विकास के जुनून और कॉफी-चाय के बागानों को लगाने की होड़ में कहीं लुप्त ना हो जाए नीलकुरिन्जी!

हम इंसान भी अजीब हैं। पहले किसी को खत्म कर देने पर आमादा हो जाते हैं। फिर लुप्तप्राय होते फूलों, पशुओं, पक्षियों को संवारने में समय और पैसा लगाते हैं। उनके नाम पर स्थानीय जन बेदखल किए जाते हैं। नीलकुरिन्जी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है।

फोटो: सोशल मीडिया
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मीनाक्षी नटराजन

प्रिय नीलकुरिन्जी,

करीब 20 साल पहले किताबों को खंगालते वक्त पहली बार तुम्हारा नाम पढ़ा था। पता चला कि कुरिन्जी नाम का भी कोई फूल होता है। फिर यह मालूम हुआ कि कुरिन्जी तुम नीले रंग की हो। तुम 12 साल में एक बार ही खिलती हो। उसके बाद रोज की आपा-धापी में तुम्हारी कभी याद नहीं आई। कहां खिलती हो?, कैसे दिखती हो? जानने की जिज्ञासा भी क्षीण होती चली गई। कुछ सालों पहले फूलों को फिर निहारना शुरू किया। तब बरबस तुम्हारी याद आई। कहां खिली हो? पिछले साल तुम्हारे खिलने की सूचना मिली थी। तुम कर्नाटक के गोडागु जिले की पहाड़ी पर खिली थी। तब मिलने की साध अधूरी रह गई।

इस साल सितंबर की शुरुआत में खबर आई। तुम चिकमगलूर में खिल उठी हो। 14 साल बाद। पूरे दो साल देर से। वैसे तो हर 12 साल में लौटती हो। केवल भारत के पश्चिमी घाट के दक्षिणी हिस्से को संवारती हो। पूर्वी घाटी के भी थोड़े-से हिस्से में कभी-कभी खिलती हो। पहाड़ों के घुमावदार रास्तों से होकर पश्चिमी घाट की सबसे ऊंची चोटी के निकट तुम खिली हुई हो। जैसे-जैसे करीब गए, पहाड़ नीले-नीले फूलों के गुच्छों से भरे मिले। जैसे कोई नीले फूलों की कालीन बिछा दी गई हो। तुम्हारे ही कारण तो ये पहाड़ ‘नील गिरी’ कहलाते हैं। वैसे चिकमगलूर के बाबा बुदानगिरी की पहाड़ी पर तुम हर 12 साल में लौटती रही हो।

वैज्ञानिकों ने तुम्हारे कुनबे को चिह्नित किया है। तुम्हें ‘स्ट्राबिलैन्थेस कुन्थियाना’ नाम दिया है। सबसे पहले भारत में तुम्हारे खिलने को औपचारिक रूप से 1838 में दर्ज किया गया। तुम्हारा कुनबा छोटा नहीं है। लगभग ढाई सौ प्रजाति सदस्य हैं। उनमें 46 तो भारत में ही पाए जाते हैं। यह तो हुई विज्ञान की बात। लेकिन हजारों साल से स्थानीय आदिवासी एवं ग्रामवासियों का तुमसे एक रूमानी संबंध है। तुम्हारी नीली कोमल पंखुड़ियों में जब ओस की बूंदें गिरती हैं, तब जैसे उनका संसार रोशन हो जाता है। पूरा पर्वत नीलकुरिन्जी का बगीचा-सा बन जाता है। वैसे, पश्चिमी घाट कई प्रकार की वनस्पतियों, पक्षियों, पशुओं का बसेरा है।

भू-गर्भ विशेषज्ञ कहते हैं कि कई करोड़ साल पहले जब धरती का एक विशाल प्रायद्वीप जिसे गोंडवाना कहा जाता है, खिसककर एक अन्य प्रायद्वीप से जा टकराया, तब भौगोलिक रूप से आज की भारत भूमि का निर्माण हुआ। उस जोरदार घर्षण से ही पश्चिम की घाटी बनी। पश्चिमी घाटी की प्रकृति वनस्पति अपने आप में नायाब है। उसका संरक्षण अत्यंत जरूरी है। सिर्फ इसलिए नहीं कि वे सब वनस्पतियां जीवन दायिनी हैं। इसलिए भी कि वे अनुपम हैं और दुर्लभ हैं। हमसे पहले पृथ्वी पर उनका पदार्पण हो चुका है। पश्चिमी घाटी के संरक्षण के कई प्रयास हुए लेकिन हर क्षण इनका क्षय होता जा रहा है।

विकास के जुनून और कॉफी, चाय के बागानों को लगाने की होड़ ने नैसर्गिक वनस्पति को क्षति ही पहुंचाई है। नीलकुरिन्जी! तुम भी उसी की भेंट चढ़ गई। इसलिए दो-चार साल की देरी होती जा रही है। पहले तो किसी-न-किसी घाटी के पहाड़ पर खिली रहती। अब देखना दुश्वार हो गया है।

हम इंसान भी अजीब हैं। पहले किसी को गुम करने पर आमादा हो जाते हैं। फिर लुप्तप्राय से होते फूलों, पशुओं, पक्षियों को संवारने में समय और पैसा लगाते हैं। उसके नाम पर स्थानीय जन बेदखल किए जाते हैं। वे सब जो बरसों-बरस तुम्हारे साथ खेले-खाए, तुम पर गीत लिखे-गाए-नाचे। तमिल के संगम साहित्य में पांच भौगोलिक क्षेत्रों का वर्णन मिलता है। इन क्षेत्रों को ‘तिनै’ कहा जाता है। उसमें पहाड़ी क्षेत्र को तुम्हारी, यानी कुरिन्जी की संज्ञा दी जाती है।

संगम साहित्य में पहाड़ कुरिन्जी कहलाते हैं, तो उपजाऊ उर्वर खेती की भूमि को ‘मरुदल’ कहते हैं, ‘मुलै’ माने वन क्षेत्र, ‘नईदल’ समुद्र किनारे के तटीय क्षेत्र, ‘पालै’ मरुस्थल को कहते हैं। यह पांचों भौगोलिक पर्यावास मनःस्थिति का भी प्रतीक हैं। पालै शुष्कता, रुक्षता का प्रतीक है। मुलै वन क्षेत्र होने के कारण विविधता और सहजीवन, नईदल लंबी जुदाई से जुड़ी कसक, मरुदल उर्वरता, प्रगति और छल को दर्शाता है। कुरिन्जी! तुम तो मिलन और बिछोह का खास प्रतीक हो।

कितने सुंदर गान ‘पत्त-पाटु’ में तुम्हारे लिए गाए गए हैं। ‘कुरुंतोंहै’ माने आठ पदावली और कुरिन्जी पाटु में तुम्हारा बिंब हर वाक्य में मौजूद है। कुरवर युवक-युवती जब मधुर तान बजाते हैं, ढोलक की थापें गूंजती हैं, तो भालू मुड़कर तुन्हें देखते हैं। कवि भले ही 99 फूलों का उल्लेख करते हैं लेकिन हर पद से तुम झांकती हो। पहाड़ों में विचरते हिरणों, हाथियों और बाघ का वर्णन है। ताल-तलैयों में सुस्ताते घड़ियाल, मरमच्छ, पक्षियों और जलचरों का भी वर्णन है। लेकिन सब कुरिन्जीमय हो गए-से लगते हैं।

तुम्हारे साथ बिताए कुछ पलों में जैसे वह पूरा समय लौट आया। वही गान कानों में गूंजने लगे। पास में लोगों का झुंड आता जा रहा है। फोटो का दौर चला। मगर मुझे इतना ही कहना था कि तुम बिलकुल नहीं बदली हो। आज भी किसी के मन को गुदगुदा सकती हो, तुम खिलती हो, खिलखिलाने का मौका दे जाती हो, रुआंसा भी कर जाती हो। उन सातवीं-आठवीं सदी की कविताओं को पढ़कर जैसी तुम्हारी छवि गढ़ी थी, बस वैसी ही हो। नीलकुरिन्जी! अगली बार जल्दी आना। ये पहाड़ हमसे पहले तुम्हारे हैं। तुम्हारा ननिहाल। इसे भूलना मत।

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