मुसलमान और देश का सियासी माहौल

जाति आधारित क्षेत्रीय पार्टियों ने मुसलमानों को लुभाकर मुस्लिम परस्त होने का खूब ढिंढोरा पीटा, लेकिन उनकी असली समस्याओं की तरफ कभी कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। जिसका सुबूत सच्चर कमेटी की रिपोर्ट है।

फोटोः सोशल मीडिया
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उबैद उल्लाह नासिर

पिछले दिनों एक बड़े अंग्रेजी अखबार में पूर्व आईएएस अधिकारी और मानवाधिकार कार्यकर्ता हर्ष मंदर का एक ज्वलंत आलेख छपा था। उस आलेख में उन्होंने इस बात पर दुख जताया था कि पिछले कुछ वर्षों से देश का राजनीतिक माहौल इस हद तक सांप्रदायिक हो गया है कि अब कई राजनीतिक दल देश की दूसरी सब से बड़ी आबादी, यानी मुसलमानों की समस्याओं, उनके लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकार ही नहीं, उनके मानवाधिकारों तक पर मुंह खोलते हुए घबराती हैं। उन्हें इस बात का डर है कि कहीं उन पर मुस्लिम परस्त होने का ठप्पा ना लग जाए, जिससे उनके वोटों पर असर पड़ेगा I

ध्यान रहे की हर्ष मंदर के इस लेख से बहुत पहले 2014 के चुनाव के बाद हार के कारणों का पता लगाने वाली अपनी रिपोर्ट में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एके एंटनी ने भी अपनी रिपोर्ट में यही कहा था कि आरएसएस कांग्रेस पार्टी पर मुस्लिम पार्टी होने का आरोप लगाने में सफल रही, जिसकी वजह से ज्यादातर हिन्दुओं ने कांग्रेस को वोट नहीं दिया। कांग्रेस की हार का भले ही यह अकेला कारण न रहा हो, लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है कि मोदी जी की इतनी बड़ी सफलता के पीछे उनकी कट्टर हिंदूवादी और मुस्लिम दुशमन छवि का बड़ा हाथ था I

15 मार्च 2014 को अपनी एक रिपोर्ट में हिंदुस्तान टाइम्स के रिपोर्टर प्रशांत झा की एक रिपोर्ट छपी थी, जिसमें उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों और पूर्वी उत्तर प्रदेश की अन्य पिछड़ी जातियों के हवाले से लिखा था कि वे सब मोदी जी को इसलिए वोट देंगे क्योंकि वही मुसलमानों को ठीक कर सकते हैं। 2014 का संसदीय चुनाव पूरी तरह से मोदी जी का चुनाव था। वोट बीजेपी को नहीं, मोदी जी को मिले थे। इसलिए उनके प्रधानमंत्री बनने के साथ-साथ अगर मुस्लिम विरोधी कट्टर हिन्दूवादी ताकतों ने सिर उभारा और जगह-जगह कभी बीफ के नाम पर और कभी किसी अन्य कारणों से मुसलमानों की हत्याएं हुईं तो ये कोई अनहोनी बात नहीं थी। इसके लिए माहौल बहुत पहले से बनाया जा रहा था। मुसलमानों के खिलाफ अफवाहबाजी और कानाफूसी का सिलसिला चुनावी अभियान के तौर पर बहुत पहले से ही शुरू कर दिया गया था। आतंकवाद से मुसलमानों के संबंध, अन्य गैर कानूनी कामों, गुंडागर्दी आदि में उनकी संलिप्तता, लव जिहाद, गौ ह्त्या, बढ़ती मुस्लिम आबादी आदि बातों से विवाद खड़ा कर आम हिंदुओं, विशेषकर नौजवानों के दिमाग में जहर भर कर संघ ने चुनावी सफलता की ऐसी लहलहाती फसल काटी, जिसका सपना वह अपनी स्थापना के नब्बे वर्षों से देखता आ रहा था I

बात केवल बीजेपी को वोट देने तक सीमित नहीं है। देश का माहौल भी ऐसा बन गया है, जहां मुसलमान से नफरत ही हिंदू और राष्ट्रभक्त होने का पैमाना है। यह नफरत इस हद तक बढ़ी हुई है कि मोहसिन शेख से ले कर अलीमुद्दीन अंसारी तक दर्जनों मुसलमानों को सरेआम पीट-पीट कर मार डाला गया। लोग इस जघन्य अपराध को न केवल देखते रहे बल्कि सेल्फी लेते रहे, विडियो बनाते रहे और उसे वायरल कर के हिंदुत्ववादी और राष्ट्रप्रेमी होने का ढिंढोरा पीटते रहे। ट्रेन के डब्बे में 16 साल के लड़के जुनैद खान को पीट-पीट कर मार डाला गया। किसी ने उसको बचाने की कोशिश नहीं की। यही नहीं जब उसके मुर्दा जिस्म को खींच कर डब्बे से बाहर ले जाया जा रहा था तो लोग बस हत्यारों को जगह दे कर अपना फर्ज पूरा कर रहे थे I

कठुआ में 8 साल की एक बच्ची का एक मंदिर में उसके पुजारी और एक पुलिस अधिकारी समेत कई लोगों ने बलात्कार किया और फिर उसे ईंटों से कूच-कूच कर मार डाला। और जब अपराधी गिरफ्तार हुए तो उनके समर्थन में न सिर्फ तिरंगा यात्रा निकाली गयी, जिसमें प्रदेश के बीजेपी के दो मंत्री भी शामिल हुए बल्कि बलात्कारियों को बचाने के लिए महिलाओं ने भी धरना-प्रदर्शन किया। क्या ये महिलाएं ममता के नाम पर कलंक नहीं हैं I यही नहीं, चार्जशीट दाखिल करने अदालत पहुंची पुलिस के खिलाफ वहां के वकील धरना-प्रदर्शन करते हैं और दाखिल नहीं करने देते हैं।

मोदी जी के प्रधान मंत्री के तौर पर शपथ लेने के कुछ दिनों बाद ही पुणे में मोहसिन शेख नाम के एक नौजवान इंजीनियर को उस समय पीट-पीट कर मौत के घाट उतार दिया गया, जब वह नमाज पढ़कर मस्जिद से अपने घर जा रहा था। शर्मनाक बात ये है कि हाई कोर्ट ने आरोपियों की जमानत मंजूर करते हुए टिप्पणी की थी कि उन्होंने सिर्फ धर्म की वजह से मोहसिन की हत्या की, उनका कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है, इसलिए उन्हें जमानत दी जाती है I राजस्थान में एक धर्मांध व्यक्ति एक मुस्लिम शख्स को पहले कुल्हाड़ी से काटकर अधमरा कर देता है, फिर उस अधमरे व्यक्ति को जला देता है और उसका विडियो बनाता है और उसे वायरल करता है। उसे जब गिरफ्तार कर जेल भेजा जाता है, तो हजारों लोग अदालत को घेर लेते हैं और वहां लहरा रहे तिरंगा झंडा को उतार कर भगवा झंडा लहरा देते हैं। आरोपी के बैंक खाते में पैसे ट्रान्सफर किये जाते हैं, गणतंत्र दिवस पर उसकी झांकी निकाली जाती है। लेकिन मीडिया इन अमानवीय असभ्य कृत्यों के खिलाफ आवाज नहीं उठाता। विशेषकर हिंदी मीडिया में इस पर कुछ भी नहीं लिखा जाता। बहुत हुआ तो ऐसी ही किसी पुरानी घटना की याद दिला कर दोनों की भर्त्सना कर दी जाती हैI

ऐसी ही अन्य घटनाओं का अगर विवरण लिखा जाए तो पूरी एक किताब तैयार हो सकती है। लेकिन हमारे इस लेख का यह विषय वस्तु नहीं है। हमारी चिंता ये है कि ऐसी घटनाओं पर राष्ट्र की सामूहिक चेतना क्यों नहीं जागती। मुसलमानों से संबंधित मामलों पर मीडिया और लगभग सभी राजनीतिक दल बिल्कुल खामोश रहते हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में एक-दो चैनल को छोड़ दें, तो बाकी के चैनलों पर जो कुछ चलाया जा रहा है, उसे देखकर लगता है जैसे उन्होंने मुसलमानों के खिलाफ माहौल बनाने की सुपारी ले रखी है। कोबरा पोस्ट के हालिया भंडाफोड़ ने यह साबित कर दिया है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया करोड़ों रुपये का ठेका देश में मुस्लिम विरोधी माहौल बनाने के लिए लेता है, जिसका राजनीतिक फायदा बीजेपी को मिलता हैI

हर्ष मंदर ने अपने लेख में इन्हीं मामलों और राजनीतिक दलों और मीडिया की अपराधिक खामोशी के साथ ही मुसलमानों के देश में अलग-थलग पड़ जाने का सवाल उठाया तो इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने इसके लिए दाढ़ी-टोपी और बुर्के को जिम्मेदार ठहराते हुए मुसलमानों को मशविरा दिया कि वे सार्वजनिक स्थलों पर इन धार्मिक प्रतीकों से दूर रहें। जिसका अर्थ ये हुआ कि मुसलमान भारत में उस तरह नहीं रहें, जिस तरह रहने का अधिकार उन्हें संविधान ने दिया है, बल्कि उस तरह रहें जिस तरह आरएसएस उनसे चाहता हैI

इस समस्या का मूल कारण क्षेत्रीय पार्टियों का उदय और पहचान की राजनीति है। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद उभरी राजनीति में सभी जातियों ने अपनी पहचान बनाई और सभी राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का गठन शुरू हुआ। कांग्रेस जो पहले एक छाते की तरह इन तमाम पहचानों और क्षेत्रीय अस्मिताओं को अपनी छत्रछाया में संभाले रखती थी, वह सिमटने लगी। इन जातिवादी क्षेत्रीय पार्टियों ने मुसलमानों को लुभाया जरूर, लेकिन उन्हें बस में बैठे मुसाफिर की तरह ही बनाए रखा। उन्हें कभी ड्राइविंग सीट पर नहीं आने दिया। इनके बिखरे वोटों का फायदा इन क्षेत्रीय पार्टियों ने कांग्रेस को कमजोर करने के लिए उठाया। क्योंकि अधिकतर राज्यों में उनका मुकाबला कांग्रेस से ही था। इन पार्टियों ने मुस्लिम परस्त होने का ढिंढोरा तो खूब पीटा, लेकिन उनकी असल समस्याओं की तरफ कभी कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। जिसका सुबूत सच्चर कमेटी की रिपोर्ट है। यहां तक की सबसे अधिक सेक्युलर कही जाने वाली कम्युनिस्ट पार्टी की जिस बंगाल में सालों तक सरकार रही, वहां भी मुसलमानों की हालत राष्ट्रीय स्तर से बेहतर नहीं रही।

उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और बिहार में लालू यादव मुसलमानों के नए मसीहा बनकर उभरे। लेकिन यहां भी मुसलमानों की आर्थिक सामाजिक और राजनैतिक हिस्सेदारी के मामले में कोई बेहतरी नहीं देखी गयी। इन क्षेत्रीय पार्टियों ने मुस्लिम परस्ती का इतना ढिंढोरा पीटा कि संघ परिवार के लिए आम हिन्दू जनमानस को यह समझाना आसान हो गया कि मुसलमानों के तुष्टीकरण की वजह से उनके अधिकारों को पीछे धकेला जा रहा है।

2012 में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की भारी सफलता में मुस्लिम वोटों ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसको लेकर संघ परिवार ने पूरे 5 साल तक अखिलेश सरकार को मुस्लिम सरकार साबित करने की युद्ध स्तर पर मुहिम चलाई। उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार में वरिष्ठ काबिना मंत्री रहे पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने बताया कि अखिलेश के सत्ता संभालते ही हमने उनके खिलाफ मुहिम कर दी थी। उन्होंने कहा, “हमने इटावा-मैनपुरी क्षेत्र की बोली में ही कहावत गढ़ी, “हम ने दई दद्दा को, दद्दा ने दई लल्ला को, लल्ला ने दई अल्ला को’’ अर्थात हम ने वोट दिया मुलायम सिंह (दद्दा) को, मुलायम ने सत्ता दे दी अखिलेश (लल्ला) को और अखिलेश ने सत्ता सौंप दी अल्ला को (मुसलमानों को )I

पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने किसी मौके पर कहा था कि देश के संसाधनों में पहला हक मुसलमानों का है। बीजेपी उनकी इस बात को आज तक मुसलमानों के खिलाफ आम हिन्दुओं को गोलबंद करने के लिए इस्तेमाल कर रही है I अफसोस की बात ये है कि धर्मनिरपेक्ष पार्टियां संघ के इस झूठे सांप्रदायिक दुष्प्रचार की काट करने और अवाम के सामने सच्चाई रखने की बजाय मुसलमानों से दूरी बना लेना ही राजनीतिक तौर पर फायदेमंद समझ रही हैं। जिसके कारण देश की दूसरी बड़ी आबादी आज खुद को बिल्कुल अलग-थलग महसूस करने लगी है।

यह सूरतेहाल संघ परिवार के एजेंडे के मुताबिक तो बिल्कुल सही है। लेकिन राष्ट्र निर्माण, उसकी भावनात्मक एकता और संविधान की आत्मा के बिल्कुल खिलाफ है, जिसका फायदा भारत के दुश्मन आसानी से उठा सकते हैं I सभी राजनीतिक दलों को मुसलमानों के प्रति अपने व्यवहार पर दोबारा विचार करना होगा, क्योंकि यह देश और समाज के लिए बहुत जरूरी है I

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