जीएसटी सुधारों की दिशा में कहा ज्यादा गया, हुआ बहुत कम, दायरा बढ़ाने, विवेकाधिकार खत्म करने की जरूरत

जीएसटी ने भारत की संघीय भावना और राज्यों की राजकोषीय स्वायत्तता को कमजोर किया है। हमें राज्यों को अधिक राजकोषीय अधिकार और स्वायत्तता बहाल करने के तरीके तलाशने होंगे, ताकि वे राज्य-विशिष्ट आर्थिक, सामाजिक और क्षेत्रीय जरूरतों के मद्देनजर नीतियां बना सकें।

जीएसटी सुधारों की दिशा में कहा ज्यादा गया, हुआ बहुत कम, दायरा बढ़ाने, विवेकाधिकार खत्म करने की जरूरत
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अजीत रानाडे

पहली जुलाई 2017 को संसद के विशेष सत्र में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को धूम-धड़ाके के साथ लागू किया गया और ‘तमाम करों की जगह एक कर’ वाली इस व्यवस्था को ऐतिहासिक करार देते हुए सराहा गया। लेकिन यह तो शैतान को बुलावा भेजने जैसा था! 

राज्यों ने राज्य-स्तरीय बिक्री कर, मूल्य वर्धित कर (वैट) और चुंगी जैसे अन्य विविध शुल्क लगाने के अपने अधिकार छोड़ दिए। अधिनियम में राज्य सरकारों को कर की कमी की भरपाई का प्रावधान था, जिसे 2022 में खत्म कर दिया गया।

इस स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री मोदी ने ‘दिवाली उपहार’ की घोषणा की यानी अगली पीढ़ी के जीएसटी सुधार, जिनका उद्देश्य खास तौर पर मध्यम वर्ग और एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम) पर कर का बोझ कम करना है। जीएसटी 2.0 तीन स्तंभों पर टिका होगा: संरचनात्मक सुधार, दरों को तर्कसंगत बनाना और जीवनयापन में आसानी।

एक एकीकृत, राष्ट्रव्यापी, अप्रत्यक्ष कर के रूप में जीएसटी में बनावट और क्रियान्वयन दोनों नजरिये से कमियां हैं। बनावट का दोष है: एक अप्रत्यक्ष कर स्वाभाविक रूप से प्रतिगामी है क्योंकि चुकाया गया कर आय पर नहीं, बल्कि खरीदी जा रही वस्तु के मूल्य पर निर्भर करता है। इसलिए, गरीबों को अमीरों की तुलना में जीएसटी का दंश ज्यादा महसूस होता है। आयकर और संपत्ति कर जैसे प्रत्यक्ष कर, अप्रत्यक्ष करों की तुलना में अधिक उचित हैं। करों में भुगतान की गई आय का अनुपात किसी की आय के साथ बढ़ना चाहिए, न कि घटना चाहिए।

इस गड़बड़ी को काबू करने के लिए कई स्लैब वाला जीएसटी था। गरीबों द्वारा उपभोग की जाने वाली वस्तुओं पर शून्य या 5 फीसद का स्लैब और अमीरों द्वारा उपभोग की जाने वाली वस्तुओं के लिए ऊंचा स्लैब। गरीबों के उपभोग को उनकी आय के पैमाने के रूप में उपयोग करके जीएसटी को निष्पक्ष बनाने का प्रयास तय करता है कि गरीबों को क्या उपभोग करना चाहिए। जरूरी और गैर-जरूरी के बीच का अंतर कोई स्थायी चीज नहीं और वैसे भी इसे केन्द्र सरकार को तो तय नहीं ही करना चाहिए। जीडीपी वृद्धि के साथ, गरीब परिवार मध्यम-आय वाले स्लैब में और मध्यम-आय वाले अमीरों में चले जाते हैं। उनकी आय को सीधे लक्षित करने के बजाय प्रयास उन्हें जीएसटी के जरिये ‘कब्जे’ में लेने का है। 

दुनिया भर में खाद्य और दवाइयां इस तरह की एकीकृत, अप्रत्यक्ष कर प्रणालियों से मुक्त हैं। एक तर्कसंगत व्यवस्था में सभी वस्तुओं और सेवाओं के लिए एक ही दर होनी चाहिए। यूरोपीय संघ, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया और तमाम दूसरे देशों में ऐसा ही है। यहां कुछ-कुछ बदलाव हैं, लेकिन मोटे तौर पर मूल सिद्धांत यही है कि एक मध्य दर हो, जरूरी वस्तुओं (खाद्य, दवा) के लिए बहुत कम दर हो और तंबाकू, शराब और अति-विलासिता वाली वस्तुओं के लिए ऊंची दर हो।

भारत में जीएसटी प्रणाली ने कई कर स्लैबों की जटिल प्रणाली को बरकरार रखा है- 0, 5, 12, 18, 28 फीसद, दंडात्मक कर दर और फिर तमाम उपकर। इस कारण वस्तुओं और सेवाओं के वर्गीकरण को लेकर अक्सर विवाद होते हैं, करदाताओं में भ्रम की स्थिति बनती है और मुकदमेबाजी बढ़ती है। जीएसटी के तहत ‘इनवर्टेड ड्यूटी’ ढांचे की अपनी दिक्कतें हैं और ऐसे कई मामले हैं जहां कच्चे माल पर तैयार माल की तुलना में अधिक कर लगाया जाता है। इससे नकदी प्रवाह की समस्या पैदा होती है और घरेलू विनिर्माण हतोत्साहित होता है।

सकल घरेलू उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा- जिसमें कृषि, पेट्रोलियम उत्पाद, बिजली, शराब और रियल एस्टेट का योगदान है- जीएसटी से बाहर है। चुनिंदा छूटें कर आधार को छिन्न-भिन्न करती हैं, कमाई घटाती हैं और जीएसटी सुधार की कथित भावना को कमजोर करती हैं।

प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त को जो सुधारों की बात की है, उसका सबसे बड़ा बदलाव मौजूदा बहु-स्लैब जीएसटी प्रणाली से दो-स्लैब वाली संरचना की ओर बढ़ना है: एक ‘स्टैंडर्ड’ और एक ‘मेरिट’ दर, जिसमें कुछ चुनिंदा वस्तुओं के लिए खास दरें होंगी। उम्मीद है कि इससे अनुपालन आसान होगा, मुकदमेबाजी और वर्गीकरण विवाद घटेंगे और जीएसटी दरों में आवश्यक स्थिरता आएगी और अंदाज लगाना आसान होगा कि कौन सी गतिविधि किस स्लैब में आएगी। दैनिक उपयोग की वस्तुओं और सुख-सुविधा की आम वस्तुओं पर करों में कमी की उम्मीद है, जिससे उपभोग बढ़ेगा और एमएसएमई को फायदा होगा। औसत दर 18 की जगह 15 फीसद हो सकती है। वैसे, औसत दर 12 फीसद होनी चाहिए, जैसा कि कर सुधारों पर 2002 के केलकर टास्क फोर्स ने सुझाया था।

अंत में संघवाद की बात। संविधान राज्यों को स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे क्षेत्रों पर खर्च करने की ज्यादा जिम्मेदारी देता है, लेकिन स्वतंत्र राजस्व के कम स्रोत देता है। जीएसटी ने इस असंतुलन को बढ़ा दिया है जिससे राज्यों को केन्द्रीय हस्तांतरण पर बहुत अधिक निर्भर रहना पड़ रहा है। स्थानीय विकास और जन कल्याण के लिए धन जुटाने के लिए राज्यों को कुछ स्वायत्त कर लगाने का अधिकार होना चाहिए। 

ऐसी धारणा है कि जीएसटी ने भारत की संघीय भावना और राज्यों की राजकोषीय स्वायत्तता को कमजोर किया है। हमें राज्यों को अधिक राजकोषीय अधिकार और स्वायत्तता बहाल करने के तरीके तलाशने होंगे, ताकि वे राज्य-विशिष्ट आर्थिक, सामाजिक और क्षेत्रीय जरूरतों के मद्देनजर नीतियां बना सकें। इसके अलावा, असमानता को कम करने के लिए अप्रत्यक्ष करों को ज्यादा से ज्यादा प्रत्यक्ष करों की ओर मोड़ने की जरूरत है। 

(अजीत रानाडे जाने-माने अर्थशास्त्री हैं। ये उनके अपने विचार हैं। सौजन्य: द बिलियन प्रेस

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