नीतीश कुमार ने बिहार में बीजेपी का साथ छोड़ा तो महंगा पड़ेगा, लेकिन साथ रहे तब भी रास्ता आसान नहीं

दिल्ली चुनाव में जेडीयू ने दो सीटों पर चुनाव लड़ा और हार मिली। अब बिहार में चुनाव की बारी है, लेकिन बीजेपी ने अभी से आंखें दिखाना शुरु कर दी हैं। ऐसे में नीतीश कुमार का बीजेपी के साथ रहना उन्हें महंगा पड़ सकता है, लेकिन साथ छोड़ने का भी तो विकल्प नहीं है।

फोटो : Getty Images
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सुरुर अहमद

दिल्ली विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की जेडीयू न सिर्फ वह दोनों सीटें हार गई जो उसने बीजेपी के साथ मिलकर लड़ी थीं, बल्कि गृहमंत्री अमित शाह और बीजेपी अध्यक्ष जे पी नड्डा जैसे बीजेपी के हाई प्रोफाइल नेताओं और खुद नीतीश कुमार के प्रचार के बावजूद उसे शिकस्त का सामना करना पड़ा।

इन दोनों सीटों पर बिहार के लोगों का अच्छा खासा प्रभाव है, ऐसे में इन सीटों पर हार जेडीयू के लिए खतरे की घंटी है। विडंबना यह रही कि इन सीटों पर प्रचार के दौरान नीतीश कुमार ने अरविंद केजरीवाल पर यह कहते हुए हमला बोला कि उन्होंने दिल्ली के लिए कुछ नहीं किया, जबकि अपनी पीठ थपथपाते हुए दावा किया कि उन्होंने बीते 14 साल में बिहार की तस्वीर बदल दी। लेकिन बिहार के वोटरों को रिझान नहीं पाए।

दिल्ली का चुनाव जेडीयू के लिए इस मायने में अहम है क्योंकि कोई 8 महीने बाद ही बिहार में विधानभा चुनाव होने हैं। इसके अलावा इसलिए भी महत्वपूर्ण थे क्योंकि यह पहला मौका था जब जेडीयू ने बिहार के बाहर कहीं बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था, और उसे अच्छे नतीजे की उम्मीद थी। हालांकि चुनावी विश्लेषकों को इसमें नीतीश के लिए कुछ उम्मीद दिखती है लेकिन हकीकत ऐसी नहीं है।


दिल्ली चुनाव के बाद एक टीवी बहस में जेडीयू प्रवक्ता ने कहा कि दिल्ली में आप की जीत इसलिए हुई क्योंकि उसने अच्छा शासन किया था, और इसी कारण बिहार में नीतीश की अगुवाई में एनडीए की सत्ता में वापसी होगी। यहां रोचक है कि प्रचार के दौरान नीतीश कुमार खुद आप सरकार के शासन पर सवाल उठा रहे थे। दिल्ली में जेडीयू के दोनों उम्मीदवारों की हार का असली कारण देखें तो सामने आता है कि बीजेपी ने अनमने तरीके से इन सीटों पर फोकस किया। और संभावना है कि बिहार में भी जेडीयू के हिस्से वाली सीटों पर कुछ ऐसा ही होगा।

2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त नीतीश कुमार की जेडीयू अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थी तब भी उसे 15.8 फीसदी वोट ही मिले थे। हालांकि नीतीश कह सकते हैं कि ये तो लोकसभा का चुनाव था, लेकिन इसी चुनाव में ममता बनर्जी की तृणमूल ने पश्तिम बंगाल में और नवीन पटनायक की बीजेडी ने ओडिशा में मोदी को जगह नहीं बनाने दी थी। इतना ही नहीं आरजेडी तो अपनी चमक खो चुकी थी, फिर भी उसने 4 सीटें जीत लीं थी, जबकि जेडीयू के हिस्से में सिर्फ दो ही सीटें आई थीं। आरजेडी का वोट शेयर भी जेडीयू से ज्यादा था।

बिहार में 2015 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी और जेडीयू दोनों ने 100-100 सीटों पर चुनाव लड़ा था और बाकी की 40 सीटें कांग्रेस के उम्मीदवारों के लिए छोड़ी थीं। हालांकि लालू यादव ने चुनाव के दौरान ही नीतीश कुमार को सीएम पद के लिए प्रोजेक्ट किया था,फिर भी जेडीयू का चुनावी प्रदर्शन चौंकाने वाला था। बराबर की सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद आरजेडी ने 80 और जेडीयू ने 71 सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस ने 27 सीटों पर जीत दर्ज की थी। यहां ध्यान देना जरूरी है कि कांग्रेस के हिस्से में ज्यादातर शहरी सीटें आई थीं जहां बीजेपी आमतौर पर मजबूत मानी जाती है। फिर भी कांग्रेस का प्रदर्शन जेडीयू के लगभग बराबर था।


फिलहाल बिहार में नीतीश कुमार को लेकर बीजेपी कार्यर्ताओं या समर्थकों में कोई उत्साह नहीं है। इनमें से ज्यादातर लोग नीतीश के रवैये से नाराज हैं। इसलिए बीजेपी इस बार न सिर्फ ज्यादा सीटों पर नजरें गड़ाए है बल्कि वे मुख्यमंत्री पद के लिए बीजेपी का चेहरा भी चाहते हैं। भले ही अमित शाह ने सरेआम कह दिया हो कि बिहार में एनडीए नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ेगा, लेकिन एनडीए के चुनाव जीतने की स्थिति में नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री होंगे, इस पर वे चुप हैं।

इन हालात में अकेले चुनाव लड़ने का विकल्प तो नीतीश कुमार के पास है नहीं। स्थिति यह है कि वे बीजेपी के साथ रहते हैं तो मुसीबत में हैं और बीजेपी का साथथ छोड़ते हैं तो भी मुसीबत सामने है।

इस सबके बीच आरजेडी और कांग्रेस चुनावों के लिए कमर कसती नजर आ रही है और अति पिछड़ा वर्ग और दलित समुदाय के कई नेता इन दोनों दलों को साथ जुड़ रहे हैं।

दिल्ली चुनाव एक वरदान की तरह हैं विपक्ष के लिए, क्योंकि अगर आम आदमी पार्टी लोकसभा चुनाव के मुकाबले अपना वोट शेयर तीन गुना कर सकती है, तो बिहार में आरजेडी-कांग्रेस का महागठबंधन भी ऐसा कर सकता है।

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