राम पुनियानी / नफरत को बढ़ावा देने के लिए इतिहास का इस्तेमाल करता एनसीईआरटी
इतिहास के हर दौर के कुछ उजले पहलू होते हैं और कुछ शर्मनाक। लेकिन जिस काल को एनसीईआरटी काला दौर कह रहा है, उसी में अति मानवीय सूफी और भक्ति परंपराओं का उदय हुआ। इस काल में ही सिक्ख धर्म की स्थापना हुई और वह फला-फूला।

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) वह संस्था है जो स्कूली पाठ्यपुस्तकों की सामग्री के संबंध में अंतिम निर्णय लेती है। पिछले कुछ दशकों से विद्यार्थियों को तार्किक व निष्पक्ष ढंग से हमारे अतीत के बारे में ज्ञान देने की बजाए इसकी किताबें साम्प्रदायिक नजरिया पेश करने का जरिया बन गई हैं। चूंकि इतिहास युवा दिमागों की समझ को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इसलिए पाठ्यक्रम को साम्प्रदायिक रंग देने से विभिन्न तरीकों से पहले ही बेगाने बना दिए गए समुदाय (मुसलमानों) के प्रति मौजूदा नफरत और बढ़ेगी।
अंग्रेजों ने जो इतिहास लेखन किया वह राजाओं को उनके धर्म के चश्मे से देखता था। राजा केवल दौलत और सत्ता की खातिर राज करते थे मगर उन्हें इस तरह पेश किया गया मानो उनका एकमात्र एजेंडा अपने-अपने धर्म को बढ़ावा देना था। इस तथ्य को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया कि बहुत से युद्ध एक ही धर्म के राजाओं के बीच हुए थे। उनकी सेनाओं में दोनों धर्मों के सैनिक होते थे। उन्होंने बहुत से ऐसे काम किए, बल्कि ज्यादातर ऐसे काम किए, जिन्हें आज के दौर के पैमानों पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। अपने साम्राज्य के विस्तार के लक्ष्य को हासिल करने के लिए कई बार दो पड़ोसी राज्यों के राजाओं के बीच युद्ध होते थे। युद्ध सबसे अमानवीय कृत्य होता है, और इन युद्धों में बरती गई निर्दयता या राजाओं के अन्य बुरे काम किसी एक धर्म के राजाओं तक सीमित नहीं थे।
जहां शिवाजी ने पहला युद्ध चन्द्र राव मोरे के खिलाफ लड़ा, वहीं बाबर को अपना राज स्थापित करने और भारत में अपने वंश की नींव डालने के लिए इब्राहिम लोधी को पराजित करना पड़ा। महान चोल और चालुक्य राजाओं के बीच भी एक युद्ध हुआ। राजाओं को उनके दौर से अलग करके नहीं देखा जा सकता। आज के भारत में मुगल राजाओं द्वारा ढाए गए जुल्मों को उनके संदर्भ, उनके दौर से अलग करके प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि उन्हें कलुषित किया जा सके। एक अन्य बात भी समझनी जरूरी है और वह यह कि राजाओं के प्रशासनिक ढांचे में दोनों धर्मों के लोग होते थे, लेकिन एक जटिल प्रक्रिया के माध्यम से मुस्लिम राजाओं को आज के मुसलमानों के साथ और हिंदू राजाओं को आज के हिंदुओं के साथ जोड़कर देखा जा रहा है। मुसलमान राजाओं के दानवीकरण का हर नया दौर, आज के मुसलमानों को और अलग-थलग कर देता है और उनकी मुसीबतें बढ़ा देता है।
ये सारी बातें एक बार फिर दोहराने की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि एनसीईआरटी की कक्षा 8 की सामाजिक विज्ञान की पुस्तक सार्वजनिक हो गई है। इसमें 13वीं से 17वीं शताब्दी तक भारत के इतिहास का पुनरीक्षित विवरण दिया गया है। यह पुस्तक ‘समाज का अध्ययनः भारत और उसके आगे‘ श्रृंखला का हिस्सा है। यह एनसीईआरटी द्वारा दिल्ली सल्तनत और मुगलकाल के बारे में विद्यार्थियों को बताने वाली पुस्तकों की श्रृंखला में पहली है।
इस बार एनसीईआरटी ने मुस्लिम राजाओं का दानवीकरण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उसके अनुसार मंदिरों को ध्वस्त करने का उद्देश्य मूर्तियों को तोड़ना था। लेकिन यदि हम मंदिरो को ध्वस्त किए जाने की घटनाओं का गहराई से अध्ययन करेंगे तो एक अलग ही कहानी सामने आएगी। हम जानते हैं कि कल्हण रचित ‘राजतरंगिणी; में राजा हर्षदेव के बारे में बताया गया है कि उन्होंने देवोत्तपतन नायक पदनाम से एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति की थी जिसकी जिम्मेदारी थी देवताओं की मूर्तियों को नष्ट करना। उन्हाेंने ऐसा दौलत हासिल करने के लिए किया था, क्योंकि मूर्तियों के नीचे अक्सर सोने-चांदी के जवाहरात दबे होते थे। हर्षदेव संभवतः सबसे ज्यादा मंदिरों को नष्ट करने वाले राजा थे।
अब किसी विश्वसनीय स्त्रोत से पुष्टि के बिना औरंगजेब द्वारा नष्ट किए गए मंदिरों की संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है। यह सच है कि औरंगजेब ने कुछ मंदिरों को तोड़ने का आदेश दिया था लेकिन उसके द्वारा नष्ट किए गए मंदिरों की संख्या से ज्यादा बड़ी संख्या ऐसे मंदिरों की है जिन्हें उसने दान दिया। ‘फरमान्स ऑफ किंग औरंगजेब‘ शीर्षक से डॉ. विश्वम्भरनाथ पांडे द्वारा लिखित पुस्तक में उन असंख्य मंदिरों की सूची दी गई है जिन्हें औरंगजेब ने दान दिए।
जहां तक बाबर का सवाल है, उसके द्वारा राम मंदिर नष्ट किया जाना, दोनों समुदायों के बीच खाई को गहरा करने वाला मुख्य मुद्दा बन गया। इलाहबाद उच्च न्यायालय ने हिंदुओं को मस्जिद का एक हिस्सा दिए जाने का फैसला ‘आस्था’ के आधार पर दिया, ना कि किसी विधिक तर्क के आधार पर। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में भी मस्जिद के नीचे मंदिर होने की बात को सही नहीं माना गया। राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में मौजूद बाबर की वसीयत के मुताबिक बाबर ने हुमांयू को यह सुनिश्चित करने का आदेश दिया था कि मंदिरों को नष्ट न किया जाए और गौवध न हो क्योंकि यहां बहुसंख्यक लोग हिंदू हैं और उनकी आस्था और भावनाओं का सम्मान किया जाना चाहिए। यह इस बात का सबूत था कि बाबर एक व्यवहारिक शासक था।
एनसीईआरटी की पुस्तक में चित्तौड़गढ़ में 30,000 लोगों के कत्ल और अकबर के मंदिरों को नष्ट करने के आदेश का हवाला दिया गया है। चित्तौड़गढ़ की घेराबंदी में राजपूत राजा भगवंत दास, अकबर के सहयोगी थे। यह पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि बहुत से हिन्दू राजाओं ने भी इसी तरह के काम किए थे।
चोलों और चालुक्यों के बीच हुए युद्ध में विजयी चोलों ने पूरे शहर को नष्ट कर दिया था और बहुत से जैन मंदिरों को भी जमींदोज किया था। पुष्यमित्र शुंग ने बौद्ध भिक्षुओं की हत्या और बौद्ध विहारों और स्तूपों को नष्ट करने का अभियान चलाया था। बाल सामंत की पुस्तक ‘शिवकल्याण राजा‘ हमें शिवाजी की सेना द्वारा सूरत में की गई लूटपाट, आगजनी और लोगों पर हमलों के बारे में बताती है। यह सब राजशाही के उस दौर में आम था।
युद्धों में निर्ममता बरती जाती थी और इसका राजा के धर्म से कोई संबंध नहीं था। जिस सबसे बड़े तथ्य को नजरअंदाज किया जाता है या छुपाया जाता है वह यह है कि मुगल राजाओं की सेनाओं में हिंदू राजपूत सैनिक होते थे और हिंदू राजाओं की सेनाओं में मुस्लिम सैनिक। अन्यों के अलावा अकबर की सेना में मानसिंह थे और औरंगजेब की सेना में जयसिंह और जसवंत सिंह थे। राणा प्रताप की सेना के सेनापति हाकिम खान सूर थे और दौलत खान, इब्राहिम गर्दी और बहुत से सिद्दी शिवाजी महाराज के साथ थे।
इस पुस्तक में इतिहास का विवरण चुन-चुनकर दिया गया है, और कई मामलों में मुसलमानों के हिंदू राजाओं के साथ होने या हिंदुओं के मुस्लिम राजाओं के साथ होने की बात को छिपाया गया है। जहां बाबर, अकबर और औरंगजेब की क्रूरता का विवरण दिया गया है वहीं उनके प्रशासन और सेना में दोनों धर्मों के लोगों के होने का जरा सा भी जिक्र नहीं है।
इसी तरह तथ्य यह है कि मुगल साम्राज्य के पूरे दौर में जज़िया लागू नहीं था। अकबर 1560 में राजगद्दी पर बैठा और उसने दो-तीन साल के अंदर जज़िया हटा दिया। जज़िया धर्म-परिवर्तन को प्रोत्साहित नहीं करता था, बल्कि वह गैर-मुसलमानों पर लगाया जाने वाला एक कर था, जिन्हें धिम्मी कहा जाता था अर्थात वह समुदाय जिसे मुस्लिम राज्य का संरक्षण हासिल था। ब्राह्मणों और महिलाओं को इस कर से छूट थी।
इस काल को इतिहास का काला दौर कहा जा रहा है। इतिहास के हर दौर के कुछ उजले पहलू होते हैं और कुछ शर्मनाक। इस काल में अति मानवीय सूफी और भक्ति परंपराओं का उदय हुआ। इस काल में ही सिक्ख धर्म की स्थापना हुई और वह फला-फूला। इतिहास के इस काल में ही दोनों प्रमुख धर्मों की परंपराओं के सामाजिक और सांस्कृतिक मेलमिलाप से एक मिश्रित संस्कृति - गंगा-जमुनी तहजीब - का उदय हुआ। इस काल में ही दोनों धर्मों की कई प्रथाओं के संश्लेषण से इस सरज़मीं के रीति-रिवाजों ने आकार लिया।
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