विदेश नीति के मामले में एक व्यक्ति की छवि चमकाने के लिए राष्ट्रहित त्यागने की कीमत!
मोदी ने 1991 के बाद की बहुपक्षीय कूटनीति को त्यागकर भारत को अमेरिका की गोद में बैठा दिया। चीन, जो मनमोहन सिंह के कार्यकाल में कहीं ज्यादा दोस्ताना था, अब आक्रामक हो गया है और लद्दाख, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश की सर्द सीमाएं गर्म हो गई हैं।

इस लेख को लिखे जाने के समय मीडिया में ‘ट्रंपिस्तान’ में अमेरिकी सरकार के काम रोकने, उसकी प्रतिक्रिया में हुई छंटनी और गाजा के लिए ट्रंप की विवादास्पद शांति योजना छाई हुई थी। लेकिन भारत में सरकार और लोगों के लिए अमेरिका के मौजूदा हाल के कुछ दिन पहले की घटनाओं पर ध्यान देना ज्यादा दिलचस्प होगा, जब राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ और सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर के साथ व्यापार, आतंकवाद-निरोध और पाकिस्तान के कृषि, खनन, ऊर्जा, तकनीक जैसे क्षेत्रों में संभावित अमेरिकी निवेश पर बात कर रहे थे।
यह मुलाकात 25 सितंबर को व्हाइट हाउस में हुई थी। वैसे, इन नेताओं की 23-24 सितंबर को न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक से इतर पहले ही बैठक हो चुकी थी। संदेह नहीं कि पाकिस्तान पर पूरा ध्यान जमाए ट्रम्प ने भारत को हाशिये पर डाल दिया। भारत के लिए यह एक धमाकेदार प्रहार रहा जैसा कि भारतीय निर्यात पर भारी शुल्क, एच-1बी वीजा मानदंडों को सख्त करने और अवैध तथा निर्धारित समय से ज्यादा समय तक अमेरिका में रहने वाले भारतीयों को अपमानजनक तरीके से वापस भेजने के रूप में देखा जा सकता है। इसके उलट, पाकिस्तान के लिए ट्रम्प ने रेड कार्पेट बिछा रखा है।
ट्रम्प ने भारत पर टैरिफ दोगुना करके 50 फीसद कर दिया, प्रत्यक्ष तौर पर रूसी कच्चा तेल खरीदने के लिए भारत को इस तरह दंडित किया गया। हालांकि ट्रम्प प्रशासन ने चीन को छोड़ दिया जबकि वह रूसी तेल और गैस का भारत से कहीं बड़ा खरीदार है। ट्रम्प रूसी तेल के एक अन्य प्रमुख आयातक तुर्की के प्रति भी नरम रहे हैं और हकीकत तो यह है कि वह अंकारा को एफ-35 लड़ाकू विमान बेचने के लिए भी उत्सुक हैं।
फिर भी, इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत के खिलाफ अमेरिका का मौजूदा सख्त रुख शायद ज्यादा दिन न रहे। जब वस्तुओं और सेवाओं की कमी से अमेरिका में महंगाई बढ़ेगी तो हो सकता है कि ट्रम्प को अपने कदम पीछे खींचने पड़ें। इसके अलावा भी कुछ स्थितियों में अमेरिकी राष्ट्रपति अपना रुख नरम कर सकते हैं- अगर मोदी पहले झुक जाते हैं और अमेरिकी कृषि उत्पादों के लिए भारतीय बाजार खोल देते हैं या फिर वह रूसी कच्चे तेल का आयात रोक देते हैं।
जो भी हो, शीतयुद्ध के दिनों और खास तौर पर 1991 में भारत द्वारा आर्थिक सुधारों को अपनाने के बाद भारत और अमेरिका ने कड़ी मेहनत के बाद आपस में जो विश्वास का माहौल बनाया था, वह खत्म हो चुका है। परस्पर रिश्तों में आई इस खटास की निकट भविष्य में भरपाई होने से रही, खासकर अमेरिका और पाकिस्तान के बीच बढ़ते संबंधों को देखते हुए।
दिसंबर 2016 से खास तौर पर नरेंद्र मोदी की विदेश नीति पाकिस्तान को अलग-थलग करने पर आधारित रही है। मोदी ने 1991 के बाद की बहुपक्षीय कूटनीति को त्यागकर भारत को अमेरिका की गोद में बैठा दिया। जब रूस ने मोदी सरकार के इस पूर्वाग्रह को गंभीरता से लिया, तो भारत के सबसे बड़े हथियार आपूर्तिकर्ता मास्को को खुश करना जरूरी हो गया। चीन, जो मनमोहन सिंह के कार्यकाल में कहीं ज्यादा दोस्ताना था, अब आक्रामक हो गया है और लद्दाख, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश की सर्द सीमाएं गर्म हो गई हैं।
पिछले 11 साल के दौरान विदेश मामलों को जितनी अयोग्यता के साथ आकार दिया गया और राष्ट्रीय हित को जिस तरह खूंटी पर टांग दिया गया, वैसा देश के आजाद होने के बाद कभी नहीं हुआ। जो भी हुआ, वह केवल एक व्यक्ति की छवि को चमकाने के लिए हुआ, तस्वीरें खिंचाकर ही काम पूरा मान लिया गया और इस बात को नजरअंदाज कर दिया गया कि भारत के लिए क्या बेहतर होगा।
इसके उलट पाकिस्तान ने अपनी आर्थिक तंगी के बावजूद चीन, रूस और अमेरिका के साथ रणनीतिक संबंध बनाए और वह सऊदी अरब के साथ अपने पुराने-भरोसेमंद रिश्ते में जान फूंकने में भी कामयाब रहा। रियाद अब इस्लामाबाद का सिर्फ आर्थिक नजरिये से हितैषी नहीं रहा, बल्कि एक सैन्य सहयोगी भी हो गया है।
पहले के भारतीय प्रधानमंत्री सऊदी अरब के मामले में बड़ी सावधानी बरतते थे, लेकिन मोदी ने उसकी ओर जिस तरह आगे बढ़ने की रणनीति अपनाई, वह उल्टी पड़ गई। सीधी सी बात है, आप देश के भीतर मुसलमानों से नफरत करें और विदेश में अमीर मुसलमानों के दोस्त होने का दिखावा करें, ऐसा नहीं चल सकता। इसके अलावा, पहलगाम आतंकी हमले में पाकिस्तान सरकार की संलिप्तता के पुख्ता सबूतों के बिना शुरू किए गए ऑपरेशन सिंदूर की भारत को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।
मई में मोदी का पाकिस्तान के साथ चार दिनों का युद्ध बिहार और बंगाल के चुनावों से पहले राजनीतिक लाभ उठाने के लिए था। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और रूस पाकिस्तान के खिलाफ सशस्त्र प्रतिक्रिया के खिलाफ थे और चीन ने तो खुले शब्दों में पाकिस्तान के प्रति अपनी सहानुभूति और समर्थन जता दिया था। इस तरह के अंतरराष्ट्रीय दबाव में भारत ने यह कहकर वाशिंगटन को भरोसा दिलाया कि: क) वह केवल पाकिस्तान में आतंकवादी शिविरों पर हमला करेगा; और ख) इसकी सूचना पाकिस्तान सरकार को देगा। ठीक यही हुआ भी- भारत ने मिसाइल दागने से पहले या इसके ठीक बाद इस्लामाबाद/रावलपिंडी को इसकी सूचना दी।
अब इसकी तुलना 2008 में मुंबई पर किए गए हमले से करें। भारत को इस बात के पुख्ता सबूत मिले कि इस ऑपरेशन के पीछे पाकिस्तान में बैठे आकाओं का हाथ था। यहां तक कि हमलावरों में से एक को जिंदा भी पकड़ लिया गया। अगर भारत ने जवाबी सैन्य कार्रवाई का विकल्प चुना होता, तो उसे पश्चिमी देशों का समर्थन भी लेना पड़ता क्योंकि मुंबई के हमले में कई विदेशी नागरिकों की भी जान गई थी। लेकिन भारत ने इसके बजाय सबूतों का इस्तेमाल करके पाकिस्तान को अलग-थलग करने की कोशिश की जिसमें वह कामयाब भी रहा। उदाहरण के लिए, पाकिस्तान को लंबे समय तक एफएटीएफ (वित्तीय कार्रवाई कार्य बल) की निगरानी सूची में रखा गया।
जबकि ऑपरेशन सिंदूर का नतीजा ठीक इसके उलट रहा और पाकिस्तान सारी सहानुभूति और समर्थन बटोर रहा है। पाकिस्तान के साथ ट्रंप का यह रिश्ता स्पष्ट रूप से रणनीतिक है: पाकिस्तान को वह पश्चिम एशिया के लिए एक संभावित मध्यस्थ के रूप में देखते हैं। यही वजह है कि शरीफ और मुनीर उनकी गाजा शांति योजना में शामिल हैं। ट्रंप को शायद उम्मीद है कि पाकिस्तान भविष्य में ईरान के साथ बातचीत में भी भूमिका निभा सकता है।
पाकिस्तान ने ट्रंप की गाजा योजना को सशर्त समर्थन दिया है, क्योंकि शरीफ-मुनीर को लगता है कि इजराइल/फिलिस्तीन के रूप में द्वि-राष्ट्र समाधान से वे अपने देश में भी लोगों की सहानुभूति जीत सकते हैं। मोदी का भारत इस बातचीत में कहीं नहीं है; वह नेतन्याहू के कुछ चापलूसों के साथ है, जबकि उनके खिलाफ युद्ध अपराधों और नरसंहार के लिए आईसीसी (अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय) ने गिरफ्तारी वारंट जारी कर रखा है। मोदी का भारत पाकिस्तान की आलोचना में व्यस्त है जिसका सबसे ताजा उदाहरण भारतीय क्रिकेट टीम के एशिया कप मैच में दिखा और इसने विश्व मंच पर भारत को एक गैर-खिलाड़ी बना दिया है।