खरी-खरीः सामाजिक व्यवस्था में नव दलित बने मुसलमान, कोरोना संकट में आरएसएस के प्रोपेगैंडा तंत्र का खेल

भारतीय मुसलमान जीवन के हर पहलू में हाशिये पर है और इस हालत में वह दशकों से है। लेकिन इस भयानक कोरोना महामारी काल में वह वस्तुतः अछूत बन गया है। इतिहास में पहली बार भारतीय मुसलमान ऐसी अछूत वाली हालत झेल रहा है जैसा कि आज के दिनों में दलित भी नहीं झेलते हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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ज़फ़र आग़ा

हाय रे, भारत के मुसलमान। भारतीय मीडिया की वजह से वह आज दलितों के साथ नया ‘अछूत’ है। दिल्ली मरकज में तबलीगी जमात की सभा के क्रमबद्ध और सुचिंतित मीडिया कवरेज ने उन्हें औसत हिंदू नजरिये में “कोरोना जेहादी’’ बना दिया।

यह जानबूझकर और सुचिंतित मीडिया अभियान था। निश्चित तौर पर, कोरोना वायरस वैश्विक महामारी संकट में बीजेपी की मदद करने के लिए इसे नियोजित किया गया था। इसका जमीन पर विषैला सामाजिक असर हुआ। आसपास नजर दौड़ाएं और आप पाएंगे कि भारतीय मुसलमान जीवन के हर पहलू में हाशिये पर है और ऐसी हालत में वह दशकों से है। लेकिन इस भयानक वैश्विक महामारी काल में वह वस्तुतः अछूत बन गया है। इतिहास में पहली बार भारतीय मुसलमान ऐसी अछूत वाली हालत को झेल रहा है जैसा कि आज के दिनों में दलित भी नहीं झेलते हैं।

आप चाहें या न चाहें, जहां तक मुसलमानों का सवाल है, सामाजिक छुआछूत नई असलियत है। उदाहरण के लिए, एक सब्जी बेचने वाला रफीक नाम से किसी भी शहर में निकलता है, तो उससे कई कॉलानियों में सामान नहीं खरीदा जाता है। ऐसा कई शहरों में मुस्लिम विक्रेताओं के साथ बीता और इस बारे में रिपोर्टें भी छपीं-दिखाई गईं। हम सब जानते हैं कि कैसे एक गुजराती अस्पताल ने हिंदू और मुस्लिम वार्ड अलग-अलग कर दिए ताकि हिंदू रोगियों से मुस्लिम रोगियों को अलग ही रखा जाए।

अभी अप्रैल के तीसरे हफ्ते में उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में एक प्राइवेट अस्पताल ने अखबार में विज्ञापन दे दिया कि जब तक कोरोना वायरस महामारी खत्म नहीं होती है, वह किसी मुस्लिम रोगी को अपने यहां दाखिला नहीं देगा। बाद में अस्पताल ने इस पर खेद जताया। लेकिन मुसलमानों को दूर रखने का संदेश गहरा और दूर तक जाने वाला था।

क्या यह छुआछूत नहीं है? निश्चित तौर पर यह और कुछ नहीं बल्कि महामारी की आड़ में छुआछूत है। मुसलमानों के साथ सामाजिक भेदभाव नई बात नहीं है। न्यूनतम मूलभूत नागरिक सुविधाओं वाली मुस्लिम बस्तियों की बात अब दशकों पुरानी है। एक खास सामाजिक समूह की इस तरह की बस्ती वस्तुतः छुआछूत की अघोषित प्रक्रिया की तरफ पहला कदम या किसी खास नस्ल या समुदाय के खिलाफ एक किस्म की अस्पृश्यता है। हम जानते हैं कि नस्लीय भेदभाव वाले श्वेत शासन के दौरान दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों के साथ क्या-क्या हुआ। यह अमेरिका में अश्वेत अमेरिकियों के साथ अब भी हो रहा है और वहां नस्लवादी फिर सिर उठा रहे हैं।

जहां तक दलितों का सवाल है, हम भारतीय इससे ठीक से परिचित हैं। यह हमें स्वाभाविक लगता है क्योंकि यह हमारे डीएनए में है। इस तरह के रवैये का मकसद किसी खास नस्ल/समुदाय/सामाजिक समूह में हीन भावना फैलाना है। इसका सामाजिक और राजनीतिक उद्देश्य किसी नस्ल/जाति/समुदाय को किसी खास समाज में दूसरे दर्जे के नागरिक के तौर पर खुद को चुपचाप मान लेना है। यह उसी प्रक्रिया की शुरुआत है जो सदियों से दलितों को लेकर भारत में चली आ रही है। बीजेपी-आरएसएस मुसलमानों को धार्मिक नहीं, तो उसी सामाजिक ‘अछूत’ की श्रेणी में डालने की कोशिश में है।

जैसा कि पहले भी कहा गया, मुसलमानों के सामाजिक बहिष्कार के लिए जमीन तैयार करने में मीडिया ने बहुत सोच-समझकर आधारभूमि तैयार की। कोराना वायरस चारों ओर फैलने की वजह से पूरी दुनिया में असुरक्षा की तीव्र भावना फैली हुई है। हर व्यक्ति के दिमाग में मौत का खतरा छाया हुआ है। जीवन को लेकर इस तरह की अनिश्चितता की वजह से ही लॉकडाउन का विशिष्ट और अभूतपूर्व अनुभव सफल रहा है। अरबों लोग अपनी तमाम आर्थिक गतिविधियों को किनारे कर अपने घरों में एकांतवास में पड़े हुए हैं। ऐसे अनिश्चित और कठिन समय में भारतीय मीडिया ने भारत में कोरोना वायरस महामारी के लिए तबलीगी जमातियों को उत्तरदायी बताते हुए उनके खिलाफ सुचिंतित अभियान चला दिया।

निश्चित तौर पर, दुनिया भर में कोरोना वायरस फैलते जाने के बावजूद अपना सम्मेलन जारी रखकर जमात ने भारी गलती की। इस संदर्भ में जमातियों के पक्ष में बहुत कुछ कहा गया है। उदाहरण के लिए, भारत सरकार ने भी माना था कि दिल्ली में सम्मेलन शुरू होने तक कोई मेडिकल आपातकाल नहीं था। यह भी कहा जाता है कि विदेशी जमातियों को जिस तरह वीजा जारी किया गया था, उसे नहीं जारी किया जाना चाहिए था।

ठीक है कि जमात के पक्ष में ये मुनासिब तर्क हैं। लेकिन किसी मुनासिब नतीजे तक पहुंचने के लिए सिक्के के दोनों पहलुओं को देखना चाहिए। हजारों की भीड़ वाले आयोजन करने वाले तबलीगी जमात का प्राथमिक कर्तव्य इस वक्त की स्थितियों में इस प्रकार के आयोजन के परिणामों पर विचार करना भी था। जमात ने वह नहीं किया और इस खयाल से वह साफ तौर पर दोषी है।

लेकिन मीडिया ने मरकज के खिलाफ जिस तरह का अभियान चलाया, उसका भी कुछ उत्तरदायित्व था। आखिरकार, यह चौथा खंभा है। सिर्फ अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए काम करना ही उत्तरदायित्वपूर्ण मीडिया होने की योग्यता नहीं हो जाती। इस बात को भूल भी जाएं कि अपना मीडिया उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से काम करने का इच्छुक नहीं रह गया है। मुख्यधारा का पूरा मीडिया सचेतन तौर पर और जानबूझकर बीजेपी की सेना की तरह काम करने लगा है।

मरकज और तबलीग के इर्दगिर्द मीडिया का अभियान इस संकट के वक्त भी घृणा की राजनीति को उकसाने के लिए मुसलमानों को आम हिंदुओं के दुश्मन के तौर पर प्रस्तुत करने की सुचिंतित चेष्टा में लगा रहा। यह अब सर्वविदित सत्य हो चुका है कि बीजेपी हिंदुओं के बीच खतरे की भावना पैदा कर अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश में रहती है। और इस मकसद से, इस भगवा परिवार को बहुसंख्यकों में किसी दुश्मन का खतरा दिखाते रहने और उसके प्रति घृणा पैदा करने की जरूरत है।

इस तरह के उत्तेजनापूर्ण वातावरण में नरेंद्र मोदी ऐसा अभियान शुरू करते हैं जहां वह ऐसे राम बन जाते हैं जो नए रावण का वध कर देते हैं। यह नया रावण बिना शक भारतीय मुसलमान या मुस्लिम पाकिस्तान होता है। लेकिन अल्पसंख्यकों के बीच से एक शत्रु का वृहदाकार विचार होना जरूरी है। तब ही मोदी की हिंदू हृदय सम्राट वाली राजनीति चलेगी।

जब से मोदी राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आए हैं, मीडिया प्रधानमंत्री के लिए एक दुश्मन की रचना करने में मदद करता आया है। तबलीगी जमात मसले का कवरेज साफ तौर पर उसी मकसद से सुविचारित रहा है। मीडिया ने साफ कर दिया कि मुसलमान कोरोना वायरस महामारी काल की इस अनिश्चितता में बहुसंख्यक समुदाय का सिर्फ दुश्मन ही नहीं है बल्कि वह अब इतना द्वेष रखने लायक है कि उसके साथ अछूत-जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए।

मुसलमानों के सामाजिक बहिष्कार को स्थायी प्रकृति देने की आरएसएस प्रोपेगैंडा शक्ति को कमजोर न आंकिए। आखिरकार, संघ मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने के लिए वर्षों से काम कर रहा है। इससे बेहतर मौका क्या होगा जब मीडिया ने मुसलमानों को सामाजिक अछूत में बदल देने का अवसर भी दे दिया है। मुसलमानों के पास इस दुष्चक्र से निकलने का रास्ता नहीं है। उनकी रक्षा के नाम पर खड़े होने वाले कमअक्ल मुल्ले जाने-अनजाने कोई-न-कोई ऐसी गलती कर बैठते हैं कि बीजेपी-आरएसएस का काम आसान हो जाता है। इसलिए इस हालत पर अफसोस ही जता सकते हैं कि मुसलमान भारतीय सामाजिक व्यवस्था में नव दलित बन गए हैं।

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