मृणाल पाण्डे का लेख: अफगानिस्तान को लेकर दो धड़ों में बंटा विश्व राजनय, वेट एंड वॉच की मुद्रा में कई देश

सोमवार को अमेरिका ने बीस बरस परदेसी धरती से चलाया अपना सबसे लंबा युद्ध बिना वादे पूरे किए, बिना अपने स्थानीय समर्थकों को वाजिब सुरक्षा दिए जैसे-तैसे खत्म कर दिया। जिस तरह बेआबरू होकर अमेरिका अफगानिस्तान से निकला है, उसी तरह कभी ब्रिटेन और रूस भी निकाले गए थे।

फोटो: IANS
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मृणाल पाण्डे

सोमवार को अमेरिका ने बीस बरस परदेसी धरती से चलाया अपना सबसे लंबा युद्ध बिना वादे पूरे किए, बिना अपने स्थानीय समर्थकों को वाजिब सुरक्षा दिए जैसे-तैसे खत्म कर दिया। जिस तरह बेआबरू होकर अमेरिका अफगानिस्तान से निकला है, उसी तरह कभी ब्रिटेन और रूस भी निकाले गए थे। अमेरिकी सेना के इतिहास में यह उसके संभवत: सबसे शर्मनाक अध्यायों में से एक बना रहेगा। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक काबुल के हवाई अड्डे पर तालिबान का पूरा कब्जा हो चुका है। और तालिबान प्रवक्ता जबीउल्ला मुजाहिद ने कहा है कि वे अमेरिका से अच्छे राजनयिक रिश्ते तो रखना चाहते हैं, पर ‘दुनिया को यह सबक अब सीख लेना चाहिए कि यह हमारी जीत है! और यह हमारे लिए जीत का जश्न मनाने का वक्त है।’

कुछ सवालों के जवाब बीस बरस तक लोकतांत्रिक अफगानिस्तान को जबरन हांकते रहे अमेरिका के पास नहीं हैं। वार्ता के टेबल पर बैठ कर वे खुद तालिबान से कहां से बातचीत शुरू करें, यह विश्व नेताओं को नहीं पता लेकिन वे मीडिया की मार्फत नए तालिबानी आकाओं से पूछ रहे हैं कि अमेरिका की विदाई के और उसकी भरपूर आर्थिक मदद बंद होने के बाद वे अब क्या करेंगे? अमेरिका के कई नागरिक और समर्थक अभी भी वहीं हैं। इसलिए उसका रुख नरम है। उनकी सुरक्षा के लिए और आइसिस सरीखे नए आतंकी गुटों की बंदूकें पच्छिम की तरफ न मुड़ने देने के लिए वह तल्खी की बजाय अब लगभग दोस्ताना मूड दिखा रहा है। यानी अफगानिस्तान की नई सरकार को राजनयिक स्वीकृति न देते हुए भी उनके साथ आगे बातचीत के खाके में ‘भरोसा बहाली’ (ट्रस्ट) और यकीन (फेथ)-जैसे चतुर राजनयिक शब्द जोड़ रहा है। एक तरफ वह कह रहा है कि गनी की सरकार को मिलने वाली करोड़ों डॉलर प्रतिमाह की इमदाद वह बंद कर रहा है लेकिन वह मानवीयता के तकाजे की तहत वहां के गैर सरकारी तथा यूएन के स्वयंसेवी संस्थानों को भरपूर वित्तीय मदद देता रहेगा।

तालिबान बाहरखाने जितनी गोलियां दाग कर हर्ष मनाएं लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए उसे पहले कुछ जरूरी जिम्मेदारियां निबटानी हैं। सबसे पहले उसे खुद अपने उजड्ड लोकल दस्तों से समीकरण बिठाने हैं। और दो, किसी तरह रुपये-पैसे का जुगाड़ करके उच्चतम तकनीकी से बने विदेशी हथियारों के उस भारी अमेरिकी जखीरे का प्रयोग विदेशी निर्माता कंपनियों के छुट्टे सांडों से सीखना है जो हाथ तो लग गया है, पर जिसकी बाबत वे कुछ नहीं जानते। उसके बाद उसकी प्राथमिकता सूची में स्वदेश की बदहाल जनता की सुध लेने की बारी आएगी। राजनय के जानकार इस समय दो धड़ों में बंटे हुए हैं। एक वर्ग (भारत समेत) उनका है जो इस अंधी गली के पार रास्ता सूझने तक इंतजार करो की नीति अपनाए हुए है। दूसरी तरफ, पश्चिमी धड़े से नाराज वे हताश लोग हैं जो रास्ता न सूझते हुए भी अंधकार में छलांग लगाने के पक्षधर हैं। पहले धड़े को भरोसा है कि अंतत: धरम की हानी तथा महाभिमानी असुरों की बाढ़ देख कर अमेरिका वाराहावतार-जैसी किसी भूमिका में फिर अवतरित होगा। और कीचड़ में लिथड़े इस देश को वह अपने नुकीले दांतों पर उठा कर उसका उद्धार करेगा। दूसरे हताश धड़े को जो पाकिस्तान, बीजिंग और रूस की बनती धुरी के साथ है, यकीन है कि फिलवक्त जब अमेरिका लज्जित-पराजित मुद्रा में है, ताकतवर दोस्तों के बल पर एक लंबी छलांग भर कर इलाके के सरपंच की पगड़ी हासिल की जा सकती है। असंतोष का प्रतीक होते हुए भी तालिबान को पता नहीं कि विद्रोह और सार्थक निर्माण को सही परिमाण में मिलाने का कौन-सा फार्मूला है जो अफगानिस्तान से ईरान तक की राजनीति को इस्लामिक ताकत का विश्व प्रतीक बना सकता है? उधर, अमेरिका और उसके दोस्तों को यह तो पता है कि दूसरे देश की जमीन को अपने हित के लिए इस्तेमाल करने को किस तरह उपनिवेश बनाया जा सकता है। पर विगत में इस मुहिम में उसने जो बेरहमी बरती, उसी का नतीजा है कि जिस भस्मासुरी प्रक्रिया से उसने तालिबान को बनवाया, उसने अल कायदा के रक्तबीज मानव बमों की मार्फत 9/11 की घटना से दुनिया को दहला दिया। फिर दूसरी बार उसने ओसामा बिन लादेन को तबाह करते हुए आतंकवाद के खिलाफ अफगानिस्तान में भारी सैन्य ठिकाना बनाया। बेपनाह पैसा कबीलाई अफगान प्रमुखों और हथियार निर्माता कंपनियों को थमाया। पर उसने खुद उसके घर के भीतर भ्रष्टाचार के घुन पैदा कर दिए। हामिद करजई एयरपोर्ट पर उसके सैनिक हथियार छोड़ कर भागे, 13 युवा सैनिक मारे गए, वह भौंचक्का बना रहा। सही है कि अफगानिस्तान बुश के समय से डॉलरों की अनवरत आहुति मांगने वाला अग्निकुंड बना हुआ था। और यह भी, कि अमेरिकी धरती तथा कोविड से कराहती वित्तीय व्यवस्था की रक्षा के लिए प्रजातंत्र के राजनीतिक ओवरहैड हटाने के लिए अफगानिस्तान नामक सफेद हाथी से पिडं छुड़ाना जरूरी था। पर रूस और चीन समेत दुनिया का कोई बड़ा राजनेता इसके खुले समर्थन को तैयार नहीं।


डेमोक्रेट दलनीत अमेरिका जिस हद तक विश्व राजनय में अफगानिस्तान के आंतरिक शुद्धीकरण की बात कर रहा है, उसी हद तक वह अपने घर की अमेरिकी हथियार निर्माता कंपनियों और ग्लोबल उपक्रमों की जड़ पर भी वार कर रहा है। नतीजा यह कि खुद को मर्दानगी का पर्याय मान कर हथियारों की पूजा शिवलिंग की तरह करते रहे रिपब्लिकन और पदच्युत ट्रंप को उछल-उछल कर जनता से कहने का मौका मिल गया है कि देख लिया शांतिदूत बाइडन और डेमोक्रेट दलों का नाकारा कारनामा जिसने दुनिया की नजरों में अमेरिका को एक हकलाते डरपोक राजनय का पर्याय बना दिया है? चीन ने कहीं कम खर्च से पाकिस्तान और अफगानिस्तान से इसी बीच बेहतर रिश्ते बनाए। इसलिए कि उसने सीधे निवेश की बजाय बेल्ट एंड रोड-जैसी योजनाओं से अफगानिस्तान को भी पूर्वी यूरोप और अफ्रीका से जोड़ते हुए खदानों से खनिज निकालने के अग्रिम अधिकार समय रहते ले लिए और तालिबान से बातचीत का रास्ता भी खुला रखा ताकि अमेरिकी मदद बंद होने पर वह ठोकर खा कर उसके करीब सरक आए। पाकिस्तान को दूर रखने और अफगानों से दोस्ती का रिश्ता बनाने के लिए अफगानिस्तान से मधुर रिश्ते बनाने को 2015 में लोकतंत्र को भारत का तोहफा कहते हुए 90 मिलियन डॉलर की लागत से अफगानिस्तान में संसद की बिल्डिंग खड़ी की थी। 2016 में मोदी जी ने खुद काबुल में 1920 के काल में अफगानिस्तान के शासक अमानुल्ला खान के महल का जीर्णोद्धार करवा कर उसका अनावरण किया। हेरात में बांध बनवाया, सड़कें बनवाईं, बॉलीवुड का चारा चगु्गा तो था ही। पर उस नरम राजनय का अपेक्षित फायदा नहीं मिला। आज जब चीन, पाक और रूस सर-से-सर जोड़े अफगानिस्तान पर बात कर रहे हैं, भारत ने अमेरिका की तरह या शायद उसके इशारे पर, अपनी मुद्रा वेट एंड वॉच ( देखो और इंतजार करो) की रखी है।

बिजली, पानी, सड़क, फिल्मी मनोरंजन से कोई लोकतंत्र दुनिया के पिछड़े और विकासशील देशों में आ जाएगा, 2021 में इसकी दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है। इकलौती राह यही है कि हर देश के पूंजीपति माल पैदा करें और सरकार उसका जनहित की दृष्टि से नियमन करे और किसी एकाधिकार को हद से आगे पनपने से रोक दे। पर डिजिटल बीजाक्षरों पर एक आभासी जाल में बंधी 24x7 चलने वाली ग्लोबल अर्थव्यवस्था के गले में यह नुस्खा नीचे नहीं उतरेगा। देश की संपदा पापी मुनाफाखोरों ने सरकार की मिलीभगत से चुरा कर विदेशों में जमा कर रखी है। वह काला धन क्यों वापिस नहीं लाया जाता? सरकार काहे जमाखोरों, मुनाफाखोर मित्र पूंजीपतियों और भ्रष्ट बाबुओं, थैलीशाहों पर मुकदमे नहीं लगाती। सबको पता है कि इक्कीसवीं सदी में यह करना किसी भी सरकार के वश की बात नहीं।

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