मृणाल पाण्डे का लेख: दुनियादार दोस्ती की दुविधाएं

इस महीने विश्व के सात ताकतवर अमेरिका के मित्र देशों, जी-7, की इंग्लैंड के कॉर्नवॉल इलाके में बैठक हुई। उसे देख कर हम सफेद बाल वाले पत्रकारों को 1955 में नेहरू जी की रूस यात्रा बरबस याद हो आई।

फोटो: सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

इस महीने विश्व के सात ताकतवर अमेरिका के मित्र देशों, जी-7, की इंग्लैंड के कॉर्नवॉल इलाके में बैठक हुई। उसे देख कर हम सफेद बाल वाले पत्रकारों को 1955 में नेहरू जी की रूस यात्रा बरबस याद हो आई। तब मास्को में लाल कालीन बिछा कर भारत के प्रधानमंत्री का भव्य स्वागत हुआ था। खुली मोटर में उनका काफिला निकला और सोवियत भूमि ने संपादकीय छाप कर बाकायदा कांग्रेस शासित भारत का अभिनंदन किया था। इस यात्रा से कुछ ही पहले रूस ने दो खेमों में बंटी साम्यवादी और पूंजीवादी दुनिया की शतरंजी बिसात पर अपने हितों की दृष्टि से कुछ खास एशियाई देशों की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाना शुरू किया था। भारत उनमें से एक था। पाकिस्तान और चीन से हमारी रार ने हमको बीसवीं सदी में ऐसे कोने में धकेल रखा था जो दुनिया की नजरों में हमको अतटस्थ और रूस सापेक्ष बनाता था। इस दोस्ती से अमेरिका के साथ भारत के रिश्तों में तकरीबन तीन दशक तक खटास रही। और अमेरिका से भारत की मुखालफत करते हुए काफी फायदा पड़ोसी पाकिस्तान ने दुह लिया।

पर राजनय की दुनिया के समीकरण हमेशा एक जैसे नहीं रहते। नब्बे के दशक में सोवियत संघ का शीराजा बिखरने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी और फिर डॉ. मनमोहन सिंह के जमाने में भारत-अमेरिका के रिश्तों में गर्माहट आने लगी। और पिछले वर्षों में भारतीय प्रधानमंत्री के रंगारंग यूएस दौरे और ट्रंप के फरवरी, 2020 के भारत दौरे ने तो उस दोस्ती में उफान ला दिया। पहली बार भारत की जमीन पर अमेरिकी चुनावों की पूर्व संध्या पर ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ के नारे लगे जिनके पीछे ट्रंप की फतह का पक्का भरोसा बोल रहा था। ट्रंप की शर्मनाक हार के बाद कोविड की मार पड़ी तो अंतरराष्ट्रीय समीकरणों पर फिर नया मोड़ आया। इसी के साथ संक्रमण के डर से अंतरराष्ट्रीय दौरों पर भी विराम लग गया जिससे नए अमेरिकी नेतृत्व से सीधे मिलकर सुलह-सफाई के मौके मिलना भी असंभव बन गया। ट्रंप से कड़वी लड़ाई कर पद संभालने वाले वयोवृद्ध डेमोक्रेट नेता जो. बाइडन ने फिलहाल अपने सारे पत्ते नहीं खोले हैं। जब कोविड के धक्के से विश्व उबर रहा है और चीन की ताकत लगातार बढ़ रही है, तो यह करना राजनय के नजरिए से निरापद भी नहीं।


जी-7 की बैठक में पिछली सदी के समीकरणों के संभावित बदलाव हमको इस पृष्ठ भूमि में ही पढ़ने होंगे। हालिया बंगाल चुनावों ने दिखाया कि भारतीय नेतृत्व बार-बार दुहराता तो है कि हम लोग एक लंबी शांति और समन्वयवादी, सह- अस्तित्ववादी परंपरा से जुड़े हैं, पर खुद घर के भीतर उनके समर्थक परंपरा को विशुद्ध हिंदुत्व से जोड़कर भारतीय गुलामी के दौरान हुए हिंदू धर्म के अपमान की अनगिनत मरी हुई इतनी सभ्यताओं के अवशेष बात-बात में खोदे जा रहे हैं। रायसीना हिल्स की खुदाई में भी अंग्रेजी हुकूमत की यादों से और गहरे उतर कर उसके बहाने सारे देश को गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैयद, लोदी, मुगल सबके अतीत के प्रेत बाहर कर एक नया हिंदू राष्ट्र बनाने की बातें टिड्डियों की तरह उड़ रही हैं। मध्यकाल में यूरोप के पादरी जिस तरह विभिन्न धर्मावलंबियों को शैतान या चुड़ैल करार देकर जला देते थे, उसी तरह भारत में भी कब किसके बाल या दाढ़ी काट दिए जाएं, या गोकशी का इल्जाम लगा कर पीट दिया जाए, आम होता जा रहा है। जी-7 की बैठक में जो अमीर अमेरिकी धड़े के सदस्य देश शामिल हुए थे, उनका मीडिया इस बाबत कई मायनों में हमारे अपने मीडिया से अधिक बेबाकी से खबरें छापता रहा है। इसलिए उनको हमारे बारे में बहुत भ्रम नहीं है।

तब फिर भारत को एशिया के चंद उन देशों में क्यों शुमार किया गया जिनको अतिथि बनकर भागीदारी के लिए ससम्मान न्योता मिला? साफ वजह यह है किये सब देश चीन के एशिया में निर्विवाद तौर से सबसे बड़ी ताकत और दुनिया में दूसरे नंबर की महाशक्ति बनने से सशंक हैं। और भारत-चीन के रिश्ते लंबी सीमा शेयर करने के बावजूद, या कहें कारण से, बहुत मधुर नहीं रहे। लिहाजा आने वाले समय में भारत अमेरिकी नेतृत्व वाले धड़े के लिए चीन की ताकत को चुनौती देने का कारगर मोहरा बन सकता है।


यह उम्मीद करना बेकार है कि अमेरिका भारत के सांस्कृतिक विरासतवादी तर्कों को बड़ा वजन दे रहा है या देगा। कोई देश दूसरे देश के अस्तित्व के नियम नहीं समझ सकता। जब हम कहते हैं कि आबादी के लिहाज से हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और एशिया की दूसरी उभरती महाशक्ति हैं, तो अमेरिकी विदेश विभाग पर इसका बहुत गहरा असर नहीं हो ता। अगर वे समय-समय पर हमारी ‘रिच हेरिटेज’ पर पत्र पुष्प चढ़ाते हैं तो वह एक मौखिक राजनय की ही अदा है। इसलिए अगर आज कूटनीति की चतुर वाक्यावलि में लोकतांत्रिक देशों का संगठन बनाने की बात की जा रही है तो हमको लोटन कबूतर बनने की नहीं, गौर से ताकत के समीकरण समझने और उनके भीतर हम अपने हित स्वार्थ की रक्षा किस तरह करें यह समझने की जरूरत है।

जो.बाइडन के नेतृत्व में आज का अमेरिका भारत ही नहीं, खुद अपने घर के भीतर भी समन्वयवादी सह-अस्तित्व बनाए रखने की चुनौतियां और खतरे लगातार झेल रहा है। नस्लवाद का, उद्दाम पूंजीवाद और मीडिया में फेक न्यूज झोंक कर राजनीतिक उल्लू सीधा करने का जो जहर ट्रंप के समय में फिजां में भरता गया था, उसके नतीजे वहां भी बार-बार कहीं अचानक अश्वेतों या एशियाई मूल के लोगों के खिलाफ हिंसा के रूप में आ रहे हैं। इसलिए बैठक के अंत में लोकतांत्रिकता की रक्षा से जुड़े जिस मसौदे पर सदस्यों तथा आमंत्रित अतिथियों- ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण कोरिया और भारत ने भी दस्तखत किए, उसका गहरा मतलब है। इसके तहत इन सब देशों ने चीन के बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट के बरक्सन या व्यापारिक रूट बनाने, कोविड महामारी से एकजुट होकर वैज्ञानिक जानकारियां तथा उपकरण साझा कर लड़ने के अलावा चीन द्वारा हांगकांग तथा श्यान इलाके के लोगों के लोकतांत्रिक हक छीनने पर चिंता भी व्यक्त की है। जो हमारे लिए एक और महत्व की बात इस मसौदे में है, वह यह, किये सभी देश नेट तथा डिजिटल माध्यमों में गलत बयानी के खतरों के बावजूद अपने लोकतंत्र में जनता के लिए ऑनलाइन तथा ऑफलाइन, दोनों तरह के सूचना प्रसार माध्यमों की अभिव्यक्ति की लोकतांत्रिक आजादी को कायम रखेंगे।


यह विचार खासकर अंतिम मुद्दा नेक है और निश्चय ही लोकतंत्रकी रीढ़ को मजबूत बनाने वाला है। पर भारत में सरकार की आम परिकल्पना माई–बाप की बना दी गई है, जबकि जनता को इस तरह बरता जाता है, जैसे वह बिगड़ैल किशोर हो। क्या सरकार कठोर अनुशासन पसंद अभिभावक बनने की बजाय वयस्क मीडिया को दोस्त मानने को तैयार है? यदि हां, तो कहते हैं नया बछड़ा सबसे पहले अभिभावक से सींग भिड़ाता है। यह हुआ तो सरकार कितनी दूर तक मीडिया के स्वस्थ सींगों को सहेगी? हर अभिभावक यह कहता तो है कि उसकी दिली तमन्ना है कि समय आने पर बच्चे जिम्मेदार और आत्मनिर्भर बनें। लेकिन कितने अभिभावक सचमुच अपने वयस्क बच्चों की उन्मुक्त विवेचना और आलोचना झेल पाते हैं?

जी-7 बैठक असफल भी हुई तो यह कोई अनहोनी बात नहीं होगी। लेकिन जनता तथा सरकार, मीडिया और मंत्रालय, पत्रकार और पुलिस के बीच जो तकलीफ देह और गैर जरूरी गुत्थियां हैं उनको काटना अलग बात है। और उसके बिना, तमाम नई तकनीकी अपना कर भी कोई देश एक सचमुच का रचनाशील, जिंदादिल और फड़कता लोकतंत्र नहीं बन सकता।

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Published: 20 Jun 2021, 8:00 PM