विष्णु नागर का व्यंग्यः राष्ट्रीय धुलाई सप्ताह यादगार रहा, ऐसे मौके बार-बार आएं, हजार बार आएं!
लोगों ने मन-प्राण से उनकी इतनी धुलाई की, इतनी धुलाई की कि उनकी तबियत जो भगवा थी, हरी हो गई। धुलाई होती गई और उनकी तबियत हरी से और हरी होती गई! होते-होते इतनी हरी हो गई कि उसके पुनः अपनी पूर्व गति को प्राप्त कर भगवा होने की संभावनाएं नष्ट हो गईं!

शुभ अवसर था। सामनेवाला 'मेरी मां को गाली दी' के नाम पर दूसरों को पटक-पटक कर धोना चाहता था मगर वक्त-वक्त की बात है, पांसा उलटा पड़ गया। वह खुद ही धुल गया और प्रभु की कृपा से इतने प्यार से और इतना ज्यादा धुल गया कि उसके मुंह से जय श्रीराम नहीं, राम-राम निकल गया!
हम भारतीयों की यह विशेषता है कि हम कोई भी काम जब पूरे मन से करते हैं तो फिर आगा- पीछा नहीं देखते! धुलाई करते हैं तो फिर इतने मन से इतनी बढ़िया धुलाई करते हैं कि चाहे कपड़ा फट जाए, चिंदे-चिंदे हो जाए मगर धोना बंद नहीं करते! यहां तक कि चिंदों की भी इतनी धुलाई करते हैं कि उनका तार-तार अलग हो जाता है। पर हम भी क्या करें, स्वभाव से मजबूर हैं!
तो लोगों ने मन-प्राण से उनकी इतनी धुलाई की, इतनी धुलाई की कि उनकी तबियत जो भगवा थी, हरी हो गई। धुलाई होती गई और उनकी तबियत हरी से और हरी होती गई! होते-होते इतनी हरी हो गई कि उसके पुनः अपनी पूर्व गति को प्राप्त कर भगवा होने की संभावनाएं नष्ट हो गईं!
धुलाई का लोगों में ऐसा गजब उत्साह जागा कि जैसे कि भारत में धुलाई का कोई राष्ट्रीय पर्व मन रहा हो! जिन्हें धोना पसंद नहीं था, जो स्वभाव से धुलाई पसंद नहीं थे, जिन्होंने कभी किसी की जमकर धुलाई नहीं की थी, वे भी धुलाई करने लगे। किसी-किसी घर में तो सबके सब एकसाथ, एक समय धुलाई में लग गए! सबने मिलकर इतनी खूबसूरत धुलाई की, इतनी बढ़िया धुलाई की कि ग्यारह साल से धुलाई करने की दबी हुई इच्छा एक झटके में साकार हो गई!
आदमी एक और धोने वाले अनेक! छह साल के बच्चों से लेकर अस्सी साल के बूढ़े तक सब अपनी पूरी क्षमता से धुलाई में बिजी थे! नब्बे साल के बूढ़े-बूढ़ी जिन घरों में थे, वे भी इस सामूहिक धुलाई कार्यक्रम में भाग लेने के लिए तड़प रहे थे। उन्हें जबरदस्ती रोकना पड़ा। घर के बड़ों को इस पुनीत कार्य में लगा देखकर चार साल के बच्चे भी कहने लगे, अम्मा, हम भी इन्हें धोएंगे!
जिसको जो मिला, उससे धोने लगे। कोई खारे पानी से धोने लगा, कोई मीठे पानी से। कोई मोगरी से पीट-पीट कर धोने लगा, कोई मुष्टि प्रहार करके। किसी को कपड़े धोने का सोडा मिला, उसी धुलाई करने लगा। कोई उस पानी से धोने लगा, जिसकी गैस से चाय बनाने के महान प्रयोग उस महान वैज्ञानिक ने किया था। कोई राख से धोने लगा कि इससे धुलाई अच्छी और सस्ती होती है। किसी ने पत्थर पर पटक-पटक कर धोया। किसी ने कपड़े धोने के पाउडर से धोया। किसी ने साबुन की छोटी-छोटी चिप्पियों से। किसी ने साबुन के झागों से। किसी ने रोने वाले के आंसुओं से ही उसे धो दिया!
किसी ने इस ब्रांड के पाउडर से धोया तो किसी ने उस ब्रांड के! किसी ने इस ब्रांड के साबुन से धोया तो किसी ने उस ब्रांड के। किसी ने ब्रांड नहीं देखा, जो भी, जिस हालत में जहां मिला, उससे धो दिया। किसी ने कपड़े धोने के साबुन से धोया तो किसी ने वाशिंग मशीन में धोया और एक बार धोकर फिर एक बार और धोया क्योंकि गंदगी इतनी थी कि एक बार में संतुष्टि नहीं मिली, सफाई ठीक नहीं हुई। दो बार, तीन बार, चार बार धोया।
किसी को ऐसी धुन चढ़ी कि उसने धोने की गिनती नहीं रखी। धोता ही चला गया। धोया तो सुबह से शाम तक धोया। कुछ तो आधी रात तक भी नहीं थके। उनसे निवेदन करना पड़ा कि अब बख्श दो। आगे और भी मौके आएंगे! इतनी धुलाई करना भी ठीक नहीं कि बंदे का नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में प्रवेश पा जाए!
कहने का मतलब यह कि मुख्य लक्ष्य था धोना और अच्छी तरह से धोना! ऐसे में धोने की सामग्री का महत्व नहीं था, लक्ष्य की पवित्रता का महत्व था। कुछ कीचड़ से धो रहे थे। उन्हें दयालु जनों ने कहा कि कीचड़ से धोना भारतीय परंपरा के अनुसार ठीक नहीं, लेकिन जब उत्साह का अतिरेक हो तो कोई किसी की सुनता थोड़े ही है!
बहरहाल राष्ट्रीय धुलाई सप्ताह यादगार रहा! ऐसे दिवस और ऐसे सप्ताह बार-बार आएं, हजार बार आएं!
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