खरी-खरी: आखिर कब तक गुज़रे ज़माने पर फख्र करते हुए आधुनिक बदलाव से दूर रहेगा मुस्लिम समाज

मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी त्रासदी ही यही है कि वह भूतकाल के सहारे आज भी जी रहा है। भविष्य तो जाने दीजिए इस समाज को तो वर्तमान समय की भी सद्बुद्धि नहीं है।

फोटो : Getty Images
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ज़फ़र आग़ा

अपने उर्दू साप्ताहिक स्तंभ में एक जुमला लिखता रहा हूं जो यह हैः ‘अल्लाह रे हिंदुस्तानी मुसलमान की बेहोशी।’ परंतु पिछले सप्ताह मैंने इस जुमले के तुरंत बाद यह भी लिखा कि ‘मैं अब खुद यह जुमला लिखते-लिखते थक चुका हूं।’ कारण यह कि मुस्लिम समाज में कुछ कभी बदलता ही नहीं है। कितनी ही बड़ी समस्या उठ खड़ी हो, उसका हल ढूंढने की कोई सामूहिक चेष्टा ही नहीं होती है। इसका एक छोटा-सा उदाहरण यह है कि अभी कोई दस-पंद्रह रोज पहले दिल्ली के नरेला इलाके में मोहम्मद सज्जाद नामक युवक की ‘मॉब लिंचिग’ हुई। समाचारपत्रों में बस एक छोटी-सी खबर छपी और मामला रफा-दफा हो गया। उसकी बेसहारा मां अब यूं ही मारी-मारी फिर रही है और उसको कोई पूछने वाला नहीं है। बेटे की लाश एक कनाल से मिली। पहले पुलिस उस पर फोन चोरी का इल्जाम लगाने वाली थी। मगर फिर मामला रफा-दफा हो गया। पर बेचारी मां अब इस दुनिया में बेआसरा बिल्कुल अकेली है। पति मर चुका है, जवान बेटा ‘मॉब लिंचिंग’ का शिकार हो गया, अब उस औरत को कोई पूछने वाला भी नहीं है।

एक मिनट को कल्पना कीजिए कि यदि कहीं ऐसी ही कोई त्रासदी किसी सिख बच्चे के साथ पेश आ जाती तो सारा सिख समाज उसकी मां की मदद को खड़ा हो जाता। गुरुद्वारों से लेकर दुनिया भर की सारी सिख संस्थाएं समाज के बेआसरा व्यक्ति की सहायता के लिए मिनटों में उठ खड़ी होती हैं। मुझे भली भांति याद है कि सन 1984 में दिल्ली के दंगों में सैकड़ों सिखों की दुकानें जलकर खाक हो गई थीं। लगता था कि अब वर्षों वे दुकानें खुल नहीं पाएंगी। सच जानिए, दंगों के चौथे रोज वे दुकानें फिर खुल गईं और उनमें सब नया माल दिखाई पड़ने लगा। हमने पूछा, आप इतनी जल्दी कैसे अपने पैरों पर खड़े हो गए, तो जवाब मिला- हमारे भाइयों ने हमारी मदद की। आखिर क्या बात है कि एक छोटी-सी सिख कौम दंगों-जैसी आपदा से चार दिनों में निपट सकती है। परंतु भारतवर्ष की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला मुस्लिम समाज एक मोहम्मद सज्जाद की बेआसरा मां के लिए कुछ नहीं कर सकता है।


मदद तो जाने दीजिए! हम में से बहुत लोग यह भी जानते हैं कि आए दिन होने वाले दंगे अक्सर मुस्लिम समाज के कुछ लोगों के लिए खाने-कमाने के अवसर बन जाते हैं। आप पूछेंगे वह कैसे, तो सुनिए! इधर दंगे हुए, मुसलमानों की मौत और बदहाली की खबरें समाचार पत्रों में छपीं एवं टीवी पर चलीं, बस साहब दो-चार लोग ऐसे भी हैं जो रसीद छपवा कर मरने वालों की मदद के लिए केवल खाड़ी देशों में ही नहीं बल्कि यूरोप एवं अमेरिका तक चंदा जमा करने पहुंच जाते हैं और सारा माल डकार जाते हैं। मैं स्वयं इसी दिल्ली नगरी में एक बड़े ‘मिल्लत’ (मुस्लिम समाज) के नामी-गिरामी ‘सेवक’ को जानता हूं जिन्होंने दंगों को दुनिया भर में ‘कैश’ किया और मजे उड़ाए। और तो जाने दीजिए, सन 1986-87 में मेरठ दंगों की बड़ी चर्चा थी। वहां मलियाना के लोगों को पुलिस उठाकर ले गई और दूसरे रोज दिल्ली के करीब हिंडन नदी में उनके शव तैरते हुए मिले। उस समय के सबसे प्रख्यात ‘मुस्लिम कायद’ (नेता) ने मलियाना में मारे जाने वालों की इमदाद के लिए लगभग 11 करोड़ रुपये जमा किए। मलियाना के पीड़ितों का कहना है कि उनको उसमें से एक फूटी कौड़ी भी नहीं मिली। अरे! अभी दिल्ली के दंगों को एक साल ही बीता है। दर्जनों लोग मदद के लिए अभी भी हैरान और परेशान घूम रहे हैं। हां, जमीयत और जमात ने जरूर मदद की परंतु वह इतनी नहीं थी कि सिखों की तरह सब उठ खड़े हों।

ऐसे ‘बेहोश’ समाज में मोहम्मद सज्जाद की मां बेआसरा नहीं फिरेंगी तो और क्या होगा! हमारी बेहोशी का यह आलम है कि जब वसीम रिजवी पर वक्फ घोटाले का आरोप लगा तो वह दौड़ा-दौड़ा कुरान के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया। और एक वसीम रिजवी का क्या रोना, पिछले सत्तर वर्षों में कौम के ठेकेदार हजारों करोड़ की वक्फ की जायदाद डकार गए और हिचकी तक नहीं आई। भला ऐसे समाज में सज्जाद की मां ठोकर न खाए तो क्या करे! बस, मुस्लिम समाज पर जब कोई आफत टूटती है तो चार-छह दिन बहुत शोर होता है। जब मोहम्मद अखलाक नाम के पहले व्यक्ति की मॉब लिंचिंग हुई तो बड़ा शोर मचा। ‘नॉट इन माई नेम’ नामक संस्था उठ खड़ी हुई जिसने बड़े-बड़े धरने-प्रदर्शन किए। फिर दूसरे जब मारे गए तो समाज की ओर से चंदे जमा हुए, लाखों रुपये की मदद भी की गई। परंतु फिर मॉब लिंचिंग धीरे- धीरे रोज की बात हो गई और मुस्लिम समाज का जोश भी ठंडा हो गया।

आखिर सारे समाज में यह बेहोशी क्यों है! दुख तो इस बात पर है कि यह वही मुस्लिम समाज है जो कभी संसार का सुपर पावर होता था। इसकी उम्मयद एवं अब्बासी खिलाफतों का यूरोप तक में डंका बजता था। तुर्की के खलीफा का झंडा केवल मुस्लिम जगत में ही नहीं बल्कि यूरोप तक में लहराता था। स्वयं भारत के मुगल शासकों का दुनिया में डंका बजता था। स्वयं इस देश पर आठ सौ वर्षों तक मुस्लिम समाज का डंका बजता रहा। उस समय भी इस देश का मुसलमान अल्पसंख्यक था। सत्य तो यह है कि मध्यकालीन मुस्लिम शासकों के समय मुस्लिम वर्ग की संख्या आज से भी बहुत कम थी, अर्थात राज-पाट का नंबर से कोई लेना-देना नहीं है। सत्ता तो उनके हाथों में होती है जिनके पास बुद्धि होती है। और बुद्धि उनको ही प्राप्त होती है जो अपने युग के ज्ञान से पूर्णतयाः अवगत होते हैं। सीधी-सी बात है कि ज्ञान पढ़ने-लिखने से आता है। और पढ़ने-लिखने से बुद्धि आती है और बुद्धि से सत्ता प्राप्त होती है। इसलिए स्वयं इस देश का मुस्लिम इतिहास साक्षी है कि अल्पसंख्यक होना त्रासदी नहीं है। आखिर यहूदी भी तो सारी दुनिया में अल्पसंख्यक हैं परंतु मजे में हैं।


तो फिर मुस्लिम समाज के साथ ऐसा क्या हो गया कि यह समाज इसी भारतवर्ष में शासक से देखते-देखते गुलामी की कगार पर पहुंच गया। कहा न कि समाज आधुनिक शिक्षा में सबसे पीछे चला गया। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय मुस्लिम समाज में स्नातकों (ग्रेजुएट) की संख्या दलितों से भी कम है। यह एक सामाजिक कयामत नहीं तो और क्या है! इस आधुनिक युग में जिस समाज में ग्रेजुएट की संख्या न के बराबर हो तो उस समाज में भला एक मोहम्मद सज्जाद की मां की सहायता की बुद्धि कैसे आएगी। और आधुनिक शिक्षा आए तो आए कैसे! सर सय्यद अहमद खां ने लगभग सौ वर्ष पहले एक अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बनाई थी। उसके बाद पूरे उत्तर भारत में कहीं भी वैसी कोई शैक्षिक संस्था नहीं है। हां, कुछ मुस्लिम शैक्षिक संस्थान खुले जरूर हैं, पर वे अधिकांश धंधा-पानी कर रहे हैं, समाज सेवा नहीं। आज इस ‘ई-युग’ में जब दुनिया ‘कम्प्यूटर लिटरेसी’ की ओर भाग रही है तो मुस्लिम समाज में कम्प्यूटर की कोई चर्चा भी नहीं है। इस युग में जब टिकट बुकिंग से लेकर शिक्षा-दीक्षा एवं धंधा-पानी ‘ई-कॉमर्स’ हो चुका है तो ऐसे में कम्प्यूटर ज्ञान के बिना समाज और पीछे नहीं तो क्या आगे जाएगा।

भाई, अगर कोई पढ़ना-लिखना चाहे तो उसको कोई आरएसएस या मोदी रोक तो सकते नहीं। पढ़ने वाले मुसलमान आज भी पढ़ ही रहे हैं। परंतु समाज में कोई ऐसी शैक्षिक क्रांति नहीं दिखाई पड़ती है जैसी क्रांति कभी सर सय्यद ने पैदा कर दी थी। अब आप देखिए, सर सय्यद के जन्मदिन को हाल में ही सौ वर्ष हुए हैं। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के छात्रों ने सारी दुनिया में उनकी जन्म शताब्दी मनाई। मनानी भी चाहिए थी। परंतु किसी को यह ख्याल नहीं आया कि इस युग में सर सय्यद ई-यूनिवर्सिटी खोल दें।

कहा न कि जिस कौम की बुद्धि ही मर जाए तो वह केवल भूतकाल में ही जी सकता है। मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी त्रासदी ही यही है कि वह भूतकाल के सहारे आज भी जी रहा है। भविष्य तो जाने दीजिए इस समाज को तो वर्तमान समय की भी सद्बुद्धि नहीं है। ऐसा समाज मोहम्मद सज्जाद जैसे मारे जाने वालों की माताओं का भविष्य क्या संवारेगा। बस, हम और आप जैसे कुछ लोग रो-पीटकर बैठ जाएंगे। और भी बहुत सारी मॉब लिंचिंग होगी, छोटी-सी खबर छपेगी, दो-एक रोज चर्चा होगी और फिर सब भूल जाएंगे।

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