अमेरिका के इतिहास में आज ट्रंप पहले ऐसे घटिया नेता बन गए हैं जिनपर संसद में दूसरी बार महाभियोग लाया जा रहा है। चुनाव जीतने के जो-जो हथकंडे नागरिकों की निजता के तथा अपने पद की गोपनीयता की मर्यादा तोड़कर इस्तेमाल किए, उन्हीं के इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य आज उनके खिलाफ सामने हैं। चार बरस ऐसे राष्ट्रपति मीडिया में धमाकेदार आतिशबाजी सी फुरहरी पैदा करने वाली जुमलेबाजी तथा ट्वीट्स का पलीता लिए सारी दुनिया में फिरते रहे। कोविड की चेतावनी के बीच भारत ने राजनय की मर्यादाएं ताक पर धर कर उनके तथा उनकी तीसरी बीबी मेलानिया के लिए गुजरात में पलक-पांवड़े बिछाए और लाखों की भीड़ के बीच सार्वजनिक रूप से ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ के नारे लगवाए जो सारी दुनिया ने देखे। इस स्वार्थी, आत्मुग्ध अवयस्क ट्रंपवादी सोच की तहत डॉलर को ईश्वर प्रतिमा और पिस्तौल को लगभग शिवलिंग की तरह पूजा जाने लगा। शर्म की बात यह कि 6 जनवरी को वाशिंगटन के चौक पर तिरंगा लहराने वाले वज्रमूर्ख जैसे कई प्रवासी भारतीय भी इसी विचारधारा से खुले या छिपे तौर से सहमत रहे आए।


हम इससे इनकार नहीं कर सकते कि हमारे राज-समाज में जो सचमुच के बुनियादी बदलाव हुए हैं, और होते जा रहे हैं, वे गोदी मीडिया और भक्तों के बड़बोले आराध्य नेता नहीं लाए। आजादी के बाद से बिना शोर-शराबे के मंथर गति से लगातार भारत बदला है। हर हफ्ते रेडियो कार्यक्रम में हम तमाम तरह के दार्शनिक प्रवचन और बोझिल उबाऊ सरकारी योजनाओं की तहत नेतृत्व को सारे सकारात्मक बदलावों का निजी उपलब्धियों की तरह बखान करते सुनते हैं। पर क्या आप उस क्षण पर उंगली रख सकते हैं जब हमारे करोड़ों परिवारों के लिए सात समुद्र पार यात्रा करना, रेलों में कैंटीन वाले की जात पूछे बिना पिलास्टिक की थाली से खाना-पीना, बिना धर्मगुरुओं से विमर्श किए मैरिज ब्यूरो या अखबारी विज्ञापनों से अंतर्जातीय रिश्ते तय करना, सेलफोन की मार्फत बेझिझक अपनी महिला या पुरुष दोस्त से बात करना, होटल का खाना मंगवा कर खाना या जवान लड़कियों को पढ़ाई के लिए अकेले दूसरे शहर या विदेश जाने देना संभव ही नहीं, सहज स्वीकार हो गया? कब गांव-कस्बे की स्कूल-कॉलेज जाने वाली लड़कियों ने बिना शर्मसार हुए सैनीटरी नैपकिन खरीदना, रिक्शे के बगल में साइकिल सवार पुरुष रिश्तेदार के बिना खुद अपनी साइकिल या स्कूटी चलाकर शिक्षण संस्थानों तक आना-जाना शुरू कर लिया और छ: गजी साड़ी पहनकर बस या रेल से सफर करना खुद-ब-खुद गायब हो गया?

शोक की बात यह है, कि हमारे राजनीतिक दलों का सारा समय और ध्यान राज-समाज के सार्थक बदलावों को सही तरह समझने, और गंभीरता से आगे बढ़ाने की बजाय अगला चुनाव जीतने और दलगत जोड़-तोड़ से वोट का गणित अपने हक में करने की उत्कट जिद से विपक्ष के हर कदम को गलत साबित करने, करवाने में ही बरबाद होता है। कोई नहीं चाहता कि हमारी कृषि या शिक्षा या स्वास्थ्य कल्याण या खुदरा बाजार नए समय से नई तकनीकी की मार्फत कदमताल न करें। इसी वजह से हरित क्रांति, श्वेत क्रांति और मनरेगा तथा परिवार कल्याण की योजनाओं का पूर्ववर्ती सरकारों ने आगाज किया। पर हर सप्ताह विपक्षी सरकारों को हर बदहाली का जिम्मेदार बताकर सिर्फ बटन दबाकर नई योजनाओं का शिलान्यास करने वाले लगता है वह सब भूल गए हैं। चुनावी जीत के लिए उन शिलान्यासों और टेली प्रॉम्प्टर से पढ़कर बोले जा रहे आप्त वाक्यों के नयन लुभावन दृश्य टीवी पर दिखाकर या सोशल मीडिया में ट्रोल्स की विपक्ष के खिलाफ मुहिम तथा गोदी मीडिया में भक्तों के सरकार के गुणगान से सचमुच का क्रांतिकारी बदलाव नहीं आएगा। ऐसा होता तो दुनिया में सोशल मीडिया पर सबसे अधिक समर्थकों वाले ट्रंप इस समय दुनिया की थू-थू न बटोर रहे होते।


6 जनवरी के दृश्य देखने के बाद हमारे महान क्रांति प्रेमी जन नेताओं को यह समझ लेना चाहिए कि इस मुश्किल वक्त में, जब कोविड ने सारे विश्व को पस्त निढाल बना रखा है, जनता को वैक्सीन की सुरक्षा या नए खेती कानूनों की बाबत आश्वस्त करना हो, तो सिर्फ चंद नयनाभिराम छवियों, जुमलों से मीडिया को पाटने से नहीं चलेगा। यह सब आमने-सामने की अंतरंग बातचीत के समय खुद मौजूद रहने का विकल्प नहीं। बिना विपक्ष को बीच में लाए जनता से सीधे बातचीत इंदिरा गांधी भी कई बार करती थीं, लेकिन हमेशा इकतरफा नहीं, बहुतरफा। जब यह क्रम टूटा, पार्टी ने इसका खामियाजा भुगता और अगले चुनाव में वह गलतियों से नसीहत लेकर आगे बढ़ी और जीती। पर यह कर पाने के लिए नेतृत्व में एक खुले आत्म स्वीकार की क्षमता, समझदारी, धीरज और संयम जरूरी होता है। अगर नेतृत्व इतना आत्ममुग्ध बना रहे कि उसे विपक्ष या विशेषज्ञों की हर आलोचना देशद्रोह प्रतीत हो जिसे वह कुचल कर खत्म करना चाहे, तो बदलाव किस तरह होगा?

आज हमारा हजारों साल पुराना इतिहास मनुवादी सोच और लैंगिक विषमता से धीमे-धीमे ही सही, पर उबर रहा है। खेती भी इसका अपवाद नहीं। याद रखना होगा कि हर विशाल बदलाव का भंवर हर जाति, धर्म और व्यवसाय के लोगों को एक ही तरह से खींचता, झकझोरता है। यह लड़ाई जितनी बाहरी समाज में लड़ी जाती है, उतनी ही (हर आय और आयु वर्ग के) स्त्री-पुरुषों के निजी अंतर्मनों में भी। यहां यह भी याद रखना होगा कि देश की तीन चौथाई आबादी 40 से कम उम्र की है। भारी बदलाव के उबाल के बीच खड़े नेतृत्व को अपने ही युवा नागरिकों के हाथों दुनिया में भद न पिटने देने के लिए फिलवक्त ट्रंप मार्का अहंवादी हठधर्मिता और पक्षपात से दूर ही रहना होगा। मध्य प्रदेश में बापू के हत्यारे गोडसे के नाम पर वाचनालय की विस्मयकारी स्थापना इसी तरह का आत्महंता सोच दिखा रही है। वह युवा भारत से कह रही है कि आज हिंदुत्व एक क्रिया नहीं, गांधीवादी समन्वय के खिलाफ एक प्रतिक्रिया है। राजनीति में भी कांग्रेस घृणा अब तक भाजपा के चुनाव प्रचार की कुंजी रही है । लेकिन जो दल कांग्रेस मुक्त भारत बनाने की विघ्न संतोषी मानसिकता को पोस कर खुद को ताकतवर बनाना चाहता है, विघ्न खत्म हुआ तो खुद उसका गुब्बारा भी पिचकने लगता है। ट्रंप के नेतृत्व में इतराता रिपब्लिकन दल इसका साक्षी है कि यह मान बैठना कि विपक्षी दलों का कोई भविष्य ही नहीं है आत्मघाती साबित होता है। भारत में भी आज संसद या विधानसभा में उनकी सीटें भले कम हों, लेकिन ओवैसी या तेजस्वी यादव की तरह विपक्षी दल शनै: शनै: एक परिभाषा विहीन भूल भुलैया रच रहे हैं। उसमें देर- सबेर तरह-तरह के नाराज युवा समूह जो खुद को सरकारी हिंदुत्व की परिधि में मिसफिट पाते हैं, खुद को समाहित करना चाहेंगे। और जब यह हो तब मानव मन की ही तरह बदलाव की हर योजना को लागू करने में कई देखे-अनदेखे कोण निकलते चले जाते हैं। किसान धरना उसी तरह के अनदेखे-अनचाहे पेंच से प्रकटा है।


नाराज किसानों से बातचीत से राह निकालने के विषम क्षणों में सरकारी वार्ताकारों का काठ जैसे मुंह से उनसे यह कह देना कि नए किसानी कानूनों के विरोध में धरने पर बैठे लोग सरकार के पास नआएं, जाना है तो सीधे कचहरी जाएं। न सिर्फ गैर जिम्मेदाराना बल्कि हद तक अहंकारी भी था। ऐसे तेवरों से हल कैसे निकलता? अब सर्वोच्च अदालत के ताजा फैसले ने सरकार को उसकी बेदिली और कठोरता से फटकारा और कानून को फिलहाल स्थगित रखने को कहा है। माननीय अदालत देख सकती है कि राज भले ही कुछ बरस तक प्रजा से दूर एक किस्म की निरंकुश अनसुनी पर कायम रखा जा सके, पर हमारे कृषि प्रधान देश के किसानों जैसे विशाल कमाऊ वर्ग को नए कानूनों की तहत ऐसी नई शै में बदलने को मजबूर करना जो उसकी सदियों से चली आ रही नैसर्गिक और दुर्लभ उत्पादन तथा विपणन व्यवस्था को सिरे से खारिज करती हो, औसत छोटे किसान के लिए आत्महत्या की पैरवी करना जैसा है। इज्जतदार गरीब भी उसे कैसे मान सकते हैं?

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